( पत्रकार मनोज कुमार के साप्ताहिक कॉलम ‘देसवा ‘ की पाँचवी क़िस्त )
मार्च 2006 की बात है। दो वर्षों से कुशीनगर में मुसहर समुदाय में भूख, कुपोषण व कुपोषण जनित बीमारियों से मौत की लगातार खबरें आ रही थीं। अक्टूबर 2004 में दोघरा गांव में नगीना मुसहर की मौत पर काफी हंगामा हुआ। इस घटना की गूंज लखनऊ और दिल्ली तक सुनी गयी। पूर्वी उत्तर प्रदेश में भूखमरी से किसी मौत की यह पहली घटना थी जो मीडिया में आयी थी।
इस घटना के बाद कुशीनगर, देवरिया, महराजगंज सहित पूर्वी उत्तर प्रदेश में मुसहरों की स्थिति न सिर्फ मीडिया बल्कि राजनीति के केन्द्र में भी आ गयी थी।
वर्ष 2004 में भुखमरी से नगीना मुसहर की मौत के बाद मै लगातार कुशीनगर जिले के मुसहर गांवों का दौरा कर रहा था और उनके बारे में लिख रहा था।
कुशीनगर जिले के 100 गांवों में रहने वाले मुसहरों के हालात बहुत खराब थे। आज भी उनके हालात में बहुत फर्क नहीं आया है।
मुसहरों के पास खेती की जमीन नहीं थी। वे कर्ज में डूबे थे। खेती में मशीनों के बढ़ते प्रयोग के कारण उन्हें बहुत कम काम मिलता था। उस वक्त खेत में मजदूरी करने पर महिलाओं को 20 रुपए और पुरुषों को 40 रूपए से अधिक नहीं मिल रहे थे। मुसहर नौजवान गांव छोड़ कर भाग रहे थे। कुपोषण के कारण 40-45 वर्ष की आयु के मुसहर भी बूढ़े दिखते थे।
हर घर में कोई न कोई बीमार मिलता था। कुपोषण के कारण तपेदिक का भयानक प्रकोप था। कुपोषित बच्चों को देखने पर दिमाग में सोमालिया के बारे में पढी-देखी खबरें और तस्वीरें घूमने लगती थीं। मुसहर बच्चे सुबह से पेट की क्षुधा शांत करने के लिए तालाबों के किनारें घोंघे ढूंढते है या गन्ना, गेंठी चूस कर अपनी भूख मिटाते। महिलाएं व पुरुष धान-गेहूं के कटे खेतों में चूहे के बिल ढूंढते और फिर उसे खोद कर चूहों द्वारा छिपाए गए अनाज को बाहर निकाल कर अपने लिए भोजन के इंतजाम में जुटे रहते।
सभी मुसहर बस्तियां गांव के दक्खिन की तरफ थीं। गांव में चलते-चलते जब पांव के नीचे से खड़ंजा और कच्ची सड़क गायब हो जाती तो पता चल जाता कि कोई मुसहर बस्ती सामने आने वाली है।
दिसम्बर 2005 से मार्च 2006 तक मुसहर बस्तियों में भूख, कुपोषण बीमारी से कई मौतें हुईं थीं।
दुदही ब्लाक के गौरीश्रीराम गांव के बेदौली टोले में 18 जनवरी को इनरपतिया की मौत हो गयी। उसके पति की चार वर्ष पहले मौत हो चुकी थी। उनके चार बच्चे-रजमतिया (13 वर्ष ) टुनटुन (10 वर्ष ), गम्हा (6 वर्ष ) और रम्भा (4 वर्ष ) अनाथ हो गए थे। बच्चों की देखभाल के लिए उनकी नानी जोतिया को आना पड़ा।
ये खबरें अब नेशनल मीडिया तक पहुुंच रही थीं और वहां से भी रिपोर्टर आने लगे। मार्च के पहले हफ्ते में इन गांवों में जाना हुआ।
बेदौली टोले में जब हम जोतिया के घर पहुंचे तो वह चारों बच्चों के साथ उदास बैठीं थीं। घर के सामने बखार था। हमने पूछा कि अनाज है कि नहीं। बच्चों का कैसे इंतजाम होगा। जोतिया का सपाट जवाब था-खुदे देख ल।
ऐसे बखार हर मुसहर के घर के पास थे। मिट्टी से पुते हुए और छान से ढके हुए। जमीन से डेढ फीट उपर बांस की चंचरी पर इन बखारों को रखा गया था। बखारों को देख मुझे एकाएक हैरत हुई कि भूख से मर रहे मुसहरों के पास अनाज के इतने बड़े बखार कैसे हो सकते हैं। एक साथी पत्रकार बोले कि इस गांव में मुसहरों की हालत ठीक लगती है। कम से कम उनके पास अनाज तो है।
हमने इनरपतिया के बखार के उपर रखा छान हटाया तो वह एकदम खाली था। उसमें अनाज का एक दाना नहीं था। आस-पास के कुछ और बखारों के छान हटा कर देखे गए। सब उसी तरह थे। हमें ऐसा करते देख कई मुसहर हंसने लगे।
एक मुसहर हंसते हुए बोला-‘ सब धोखा ह बाबू। ई बखार एही लिए बनावल गईल बा कि हमन के लोग खात-पिवत वाला समझें। बरदेखुआ आवें तक उनके लगे कि हमनी के पास अनाज क कमी नाहीं बा। आपें बताईं जेकरी पास खेत-बारी नइखे ओकरे पास बखार में रखे खाजिर अनाज कईसे होई। ’
इनरपतिया के घर में एक गठरी में अनाज दिखा जो उसकी मौत के बाद कोटेदार पहुंचा गया था।
इनरपतिया की पड़ोसी कलावती अपनी झोपड़ी के सामने धान सुखा रही थी। मैंने उनसे पूछा कि धान कहां से मिला ? कलावती के जवाब ने एक बार फिर हमे झटका दिया। कलावती बोलीं कि चूहे के बिल से निकालकर लायीं हैं। धान की कटाई के समय वह फाजिलनगर की तरफ गयीं थीं। धान कटाई की मजूरी दो रजिया धान ( लगभग दो किलो ) मिलती थी। जब धान के खेत कट गए तो वे घूम-घूम कर चूहे का बिल ढूंढने लगे। चूहों का बिल मिलने पर वे उसे खोद कर चूहों द्वारा इकट्ठे किए गए धान निकाल लेते। पूरे चार महीने मजूरी करने के दौरान उन्होंने चूहों के बिल से 16-17 किलो धान इकट्ठा किया था। अब वे इसे सूखा कर बखार में रखेंगी ताकि मजदूरी न मिले तो काम आए।
बेदौली के बाद हम ठाड़ीभार गांव पहुंचे। गांव के मुसहर टोले में दिसम्बर महीने में शंभू मुसहर की तपेदिक से मौत हो गयी थी। हम शंभू की पत्नी से मिलना चाहते थे।
शंभू के घर पर उसकी पत्नी जसिया और उसकी बेटी रूना घर के बाहर बैठी मिलीं। जसिया की आंखे असामान्य रूप से बड़ी थीं। उसकी आंखों से नजर हटाना मुश्किल था।
बातचीत के क्रम में मैने उनसे पूछा कि उनके घर में इसके पहले भी कोई और मौत हुई है क्या ?
कुछ देर की चुप्पी के बाद जसिया बोली-हां शिव के।
शिव कौन ?
बड़ा बेटा था।
कैसे हुई ?
बीमार रहलें।
……कोई और मौत ?
जसिया चुप थी।
हम लौटने लगे। तभी पास खड़ा एक लड़का बोल पड़ा- लल्लनों त मर गइलन !
लल्लन कौन ?
इनकर छोट लड़का रहनन।
मैनें देखा कि जसिया दिमाग पर जोर डाल कर कुछ याद करने की कोशिश कर रही है। कुछ देर बाद बोलीं- ‘ हां …हां लल्लन नवकी बीमारी ( इंसेफेलाइटिस ) से मर गइलन । ढेर दिन क बात हो गइल। ‘
एक साल में दो बेटे और पति की मौत। तीसरा बेटा मजदूरी करने के लिए कहीं चला गया है। जसिया को नहीं पता कि कहां मजदूरी करने गया है। पूछने पर उत्तर दिशा की ओर हाथ उठा कर कहती है उधरिए गईल बांट।
जसिया की बेटी रूना को ससुराल वालों ने खदेड़ दिया है। वह कहती है कि ससुराल वाले बोले कि उसके घर में इतनी मौत क्यों हो रही है ? वह अशुभ है। यहां रहेगी तो हम लोग भी मर जाएंगे। ’
जसिया ने अपने दोनों बेटों का क्रिया-करम नहीं किया क्योंकि उसके पास पैसे नहीं थे।
पति की मौत के बाद उसके घर कई नेता आए। ’ बाबा‘ भी एक दिन पहले आए और कुछ रुपये देते हुए कार्यकर्ताओं को निर्देश दिया कि शंभू का ठीक से क्रिया-करम हो जाए।
हम गांव से लौट रहे थे लेकिन जसिया की बड़ी-बड़ी आंखे अपने सवालों के साथ हमारा पीछा कर रही थीं। वे आंखे आज भी मेरा पीछा कर रही हैं। उससे बच पाना मुश्किल है। जसिया की आंखों को देख लगता है कि गोरख पांडेय ने ऐसी ही किसी आँख को देखते हुए लिखा होगा-
ये आंखें हैं तुम्हारी
तकलीफ का उमड़ता हुआ समुंदर
इस दुनिया को
जितनी जल्दी हो
बदल देना चाहिए ।