(महेश्वर हिंदी की क्रांतिकारी जनवादी धारा के महत्वपूर्ण एक्टिविस्ट, पत्रकार, संपादक, लेखक, कवि और विचारक थे। वे समकालीन जनमत के प्रधान संपादक थे। महेश्वर जी जन संस्कृति मंच के महासचिव भी रहे। अपनी जानलेवा बीमारी से उनका जुझारू संघर्ष चला। लगभग एक दशक के उसी अंतराल में उन्होंने साहित्य-संस्कृति और पत्रकारिता के मोर्चे पर बेमिसाल काम किया। 25 जून 1994 को उनका निधन हो गया, पर आज भी उनका जीवन और उनका काम हमारे लिए उत्प्रेरक है, प्रासंगिक है।)
बीमारी के लंबे समय ने माहेश्वर को कविता से ज्यादा जोड़ा। किसी कवि की पंक्तियों का भाव यह था कि मैं सारे मोर्चों पर लड़ूंगा पर मरने के लिए खुद को कविता के मोर्चे पर छोड़ दूंगा। महेश्वर ने यही किया। कविता का मोर्चा, स्वप्नों का, भविष्य का मोर्चा होता है और स्वप्न निर्णायक नहीं होते, स्वप्नों के लिए लड़ाई निर्णायक हो सकती है।
महेश्वर के लेखन का बड़ा हिस्सा बच्चों और स्त्रियों पर केंद्रित है। अपनी एक कविता में वे उस दिन की कल्पना करते हैं जब पुरुषों का रुआब और उनकी डपट सब गर्क हो जाएंगे और –
फूलों की घाटी को
अपने लहूलुहान पैरों से
हमवार करती हुई
…
वह आएगी
एक विजेता की तरह
…
घाटी में सूरज उगाती हुई …
बच्चों को वे एक ऊष्मा प्रतीक के रूप में देखते हैं। ‘ इस कमरे में ‘ कविता का पहला पैरा कवि की संवेदनात्मक सुग्राहयता को दर्शाता है –
टूटे काँच की खिड़कियों से छिद कर
फुदक आता है धूप का दुधमुंहा बच्चा
कुछ देर बिस्तर पर लगाता है लोट
फिर पलटी मार कर छू लेता है
मटमैले फर्श पर पसरी धरती की धूल।
जीवन की उष्मा से ऊर्जस्वित धूल में खिलता यह फूल महेश्वर के सिवा और कौन हो सकता है।
‘रोशनी के बच्चे ‘ कविता में वे आम जन को रोशनी का बच्चा संबोधन देते हैं। व्यवस्था की चक्की में पिस कर भी उसकी रोटी के लिए अपना खून सुखाती जनता को महेश्वर से बेहतर कौन जान सकता है, यह उनकी कविता पंक्तियों से जाना जा सकता है –
उनकी बिवाइयों से फूटते हैं संस्कृति के अंकुर
…
उनके निर्वासन से डरता है स्वर्ग
जीवन के अंतर्विरोधों से लड़ता कवि जब अपने अंतर्द्वंद्व से परेशान हो जाता है तो एक आदिम सवाल दोहराता है –
क्या है प्रकाश और अंधकार का रिश्ता
एक के बाद एक के आने में
कहां हैं जीवन के छुपे गुणसूत्र।
‘दर्द’ महत्वपूर्ण कविता है माहेश्वर की जो कभी के जीवट को दर्शाती है। साधारण व्यक्ति का दर्द उसको तोड़ता है पर महेश्वर का दर्द नसों को रस्सी की तरह बंट देता है उसे और जटिल बना देता है –
वह एक ही सूत्र में
पिरो देता है
अनास्था और विश्वास
क्या इस जीवन की जटिलता का कोई अंत भी है, कवि खुद से सवाल करता है और अनिश्चितता के व्यामोह में फंसता एक करुण, खोया सा जवाब देता है –
ओह, अभी वह बाकी है …
यहां दूर किसी सुरंग से आती हुई मालूम पड़ती है कवि की आवाज।
‘कल की आहट’ महेश्वर की एक महत्वपूर्ण कविता है जिसमें वह अपने ग्राम समाज से लेकर भारतीय उपमहाद्वीप और एक ध्रुवीयता को प्रचारित करती विश्व की राजनीति पर गंभीरता से विचार करते हैं। उसकी खामख्यालियों से जूझते हुए वे देखते हैं कि –
लोकतंत्र अभी भी सपनों में पलता एक इरादा है
जिसे जमीन पर लाना है। इस सपने के लिए कवि के भीतर जो जीवट है वह रोगशैया पर भी धूमिल नहीं पड़ता। वह लिखता है –
और चाहे तुम्हारे फेफड़ों का साथ छोड़ गई हो
सारी की सारी हवा
मगर मेरे देश की पसलियों में जिंदा है आने वाले कल का चक्रवात।