समकालीन जनमत
चित्रकलाशख्सियत

एम एफ हुसैन की कला में मुक्ति, संघर्ष और प्रगतिशीलता प्रधान स्वर हैं

(17 सितम्बर जाने माने चित्रकार, पद्म विभूषण से सम्मानित मकबूल फिदा हुसैन का जन्म दिन होता है । हुसैन साहब की याद में प्रस्तुत है युवा आलोचक दुर्गा सिंह का यह लेख ।)
दुर्गा सिंह

एम एफ हुसैन और उनकी कला का निर्माण औपनिवेशिक गुलामी से भारत की जनता के संघर्ष और एक आधुनिक प्रगतिशील नागरिक व राष्ट्र के बनने की आकांक्षा, सपने और छटपटाहट में हुआ।

आजादी  की इस  लड़ाई ने एम एफ हुसैन को भी प्रभावित किया। वह दौर नयेपन के साथ  अपनी जातीय स्मृतियों को फिर से खंगालने का भी है। आस्था, परम्परा आदि पर आलोचनात्मक रवैया नये जमाने के साथ फिर से विकसित होने लगी थी। एक और जो खासियत थी राष्ट्रीय आन्दोलन की कि उसने सांस्कृतिक विविधता को बतौर नैतिकता व मूल्य के अंगीकृत किया था। और यह विविधता कोई नयी अर्जित चीज नहीं थी बल्कि यह यहाँ की जातीय स्मृति का हिस्सा भी थी और एक जिन्दा ट्रेडीशन भी। जिसका निर्माण निःसंदेह मुगलों के समय में हुआ, संत-सूफी सामाजिक आन्दोलन से हुआ। एम एफ हुसैन को भी और उनकी पेंटिंग/रचना को जानने समझने के लिए इसे तवज्जो देना चाहिए, ध्यान में रखना चाहिए। इसीलिए

हुसैन की पेण्टिंग की खासियत है कि वे सारे रंगों का प्रयोग करते हैं। एक दो रंगों से काम नहीं लेते। यह भारतीयता की उनकी समझ को तो दिखाता ही है साथ ही कला में मालवा की कला परम्परा को भी दर्शाता है।मालवा की कला अपने चटक रंग के लिए जानी जाती है।इतिहास में पेण्टेड और प्रिण्टेड मिट्टी के बर्तन मालवा में ही मिलते हैं। जिसे एम एफ हुसैन की कला में देवी देवताओं के नग्न चित्रण से जोड़ा जाता है वह भी मालवा की कला की अपनी खूबी है। राजपूत काल में इस क्षेत्र में कलचुरियों के शासन के दौरान तो देवी-देवताओं के सेक्स अवस्था की मूर्तियों का खूब विकास हुआ। खजुराहो के चन्देल शासकों के यहां भी यह कलचुरियों से ही आता है।कलचुरी एक अलग सम्प्रदाय चलाते हैं जिसे वीरशैव सम्प्रदाय कहा जाता है।दक्षिण में इसी की एक शाखा जाती है जो लिंगायत मत की स्थापना करती है।वीरशैव सम्प्रदाय की स्थापना कलचुरियों ने वैष्णव सम्प्रदाय के विरुद्ध किया था।इसमें सांसारिक जगत के राग से देवता भी चलते हैं। एम एफ हुसैन मालवा कला की इसी लोकपरम्परा को आधुनिक कला में मिला देते हैं।एम एफ हुसैन के लिए यह उनकी जातीय कला भी है क्योंकि वे इंदौर में ही  पले बढ़े हैं।

गांधी और ब्रिटिशराज की कथाश्रृंखला से लेकर महाभारत तक पेण्टिंग के माध्यम से हुसैन साहब के यहां इसी क्रम में अभिव्यक्ति पाता है। लेकिन यह 1946 का साल है जो देश के लिए भी और एम एफ हुसैन की पेण्टिंग के लिए भी एक मोड़ साबित होता है। हिन्दुस्तान का विभाजन और बड़े पैमाने पर हुआ दंगा एम एफ हुसैन की कला को एक नयी दिशा में धकेल देता है। दिसम्बर 1947 में इन्हीं बदली हुई परिस्थिति के मद्देनजर एम एफ हुसैन अपनी नयी भूमिका चुनते हैं। वे मुम्बई में प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप की स्थापना की महत्वपूर्ण कड़ी बनते हैं। विभाजन और दंगों की विभीषिका को वे अपनी कला में व्यक्त करते हैं।इंसानियत के जज्बे से सराबोर कलाकार के लिए यह एक हौलनाक स्थिति होती है जब वह मार-काट के दृश्यों से प्रत्यक्ष तौर पर भी और पुर्नरचना से भी गुजरे।यह दोहरी पीड़ा से गुजरना होता है। एम  एफ हुसैन इस दोहरी पीड़ा से गुजरने वाले रचनाकार हैं।

एम एफ हुसैन की कला में मानवता की अभिव्यक्ति का तरीका मशहूर किस्सागो मन्टो की तरह है।मण्टो के यहां विभाजन और दंगे में क्षत-विक्षत हुई मानवता और रिश्ते को जिस तरह के किस्सों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है वह दकियानूस और नासमझों के लिए अश्लीलता की कोटि में आ सकता है लेकिन वह नैतिकता के कारोबार को खोल देता है। एम एफ हुसैन की कला से दिक्कत धर्म और नैतिकता के ठेकेदारों को इसीलिए ज्यादा हुई क्योंकि हुसैन की कला इनके दिमाग की तंगहालत पर चोट करती है।वे अपनी अंधेरी कोठरी के काले कारनामों पर पड़ती हलकी सी रोशनी से भी डरते हैं। खैर, जो भी हो एम एफ हुसैन हमारी थाती हैं, जिसे बनाये/बचाये रखना है, निरंतर याद करते रहना है

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