महाजनी सभ्यता
मुज़द: ए दिल कि मसीहा नफ़से मी आयद;
कि जे़ अनफ़ास खुशश बूए कसे मी आयद।
( हृदय तू प्रसन्न हो कि पीयूषपाणि मसीहा सशरीर तेरी ओर आ रहा है। देखता नहीं कि लोगों की साँसों से किसी की सुगन्धि आ रही है।)
जागीरदारी सभ्यता में बलवान भुजाएँ और मजबूत कलेजा जीवन की आवश्यकताओें में परिगणित थे, और साम्राज्यवाद में बुद्धि और वाणी के गुण तथा मूक आज्ञापालन उसके आवश्यक साधन थे। पर उन दोनों स्थितियों में दोषों के साथ कुछ गुण भी थे। मनुष्य के अच्छे भाव लुप्त नहीं हो गये थे। जागीरदार अगर दुश्मन के खून से अपनी प्यास बुझाता था, तो अकसर अपने किसी मित्र या उपकारक के लिए जान की बाजी भी लगा देता था। बादशाह अगर अपने हुक्म को कानून समझता था और उसकी अवज्ञा को कदापि सहन न कर सकता था, तो प्रजापालन भी करता था, न्यायशील भी होता था।
दूसरे के देश पर चढ़ाई वह या तो किसी अपमान-अपकार का बदला फेरने के लिए करता था या अपनी आन-बान, रोब-दाब कायम करने के लिए या फिर देश-विजय और राज्य-विस्तार की वीरोचित महत्वाकांक्षा से प्रेरित होता था। उसकी विजय का उद्देश्य प्रजा का खून चूसना कदापि न होता था। कारण यह कि राजा और सम्राट जनसाधारण को अपने स्वार्थसाधन और धन-शोषण की भटठी का ईंधन न समझते थे। किन्तु उनके दुख-सुख में शरीक होते थे और उनके गुण की कद्र करते थे।
मगर इस महाजनी सभ्यता में सारे कामों की गरज महज पैसा होती है। किसी देश पर राज्य किया जाता है, तो इसलिए कि महाजनों, पूँजीपतियों को ज़्यादा से ज़्यादा नफ़ा हो। इस दृष्टि से मानों आज दुनिया में महाजनों का ही राज्य है। मनुष्य समाज दो भागों में बँट गया है। बड़ा हिस्सा तो मरने और खपने वालों का है, और बहुत ही छोटा हिस्सा उन लोगों का, जो अपनी शक्ति और प्रभाव से बड़े समुदाय को अपने बस में किये हुए हैं। इन्हें इस बड़े भाग के साथ किसी तरह की हमदर्दी नहीं, ज़रा भी रू-रियायत नहीं। उसका अस्तित्व केवल इसलिए है कि अपने मालिकों के लिए पसीना बहाये, खून गिराये और एक दिन चुपचाप इस दुनिया से विदा हो जाय। अधिक दुख की बात तो यह है कि शासक वर्ग के विचार और सिद्धान्त शासित वर्ग के भीतर भी समा गये हैं, जिसका फल यह हुआ है कि हर आदमी अपने को शिकारी समझता है और उसका शरीर है समाज। वह खुद समाज से बिल्कुल अलग है। अगर कोई संबंध है, तो यह कि किसी चाल या युक्ति से वह समाज का उल्लू बनावे और उससे जितना लाभ उठाया जा सकता हो, उठा ले।
धन-लोभ ने मानव भावों को पूर्ण रूप से अपने अधीन कर लिया है। कुलीनता और शराफ़त, गुण और कमाल की कसौटी पैसा, और केवल पैसा है। जिसके पास पैसा है, वह देवता स्वरूप है, उसका अन्त:करण कितना ही काला क्यों न हो। साहित्य, संगीत और कला-सभी धन की देहली पर माथा टेकने वालों में है। यह हवा इतनी ज़हरीली हो गई है कि इसमें जीवित रहना कठिन होता जा रहा है।
डाक्टर और हकीम है कि वह बिना लम्बी फ़ीस लिये बात नहीं करता। वकील और बारिस्टर है कि वह मिनटों को अशर्फियों से तौलता है। गुण और योग्यता की सफलता उसके आर्थिक मूल्य के हिसाब मानी जा रही है। मौलवी साहब और पण्डित जी भी पैसे वालों के बिना पैसे के गुलाम हैं, अखबार उन्हीं का राग अलापते हैं। इस पैसे ने आदमी के दिलोदिमाग़ पर इतना कब्ज़ा जमा लिया है कि उसके राज्य पर किसी ओर से भी आक्रमण करना कठिन दिखाई देता है। वह दया और स्नेह, सचाई और सौजन्य का पुतला मनुष्य दया-ममताशून्य जड़ यन्त्र बनकर रह गया है।
इस महाजनी सभ्यता ने नये-नये नीति-नियम गढ़ लिये हैं जिन पर आज समाज की व्यवस्था चल रही है। उनमें से एक यह है कि समय ही धन है। पहले समय जीवन था, और उसका सर्वोत्तम उपयोग विद्या-कला का अर्जन अथवा दीन-दुखी जनों की सहायता था। अब उसका सबसे बड़ा सदुपयोग पैसा कमाना है। डाक्टर साहब हाथ मरीज की नब्ज़ पर रखते हैं और निगाह घड़ी की सुई पर। उनका एक-एक मिनट एक-एक अशर्फी है। रोगी ने अगर केवल एक अशर्फी नज़र की है, तो वह उसे मिनट से ज़्यादा वक्त नहीं दे सकते। रोगी अपनी दुख-गाथा सुनाने के लिए बेचैन हैं; पर डाक्टर साहब का उधर बिल्कुल ध्यान नहीं। उन्हें उससे ज़रा भी दिलचस्पी नहीं। उनकी निगाह में उस व्यक्ति का अर्थ केवल इतना ही है कि वह उन्हें फ़ीस देता है। वह जल्द-से-जल्द नुस्ख़ा लिखेंगे और दूसरे रोगी को देखने चले जायेेंगे। मास्टर साहब पढ़ाने आते हैं, उनका एक घण्टा वक्त बंधा है। वह घड़ी सामने रख लेते हैं, जैसे ही घण्टा पूरा हुआ, वह उठ खड़े हुए। लड़के का सबक अधूरा रह गया तो रह जाय, उनकी बला से, वह घण्टे से अधिक समय कैसे दे सकते हैं; क्योंकि समय रुपया है। इस धन-लोभ ने मनुष्यता और मित्रता का नाम शेष कर डाला है। पति को पत्नी-बच्चों से बात करने की फुर्सत नहीं, मित्र और संबंधी किस गिनती में हैं। जितनी देर वह बातें करेगा, उतनी देर में तो कुछ कमा लेगा। कुछ कमा लेना ही जीवन की सार्थकता है, शेष सब कुछ समय-नाश है। बिना खाये-सोये काम नहीं चलता, बेचारा इससे लाचार है और इतना समय नष्ट करना ही पड़ता है।
आपका कोई मित्र या सम्बन्धी अपने नगर में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका है, तो समझ लीजिए उसके यहाँ अब आपकी रसाई मुमकिन नहीं। आपको उसके दरे-दौलत पर जाकर कार्ड भेजना होगा। उन महाशय को बहुत से काम होंगे, मुश्किल से आपसे एक-दो बातें करेंगे या साफ जवाब दे देंगे कि आज फुर्सत नहीं है। अब वह पैसे के पुजारी हैं, मित्रता और शील-संकोच के नाम पर कब की तिलांजलि दे चुके हैं।
आपका कोई दोस्त वकील है और आप किसी मुकदमे में फँस गये हैं, तो उससे किसी प्रकार की सहायता की आशा न रखिए। अगर वह मुरौवत को गंगा में डुबो नहीं चुका है, तो आपसे देन-लेन की बात शायद न करेगा, पर आपके मुकदमें की ओर तनिक भी ध्यान न देगा। इससे तो कहीं अच्छा है कि आप किसी अपरिचित के पास जायँ और उसकी पूरी फ़ीस अदा करें। ईश्वर न करे कि आज किसी को किसी चीज़ में कमाल हासिल हो जाय, फिर उसमें मनुष्यता नाम को न रह जायगी, उसका एक-एक मिनट कीमती हो जाएगा।
इसका अर्थ यह नहीं कि व्यर्थ की गपशप में समय नष्ट किया जाय, पर यह अर्थ अवश्य है कि धन-लिप्सा को इतना बढ़ने न दिया जाय कि वह मनुष्यता, मित्रता, स्नेह-सहानुभूति सबको निकाल बाहर करे।
पर आप उस पैसे के गुलाम को बुरा नहीं कर सकते। सारी दुनिया जिस प्रवाह में बह रही है, वह भी उसी में बह रहा है। मान-प्रतिष्ठा सदा से मानवीय आकांक्षाओं का लक्ष्य रहा है। जब विद्या-कला मान-प्रतिष्ठा का साधन थी, उस समय लोग इन्हीं का अर्जन-अभ्यास करते थे। जब धन उसका एकमात्र उपाय है, तब मनुष्य मजबूर है कि एकनिष्ठ भाव से उसकी उपासना करे। वह कोई साधु-महात्मा, सन्यासी-उदासी नहीं; वह देख रहा है कि उसके पेशे में जो सौभाग्यशाली सफलता की कठिन यात्रा पूरी कर सके हैं, वह उसी राजमार्ग के पथिक थे, जिस पर वह खुद चल रहा है। समय धन है एक सफल व्यक्ति का। वह उसको इस सिद्धान्त का अनुसरण करते देखता है, फिर वह भी उसी के पद-चिन्हों का अनुसरण करता है, तो उसका क्या दोष? मान-प्रतिष्ठा की लालसा तो दिल से मिटाई नहीं जा सकती। वह देख रहा है कि जिनके पास दौलत नहीं, और इसलिए नहीं कि उन्होंने वक्त को दौलत नहीं समझा, उनको कोई पूछने वाला नहीं। वह अपने पेशे में उस्ताद है फिर भी उसकी कहीं पूछ नहीं।
जिस आदमी में तनिक भी जीवन की आकांक्षा है वह तो इस उपेक्षा की स्थिति को सहन नहीं कर सकता। उसे तो मुरौवत, दोस्ती और सौजन्य को धता बताकर लक्ष्मी की आराधना में अपने को लीन कर देना होगा, तभी इस देवी का वरदान उसे मिलेगा, और वह कोई इच्छाकृत कार्य नहीं किन्तु सर्वथा बाध्यकारी है। उसके मन की अवस्था अपने आप कुछ इस तरह की हो गई है कि उसे धनार्जन के सिवा किसी काम से लगाव नहीं रहा। अगर उसे किसी सभा या व्याख्यान में आधा घण्टा बैठना पड़े, तो समझ लो, वह कैद की घड़ी काट रहा है। उसकी सारी मानसिक, भौतिक और सांस्कृतिक दिलचस्पियां इसी केन्द्र बिन्दु पर आकर एकत्र हो गई हैं।
और क्यों न हों? वह देख रहा है कि पैसे के सिवा उसका और कोई अपना नहीं। स्नेही मित्र भी अपनी गरज लेकर ही उसके पास आते हैं, स्वजन-सम्बन्धी भी उसके पैसे के ही पुजारी हैं। वह जानता है कि अगर वह निर्बल होता, तो वह जो दोस्तों का जमघट लग रहा है, उसमें से एक के भी दर्शन न होते, इन स्वजन-सम्बन्धियों में से एक भी पास न फटकता। उसे समाज में अपनी एक हैसियत बनानी है, बुढ़ापे के लिए कुछ बचाना है, लड़कों के लिए कुछ कर जाना है जिसमें उन्हें दर-दर ठोकरें न खानी पड़ें। इस निष्ठुर, सहानुभूति शून्य दुनिया का उसे पूरा अनुभव है। अपने लड़कों को वह उन कठिन अवस्थाओं में नहीं पड़ने देना चाहता, जो सारी आशाओं-उमंगों पर पाला गिरा देती है, हिम्मत-हौसले को तोड़कर रख देती है। उसे वह सारी मंजि़लें जो एक साथ जीवन के आवश्यक अंग हैं, खुद तय करनी होगी और जीवन को व्यापार के सिद्धान्त पर चलाये बिना वह इनमें से एक भी मंजि़ल पार नहीं कर सकता।
इस सभ्यता का दूसरा सिद्धान्त है’बिजनेस इज़ बिजनेस’ अर्थात व्यवसाय व्यवसाय है, उसमें भावुकता के लिए गुंजाइश नहीं। पुराने जीवन-सिद्धान्त में वह लठमार साफगोई नहीं है, जो निर्लज्जता कही जा सकती है और जो इस नवीन सिद्धान्त की आत्मा है। जहाँ लेन-देन का सवाल है, रुपये-पैसे का मामला है, वहां न दोस्ती का गुज़र है, न मुरौवत का, न इन्सानियत का, ‘बिजनेस’में दोस्ती कैसी। जहाँ किसी ने इस सिद्धान्त की आड़ ली और आप लाजवाब हुए। फिर आपकी जबान नहीं खुल सकती। एक सज्जन ज़रूरत से लाचार होकर अपने किसी महाजन मित्र के पास जाते हैं और चाहते हैं कि वह उनकी कुछ मदद करें। वह भी आशा रखते हैं कि शायद सूद के दर में वह कुछ रियायत कर दें; पर जब देखते हैं कि वह महानुभाव मेरे साथ भी वही कारबारी बर्ताव कर रहे हैं, तो कुछ रियायत की प्रार्थना करते हैं, मित्रता और घनिष्ठता के आधार पर आँखों में आँसू भरकर बड़े करुण स्वर में कहते हैं-महाशय, मैं इस समय बड़ा परीशान हूँ, नहीं तो आपको कष्ट न देता, ईश्वर के लिए मेरे हाल पर रहम कीजिए। समझ लीजिए कि एक पुराने दोस्त…. वहीं बात काटकर आज्ञा के स्वर में फ़रमाया जाता है: लेकिन जनाब, आप’बिजनेस इज़ बिजनेस’ इसे भूल जाते हैं। उस दिन कातर प्रार्थी पर मानों बम का गोला गिरा। अब उसके पास कोई तर्क नहीं, कोई दलील नहीं। चुपके से उठकर अपनी राह लेता है या फिर अपने व्यवसाय-सिद्धान्त के भक्त मित्र की सारी शर्तें कबूल कर लेता है।
इस महाजनी सभ्यता ने दुनिया में जो नई रीति-नीतियाँ चलाई हैं, उनमें सबसे अधिक और रक्तपिपासु यही व्यवसाय वाला सिद्धान्त है। मियाँ-बीवी में बिजनेस, बाप-बेटे में बिजनेस, गुरु-शिष्य में बिजनेस। सारे मानवी आध्यात्मिकऔर सामाजिक नेह-नाते समाप्त। आदमी-आदमी के बीच बस कोई लगाव है, तो बिजनेस का। लानत है इस ‘बिजनेस’ पर। लड़की अगर दुर्भाग्यवश क्वाँरी रह गई और अपनी जीविका का कोई उपाय न निकाल सकी, तो अपने बाप के घर में ही लौंडी बन जाना पड़ता है। यों लड़के-लड़कियाँ सभी घरों में काम-काज करते ही हैं, पर उन्हें कोई टहलुआ नहीं समझता; पर इस महाजन सभ्यता में लड़की एक खास उम्र के बाद लौंडी और अपने भाइयों की मजदूरनी हो जाती है। पूज्य पिताजी भी अपने पितृ-भक्त बेटे के टहलुए बन जाते हैं और माँ अपने सपूत की टहलुई । स्वजन-सम्बन्धी तो किसी गिनती में नहीं। भाई भी भाई के घर आये तो मेहमान है। अकसर तो उसे मेहमानी का बिल भी चुकाना पड़ता है। इस सभ्यता की आत्मा है व्यक्तिवाद, आप स्वार्थी बना सब कुछ अपने लिए।
पर यहाँ भी हम किसी को दोषी नहीं ठहरा सकते। वही मान प्रतिष्ठा, वही भविष्य की चिन्ता, वही अपने बाद बीवी-बच्चों के गुज़र का सवाल, वही नुमाइश और दिखावे की आवश्यकता हर एक की गरदन पर सवार है, और वह हिल तक नहीं सकता। वह इस सभ्यता के नीति-नियमों का पालन न करे तो उसका भविष्य अन्धकारमय है।
अब तक इस दुनिया के लिए सभ्यता की रीति-नीति का अनुसरण करने के सिवा और कोई उपाय न था। उसे झख मारकर उसके आदेशों के सामने सिर झुकाना पड़ता था। महाजन अपने जोम से फूला फिरता था। सारी दुनिया उसके चरणों पर नाक रगड़ रही थी। बादशाह उसका बन्दा, वजीर उसके गुलाम, संधि-विग्रह की कुंजी उसके हाथ में, दुनिया उसकी महत्वाकांक्षाओं के सामने सिर झुकाए हुए, हर मुल्क में उसका बोलबाला।
परन्तु अब एक नई सभ्यता का सूर्य सुदूर पश्चिम में उदय हो रहा है, जिसने इस नाटकीय महाजनवाद या पूँजीवाद की जड़ खोदकर फेंक दी है, जिसका मूल सिद्धान्त यह है कि प्रत्येक व्यक्ति, जो अपने शरीर या दिमाग़ से मेहनत करके कुछ पैदा कर सकता है, राज्य और समाज का परम सम्मानित सदस्य हो सकता है, और जो केवल दूसरों की मेहनत या बाप-दादों के जोड़े हुए धन पर रईस बना फिरता है, वह पतिततम प्राणी है। उसे राज्य प्रबन्ध में राय देने का हक नहीं और वह नागरिकता के अधिकारों का भी पात्र नहीं। महाजन इस नई लहर से अति उद्विग्न होकर बौखलाया हुआ फिर रहा है और सारी दुनिया के महाजनों की शामिल आवाज उस नई सभ्यता को कोस रही है, उसे शाप दे रही है। व्यक्ति-स्वातन्त्र्य, धर्म-विश्वास की स्वाधीनता, अपनी अन्तरात्मा के आदेश पर चलने की आज़ादी वह इन सबकी घातक, गला घोंट देने वाली बतायी जा रही है। उस पर नये-नये लांछन लगाये जा रहे हैं,नई -नई हुरमतें तराशी जा रही हैं। वह काले से काले रंग में रँगी जा रही है, कुत्सित रूप में चित्रित की जा रही है। उन सभी साधनों से जो पैसे वालों के लिए सुलभ है, काम लेकर उसके विरुद्ध प्रचार किया जा रहा है; पर सचाई है जो इस सारे अन्धकार को चीरकर दुनिया में अपनी ज्योति का उजाला फैला रही है।
निस्सन्देह इस नई सभ्यता ने व्यक्ति-स्वातन्त्र्य के पंजे नाखून और दाँत तोड़ दिये हैं। उसके राज्य में अब एक पूँजीपति लाखों मज़दूरों का ख़ून पीकर मोटा नहीं हो सकता। उसे अब यह आज़ादी नहीं कि अपने नफ़े के लिए साधारण आवश्यकता की वस्तुओं के दाम चढ़ा सके, अपने माल की खपत कराने के लिए युद्ध करा दे, गोला-बारूद और युद्ध सामग्री बनाकर दुर्बल राष्ट्रों का दमन कराये। अगर इसकी स्वाधीनता ही स्वाधीनता का अर्थ है कि यह जनसाधारण को हवादार मकान, पुष्टिकर भोजन, साफ-सुथरे गाँव, मनोरंजन और व्यवसाय की सुविधाएँ, बिजली के पंखे और रोशनी, सस्ता और सद्य: सुलभ न्याय की प्राप्ति हो, तो इस समाज-व्यवस्था में जो स्वाधीनता और आज़ादी है, वह दुनिया की किसी सभ्यतम कहाने वाली जाति को भी सुलभ नहीं है। धर्म की स्वतंत्रता का अर्थ अगर पुरोहितों, पादरियों, मुल्लाओं की मुफ्तखोर ज़मात के दंभमय उपदेशों और अन्धविश्वास-जनित रूढि़यों का अनुसरण है, तो निस्संदेह वहाँ इस स्वातन्त्र्य का अभाव है; पर धर्म-स्वातन्त्र्य का अर्थ यदि लोक-सेवा,सहिष्णुता, समाज के लिए व्यकित का बलिदान, नैकनीयती, शरीर और मन की पवित्रता है, तो इस सभ्यता में धर्माचरण की जो स्वाधीनता है, और किसी देश को उसके दर्शन भी नहीं हो सकते।
जहाँ धन की कमी-बेशी के आधार पर असमानता है वहाँ ईर्ष्या, ज़ोर, जबर्दस्ती,बेईमानी, झूठ, मिथ्या अभियोग-आरोप, वेश्या-वृत्ति, व्यभिचार और सारी दुनिया की बुराइयाँ अनिवार्य रूप से मौजूद हैं। जहाँ धन का आधिक्य नहीं, अधिकाँश मनुष्य एक ही स्थिति में है, वहाँ जलन क्यों हो और जब्र क्यों हो? सतीत्व-विक्रय क्यों हो और व्यभिचार क्यों हो? झूठे मुकदमे क्यों चलें और चोरी-डाके की वारदातें क्यों हों? ये सारी बुराइयाँ तो दौलत की देन हैं, पैसे के प्रसाद हैं, महाजनी सभ्यता ने इनकी सृष्टि की है। वही इनको पालती है और वही यह भी चाहती है कि जो दलित, पीडि़त और विजित हैं, वे इसे ईश्वरीय विधान समझकर अपनी स्थिति पर सन्तुष्ट रहें। उनकी ओर से तनिक भी विरोध-विद्रोह का भाव दिखाया गया, तो उनका सिर कुचलने के लिए-पुलिस है, अदालत है, काला पानी है। आप शराब पीकर उसके नशे से बच नहीं सकते। आग लगाकर चाहें कि लपटें न उठें, असम्भव है। पैसा अपने साथ यह सारी बुराइयाँ लाता है, जिन्होंने दुनिया को नरक बना दिया है। इस पैसा-पूजा को मिटा दीजिए, सारी बुराइयाँ अपने-आप मिट जायँगी, जड़ न खोदकर केवल फुनगी की पत्तियां तोड़ना बेकार है। यह नई सभ्यता धनाढयता को हेय और लज्जाजनक तथा घातक विष समझती है। वहाँ कोई आदमी अमीरी ढंग से रहे तो लोगों की ईर्ष्या का पात्र नहीं होता;बल्कि तुच्छ और हेय समझा जाता है। गहनों से लदकर कोई स्त्री सुन्दरी नहीं बनती, घृणा की पात्र बनती है। साधारण जन-समाज से ऊँचा रहन-सहन रखना वहाँ बेहूदगी समझी जाती है। शराब पीकर वहाँ बहका नहीं जा सकता,अधिक मद्यपान वहाँ दोष समझा जाता है, क्योंकि शराबखोरी से आदमी में धैर्य और कष्ट-सहन, अध्यवसाय और श्रमशीलता का अन्त हो जाता है।
हाँ, इस समाज-व्यवस्था ने व्यक्ति को यह स्वाधीनता नहीं दी है कि वह जनसाधारण को अपनी महत्वाकांक्षाओं की तृप्ति का साधन बनाये और तरह-तरह के बहानों से उनकी मेहनत का फ़ायदा उठाये, या सरकारी पद प्राप्त करके मोटी-मोटी रकमें उड़ाये और मूछों पर ताव देता फिरे। वहाँ ऊँचे से ऊँचे अधिकारी की तनख़्वाह भी उतनी ही है,जितनी एक कुशल कारीगर की। वह गगनचुम्बी प्रासादों में नहीं रहता, तीन-चार कमरों में ही उसे गुजर करना पड़ता है। उसकी श्रीमती जी रानी साहबा या बेगम बनी हुर्इ स्कूलों में इनाम बाँटती नहीं फिरतीं; बलिक अक्सर मेहनत-मजदूरी या किसी अखबार के दफ्तर में काम करती हैं। सरकारी पद पाकर वह अपने को लाट साहब नहीं बलिक जनता का सेवक समझता है। महाजनी सभ्यता का प्रेमी इस समाज-व्यवस्था को क्यों पसन्द करने लगा जिसमें उसे दूसरों पर हुकूमत जताने के लिए सोने-चाँदी के ढेर लगाने की सुविधाएँ नहीं? पूँजीपति और ज़मींदार तो इस सभ्यता की कल्पना से ही काँप उठते हैं। उनकी जूड़ी का कारण हम समझ सकते हैं। पर जब वह लोग भी उसकी खिल्ली उड़ाने और उस पर फबतियाँ कसने लगते हैं जो अनजान में महाजनी सभ्यता का उल्लू सीधा कर रहे हैं, तो हमें उनकी दास-मनोवृतित पर हँसी आती है। जिसमें मनुष्यता, आध्यात्मिकता,उच्चता और सौन्दर्यबोध है, वह कभी ऐसी समाज-व्यवस्था की सराहना नहीं कर सकता, जिसकी नींव लोभ,स्वार्थपरता और दुर्बल मनोवृत्ति पर खड़ी हो। ईश्वर ने तुम्हें विद्या और कला की संपत्ति दी है, तो उस का सर्वश्रेष्ठ उपयोग यही है कि उसे जन-समाज की सेवा में लगाओ, यह नहीं कि उससे जन-समाज पर हुकूमत चलाओ, उसका खून चूसो और उसे उल्लू बनाओ।
धन्य है वह सभ्यता, जो मालदारी और व्यक्तिगत संपत्ति का अन्त कर रही है, और जल्दी या देर से दुनिया उसका पदानुसरण अवश्य करेगी। यह सभ्यता अमुक देश की समाज-रचना अथवा धर्म-मजहब से मेल नहीं खाती या उस वातावरण के अनुकूल नहीं है-यह तर्क नितान्त असंगत है। ईसाई मजहब का पौधा यरूशलम में उगा और सारी दुनिया उसके सौरभ से बस गई । बौद्ध-धर्म ने उत्तर भारत में जन्म ग्रहण किया और आधी दुनिया ने उसे गुरुदक्षिणा दी। मानव-स्वभाव अखिल विश्व में एक ही है। छोटी-मोटी बातों में अन्तर हो सकता है; पर मूलस्वरूप की दृष्टि से सम्पूर्ण जाति में कोई भेद नहीं। जो शासन-विधान और समाज -व्यवस्था एक देश के लिए कल्याणकारी है, वह दूसरे देशों के लिए भी हितकारी होगी। हाँ,महाजनी सभ्यता और उसके गुर्गे अपनी शक्ति भर उसका विरोध करेंगे, उसके बारे में भ्रमजनक बातों का प्रचार करेंगे,जन-साधारण को बहकावेंगे, उनकी आँखों में धूल झोकेंगे; पर जो सत्य है एक न एक दिन उसकी विजय होगी और अवश्य होगी।