गोरख का काव्य-संसार गहन द्वंद्वात्मक है। उसमें 70 के दशक का उद्दाम वेग और 80 के दशक का ठहराव एक साथ है। सधी हुई दिल चीरती लय के साथ लय को सायास तोड़कर रची गयी मार्मिक संरचनाएँ भी। गहरे दार्शनिक सवालों के सघन वैभव के साथ ही सरलता का सहज-सितार उनकी कविताओं में बजता है। वहाँ गजलों और गीतों के साथ ही मुक्त छंद की समृद्ध दुनिया है। हिंदी-उर्दू की सांस्कृतिक विरासत के साथ ही भोजपुरी के ठेठ का ठाठ है। यों गोरख को पढ़ना हमेशा एक समृद्ध करने वाला अनुभव होता है और किसी भी नए कवि के लिए स्पर्धा का कारण भी।
गोरख की भोजपुरी कविताएँ संख्या में कम हैं लेकिन वे उनके समूचे काव्य-व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करती हैं। जन संस्कृति मंच के सांस्कृतिक संकुल से छपी उनकी समग्र कविताओं के भोजपुरी खंड में कुल 16 गीत हैं, जिनमें से ज़्यादातर का समय 1978 दर्ज है। गोरख के नौ गीतों का एक संग्रह पुस्तिका के रूप में उनके रहते छप चुका था, इस संग्रह में उसके अलावा सात गीत और हैं। ये सोलह गीत गोरख की कविता की महत्ता और अर्थवत्ता के सोलह दस्तावेज़ हैं जो हिंदी कविता में हमेशा के लिए मील का पत्थर साबित हुए। जाने कितने आंदोलनों, संघर्षों, प्रतिरोधों की आवाज़ बन चुके और बनने वाले ये गीत हिंदी कविता के जन-पक्षधर रचनाकारों के सामने मॉडल की तरह हैं।
‘लेखन के बारे में’ नाम के अपने लेख में माओ त्से तुंग रेखांकित करते हैं कि लेखक को अपने पाठक वर्ग की अवस्थिति से वाकिफ होना चाहिए। लेखक किस के लिए लिख रहा है, इसी से यह तय होता है कि वह क्या और कैसे लिख रहा है। भोजपुरी के गीत लिखते हुए, मुझे लगता है कि गोरख के दिमाग में उनके पाठक मूर्त थे। पाठक मूर्त थे, कहने का आशय यह कि जिस इलाके की अवाम के लिए गोरख यह लिख रहे थे, उसकी उत्कृष्ट परम्पराओं से वे भलीभाँति वाकिफ थे। ये वही पुरबिया महिला-पुरुष हैं जो सदियों से अपने श्रम को माटी में बोते आए हैं, सौंदर्य की नाजुक और मर्मबेधी अभिव्यक्तियाँ जिनकी भाषा के लोकगीतों में घुली-मिली हैं, विस्थापन की पीड़ा जिनके लिए बेहद पहचानी है, जो सत्ता के किसिम-किसिम के अन्यायों के शिकार रहे हैं, पर जिनकी आँखों में अपनी जमीन, सम्मान और मेहनत का सपना हमेशा झिलमिलाता रहता है। ऐसा न था कि गोरख इस समाज की दिक्कतों को नहीं समझते थे, ‘बुआ के लिए’ जैसी कविताएँ इस बात की गवाह हैं पर अपनी भोजपुरी कविताओं में वे आशा के गीत गाने वाले, लोगों के दिल में हौसला दिलाने वाले, उनकी भूली हुई ऐतिहासिक ताकत याद दिलाने वाले एक साथी, संगठनकर्ता की तरह दिखते हैं।
खड़ी बोली जबसे कविता की भाषा बनी, लोकभाषा की कविता में विचारों और सौंदर्य की बारीकी निभाना कम होता गया। भोजपुरी जो लिखित साहित्य में कविता की भाषा मध्यकाल में नहीं के बराबर रही, की बात छोड़ भी दें तो खड़ी बोली के स्थापित होने के बाद दो पुरानी स्थापित काव्य-भाषाओं- अवधी और ब्रज में भी अपवादों को छोड़कर कोई उल्लेखनीय काव्य-सृजन नहीं हुआ। ऐसा क्योंकर हुआ, उन कारणों पर विचार एक दिलचस्प बहस बन सकता है, जिसका अवकाश यहाँ नहीं। प्रसंग यह है कि भोजपुरी जैसी अपेक्षाकृत कम लिखित साहित्यिक भाषा में गोरख विचारों और सौंदर्य की बारीकी बख़ूबी निबाहते हैं। भिखारी ठाकुर जैसे कुछेक पुरखों के असर के अलावा इसका मुख्य स्रोत लोकजीवन है। गोरख की कविताएँ लोकजीवन से सीखती हुई उसका पुनर्भाष्य करती हैं। एक बिम्ब देखिए जो सिवाय लोकजीवन के, कवि-अनुभव के प्रामाणिक और संभवतः प्राथमिक स्रोत के और कहीं से नहीं आ सकता था: ‘रचना के हव तूँ बँसुलवा हो, हम रुखनिया तोहार’।
भोजपुरी इलाके की सामंती धाक और उसमें महिलाओं की स्थिति इन कविताओं में दर्ज है। गोरख के ‘समय का पहिया’ काव्य-संकलन की भूमिका में ‘मेहनत का बारहमासा’ शीर्षक कविता का इस संदर्भ में ज़िक्र करते हुए प्रणय कृष्ण ने ‘अबो रहरी में रहेलें हुंडार’ जैसी पंक्तियों के सहारे ग्रामीण भारत में महिलाओं पर सामंती जुल्म को रेखांकित किया है। पर इस दमन के बावजूद गोरख की भोजपुरी कविताओं में ज्यादा उभरता और गहरा स्वर उस श्रमशील महिला का है जो पुरुष के साथ मिलकर, कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष और रचना, दोनों मोर्चों पर पूरी मजबूती से खड़ी हुई है। अपने प्रिय को ‘नेह की पाती’ में वह कहती है कि ‘तूँ हव नेहिया के पतिया हो, हम अछरिया तोहार’। यह साझापन साथ श्रम करने और साथ लड़ने से आता है। इस साझेपन से आगे हमारी यह नायिका एक शर्त भी रखती है: ‘जो न मथवा झुकइब’ तभी ‘हमरा के हरदम संगे-संगे पइब’। प्रतिरोधी लोकगीतों की परम्परा में मौजूद महिला स्वर के श्रम और हाजिरजवाबी को गोरख ऊपर उठाते हुए बराबरी की जमीन पर ले आते हैं। यों वे प्रतिरोधी लोकगीतों की परम्परा में सचेत विकास करते हैं।
लोकगीतों की एक खासियत है, उनमें घटनाओं का बार-बार दुहराया जाना। हम सबने ऐसे लोकगीत जरूर ही सुने हैं जिनमें ढाँचा लगभग एक होता है। ससुर, भसुर, सास, ननद, देवर इत्यादि एक के बाद आते हैं। बस पात्र बदलते जाते हैं और गीत बढ़ता जाता है। लोकगीतों की यह युक्ति उस मूल ढाँचे को गाढ़ा करने का असर पैदा करती है। गोरख इस काव्य-युक्ति का बेहतरीन इस्तेमाल अपने ‘मैना’ शीर्षक गीत में करते हैं। यह गीत श्रमिक महिला के सवाल को उसके बहुस्तरीय शोषण की जमीन से उठाता है। विभिन्न सवालों, मसलन वर्ग, जाति और जेंडर के बीच की एकता को यह गीत आवयविक तरीके से एकमेक कर देता है। यह गीत हमें यह भी बताता है कि सवाल अगर सही तरीके और सही जमीन से उठाए जाएँ तो सभी सवाल मिलाकर एक विराट सवाल का रूप धर लेते हैं।
इस कविता की सुंदर मैना आसमान में उड़ने वाली है जिसे राजा शिकार करके ‘बाँधकर’ लाता है और राजकुमार को ‘खेलने’ के लिए दे देता है। चिड़िया को बाँधकर लाने का यह बिम्ब पाठक को पहले ही बता देता है कि कुछ अघट घट चुका है और कविता की मैना सिर्फ चिड़िया नहीं है। कविता की संरचना में गोरख सायास मैना का चिड़ियापन सुरक्षित रखते हैं और उसके भीतर से इशारे करते हैं कि चिड़िया मैना तो है ही, और कुछ भी है। यह तरीका कविता को जड़ और खाँटी सामाजिक व्याख्या बनने से रोक लेता है। विभिन्न क्रियाओं के सहारे कविता आगे बढ़ती है, जिनपर सत्ता की क्रूरता क्रमशः बढ़ती जाती है। ‘पिछले जनम के कर्म’ के कारण देते हुए शिकार की गयी चिड़िया को पंख कतर कर उड़ने, टाँग तोड़ कर नाचने, गला दबा कर गाने के निर्देश होते हैं।
राजा की सलाह अपने राजकुमार के लिए यह है कि: ‘जबले ख़ून पियल ना जाय/तबले कौनो काम न आय/राजा कहें कि सीखा कइसे चूसल जाई मैना/कइसे स्वाद बधाई मैना ना’। भयानक दमन और अत्याचार के ये चित्र पाठक की सम्वेदना को तीर की तरह बेधते हुए अपने इर्द-गिर्द महिला शोषण के स्तरों से पुनर्परिचित कराते हैं वहीं दूसरी ओर सत्ता के अनंत अत्याचार की परत को भी क्रमशः उघाड़ देते हैं। चिड़िया हो या महिला, सत्ता उनके साथ यही व्यवहार करती है- दमन, अत्याचार का और आखिरकार जब इससे भी मजा नहीं मिलता तो हत्या आखिरी वार होता है। हम आज देख रहे हैं कि महिलाओं के खिलाफ घट रहे दमन, शोषण, बलात्कार और हत्या के मामले ठीक इसी प्रक्रिया में चलते हैं। यह राजा सिर्फ राजनैतिक नहीं, पुरुष और धर्म सत्ता भी है। गोरख की इस मार्मिक कविता में यह सब एक साथ दर्ज है।
इस कविता की धुन ‘कजरी’ की है। इस सिलसिले में एक सवाल यह उठाया गया कि गोरख जैसे कवि लोकधुनों में आधुनिक कथ्य भरने के नाते निष्प्रभावी हैं। वे लोकगीतों की आंतरिक धुन को नहीं समझ-पकड़ पाते और यों उनके भीतर अलग तरह के भाव भर देते हैं। मसलन इस कजरी में, जो कि हर्ष की धुन है, में गोरख ने उदासी गूँथ कर इस रूप की अवहेलना की है और कविता नहीं बन पायी। असल में ऐसा सोचने वाले दो स्तरों पर मुश्किल में हैं: एक तो यह कि वे अपनी परम्परा से ही परिचित नहीं है और दूसरे यह कि विचार-आलस्य के चलते वे सोचने की जहमत नहीं उठाते। ‘कजरी’ की धुन सिर्फ़ आनंद-मंगल की धुन कभी नहीं रही, यह एक तथ्य है। ‘नगवा डँसले हउवे रोहित के फुलवारिया में/काशी बीच डगरिया में ना’ से लेकर ‘जौ मैं तो जनत्यों नागर जइबा कालेपनिया’ जैसी कजरिया महिला दुःख की घनीभूत अभिव्यक्तियाँ रही हैं और इनकी परम्परा भी उतनी ही गहरी है जितनी आनंद वाली कजरियों की।
तब शायद यह सोचना बेहतर होगा कि गोरख या अन्य कोई कवि किसी लोकधुन/छंद को अपनी कविता के लिए कैसे चुनता है। लोकधुन/छंद भी मिथकों की ही तरह अवाम के मन-मिजाज में घर बनाए एक संरचना है। इसीलिए वह कवियों को मिथकों की तरह ही आकर्षित करता है।
अवाम के मन-मिजाज में घर बसाए धुन/छंद की स्मृतियाँ लेखक के लिए प्राथमिक जमीन का काम करती हैं। पर उस धुन या छंद की मूल प्रवृत्ति की शिनाख्त इतनी आसान नहीं होती कि आप उसे आसानी से रसों के खाके में बाँट सकें। पुराने काव्य-आचार्यों ने इस तरह के बहुतेरे नियम बनाए जिनके अपवाद उन नियमों से ज्यादा होते चले गए।
दूसरी बात यह है कि लोककाव्य में इन नियमों को नकारने की गहरी परम्परा रही है। तीसरे यह कि कवि की रचना शक्ति इन खाकों को तोड़ने में ही व्यक्त होती है। इसलिए धुनों या छंदों का चुनाव इतनी सीधी बात नहीं है, जितनी की समझी जाती है। मसलन परम्परा में सवैया छंद दुःख और सुख, दोनों मनोभावों को व्यक्त करने के लिए इस्तेमाल हुआ है। समय बदलने के साथ छंदों की प्रकृति भी बदल जाती है। कवि के लिए पहली चीज है उस धुन या छंद की स्वीकार्यता का इस्तेमाल और दूसरी चीज है उस धुन या छंद की आंतरिक लय-गति की समझ। गोरख इन दोनों मामलों में बहुत ही सचेत कवि हैं। उनका एक अधूरा गीत, जिसमें वे काव्यात्मक मानवीय इतिहास लिखना चाहते थे, की धुन धीमी और खिंची हुई है जबकि ‘वोट’ जैसे तत्कालीन संसदीय राजनीति की बखिया उधेड़ने वाले गीत की धुन ज्यादा गतिमान है। ‘जनता की पलटनि’ गीत की धुन में और अधिक गति और आशा विन्यस्त है। ‘सपना’ की धुन उन्होंने सोहर से उठाई जहाँ नए के जन्म का अहसास केंद्र में है। उन्होंने व्यंग्य के एकदम मुख्तलिफ धुन चुनी और उसमें ‘समाजवाद’ शीर्षक गीत तत्कालीन समाजवादियों का पाखंड-विखंडन करते हुए लिखा।
गोरख की बड़ी खूबी गहरे दार्शनिक सवालों को जनभाषा में पिरो देना है। अपनी भोजपुरी कविताओं में वे दार्शनिक और लोकप्रिय के तथाकथित अंतर्विरोध को ख़ास काव्यात्मक तरीके से हल करते हैं। फ्रेडरिक एंगल्स की पुस्तिका ‘वानर से नर बनने में श्रम की भूमिका’ जिस बात को विस्तार से व्याख्यायित करती है, उसका भोजपुरी भाष्य, भोजपुरी मिजाज में उनके एक गीत में दर्ज है। यह गीत अधूरा रह गया। रामजी राय बताते हैं कि गोरख इस गीत में मनुष्य जाति का इतिहास लिखना चाहते थे। गीत यों है: ‘बीहड़ रहिया भयावन अन्हरिया हो कि चलि हो भइले ना/मनई मुकुति की ओर हो कि चलि हो भइले ना।/जंगल परबत नादिया जनावर हो कि चारू ओरिया ना/घेरले मनई के राह हो कि चारू ओरिया ना/ दूर रहे फलवा नियरवा रहे पथरवा हो कि चलाई रे दिहले ना/फल पर पथर के बान हो चलाई हो दिहले ना।/एक बान मरलैं दुसर बान मरलैं तिसर रे बनवाँ ना/कइलें फल पर अधिकार हो तिसर रे बनवाँ ना।’
आम जन-जीवन के प्रागैतिहासिक बिंबों से बनी यह कविता कितनी सहजता से हमारी विरासत और श्रम की भूमिका को रेखांकित करती है। प्रकृति और मनुष्य के संघर्ष में मनुष्य ने जब फल पर पत्थर का बाण चलाना सीखा, और अनवरत श्रम के बाद जब वह इसमें सफल हुआ, उस प्रागैतिहासिक स्मृति को ताजा करती यह कविता इतिहास की भी गिरह खोलती है। उत्पादन के साधनों के बदलने से क्या कुछ बदलता है, इसकी सहजतम अभिव्यक्ति गोरख के इस गीत में मौजूद है। इसी तरह उनका एक गीत ‘कैसे चलेलें सुरुज चनरमा’ पारम्परिक पिया-धनी सम्वाद में इतिहास की परिचालक शक्तियों को हमारे सामने बिना किसी वागाडंबर खूबसूरती से रख देता है। गीत उद्धृत करने के जगह मैं उसका अन्वय यहाँ लिख दे रहा हूँ: सूर्य-चंद्रमा गति से चलते हैं और यह धरती गति से बनी है। गति माने बदलाव, परिवर्तन। मिट्टी में प्राण बोकर फसलें श्रम से उगती हैं। रचना के हाथ और विचार के रंग से सुरति जागती है और मन के बाग में आजादी के फूल उगाने की शर्त पर ही नेह उपजता है।
दर्शन के जल में गहरे डूबे गोरख के लिए सचमुच यह दार्शनिक समस्या ही रही होगी कि दुनिया की व्याख्याओं को दुनिया को बदलने वाले लोगों तक कैसे ले जाया जाय जो असल में उन्हीं के अनुभव और विचार हैं। उन्होंने भोजपुरी को अपनी काव्य-भाषा के रूप में इस कार्यभार के नाते ही चुना होगा।
गोरख के इन गीतों में निराशा कहीं नहीं है। जनता के श्रम और संघर्ष पर टिकी हुई मजबूत आशा के ढाँचे पर इन गीतों का वितान रचा हुआ है। ये संघर्ष के बीच से रची हुई कविताएँ हैं, सो इनमें आशा की जमीन भी संघर्ष ही है। किसी काल्पनिक यूटोपिया में नहीं, इस आशा की जड़ ‘जेकरे हाथे पड़लि हथकड़ी ऊहे तोड़ल चाही’ में है, जनता के अगाध और अनथक संघर्षों में है। ये कविताएँ हमें सिखाती हैं कि आशा का सही स्रोत इस या उस रंग की संसदीय पार्टी के पीछे भागने की जगह जनता के जुझारू संघर्ष हैं जिसे गोरख के काव्य-नायक यों स्वर देते हैं: ‘अब हम किसान-मजूरा मिलि के/हक लेइब चोरन से छीन’। इन्हीं से जुड़ने में कविता की और मनुष्यता की भी मुक्ति है।