मूल रूसी से अनुवाद : वरयाम सिंह; टिप्पणी : पंकज बोस
पुश्किन के बारे में सोचते ही एक ऐसा तिकोना चेहरा जेहन में कौंधता है जिसके माथे पर घने और बिखरे-झूलते हुए बाल हैं और गालों पर दोनों ओर फैली हुई घनी दाढ़ी। कुछ तैल-चित्रों में गहरे काले बालों के साथ लगभग लाल पूरा चेहरा मिलकर एक कंट्रास्ट पैदा करता है और दाढ़ी और सर के बालों के बीच से झाँकता हुआ कान अलग से ध्यान खींचता है। पुश्किन के चेहरे का हर हिस्सा और हर कोना एक भव्यता की आभा से दिपदिपाता है और कभी भी कागज़ या चित्र की सतह से बाहर निकलने को बेताब लगता है। इस भव्यता के बीच दो गोल मणियों की तरह चमकती हुई आँखें सुदूर कहीं कुछ खोजती हुई-सी और फिर उसी खोज को लगातार प्रश्नांकित करती हुई भी लगती हैं। दूरदृष्टि की साक्षात बिम्ब-सी ये आँखें बेहद जागरूक लेकिन उतनी ही उदासीन भी हैं। पुश्किन के होठों पर मुस्कराहट नहीं है। आँखों और मुस्कराहट के बीच एक स्वाभाविक रिश्ता होता है और यह उनके चेहरे से सिरे से गायब है। इसलिए जो लोग किसी महान चेहरे पर हमेशा एक सहज मुस्कराहट देखने के आदी हैं उन्हें पुश्किन की यह भव्यता कुछ बेचैन करती है।
पुश्किन और पुश्किन की कविताएँ, उनकी भव्यताएँ और उदासियाँ भी कुछ ऐसे ही बेचैन करती हैं!
पुश्किन आज से कोई दौ साल पहले हुए थे। उनकी और उनकी कविता की उम्र लगभग एक-सी ही है। उनका जन्म एक संपन्न परिवार में हुआ और अभिजात वर्ग के बच्चों के साथ शिक्षा-दीक्षा हुई। लेकिन आरम्भ से ही उनके भीतर विद्रोह और क्रान्ति की चेतना की सुगबुगाहट थी जो उनकी कविताओं में भी प्रकट होने लगी। देरझाबिन, करमजीन और झुकोव्स्की जैसे प्रमुख कवियों ने स्कूल में पढ़ रहे पुश्किन की कविताएँ सुनकर रूसी कविता में एक महाकवि के आगमन की पूर्व सूचना दे दी थी। अपने दो दशकों के अत्यल्प रचनात्मक जीवन में ही पुश्किन ने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में मार्के का लेखन किया है। यह एक दिलचस्प तथ्य है कि 1799 में जन्मे पुश्किन अठारह वर्ष की उम्र में विद्यालय की शिक्षा पूरी करके विदेश विभाग में नौकरी करने लगते हैं लेकिन सत्ता विरोधी रचना और विचारों के लिए अगले दो-तीन वर्षों में ही उन्हें दण्डस्वरूप दक्षिण का निर्वासन स्वीकार करना पड़ता है। आरंभिक जीवन का यह निर्वासन उनकी साहित्यिक दिशा और दशा को बहुत दूर तक प्रभावित करता है।
अगर निर्वासन को एक विभाजक-रेखा मानें तो उसके पहले के पुश्किन एक रोमांटिक, स्वप्नदर्शी और स्वच्छंद कल्पना लोक के विहारी कवि हैं, जिसकी तुलना बायरन जैसे कवियों से की जा सकती है; लेकिन निर्वासन के बाद के पुश्किन एक भव्य उदासी, दूरदृष्टि, व्यापक सांस्कृतिक चेतना और मृत्यु-बोध के कवि हैं जहाँ क्रमशः वे कवि से दार्शनिक और दार्शनिक से उपदेशक के रूप में विकसित होते जाते हैं। हालाँकि 1826 में निर्वासन का आदेश वापस लिया जाता है लेकिन बाद के वर्षों में भी ये सभी विशेषताएँ मिल-जुल कर उनका एक उदात्त काव्य-व्यक्तित्व निर्मित करती हैं जिसमें अंत तक स्वतंत्रता और क्रान्ति की आकांक्षा के साथ-साथ कमल के पत्ते के समान संसार की सभी गतिविधियों में संलग्न रहते हुए भी अनासक्त और तटस्थ रहने की अन्तर्निहित आकांक्षा भी है। 1837 में एक द्वंद्व युद्ध में गंभीर रूप से घायल होने के कुछ दिनों बाद पूश्किन का निधन होता है। प्रेम और दुखों के, मुक्ति और मृत्यु के इस अद्भुत गायक की आवाज़ को हम उसकी रचनाओं में भी महसूस कर सकते हैं।
चादायेव[1] के लिए
प्रेम, आशाओं और ख़ामोश ख्याति का धोखा
अधिक भरमा नहीं सका हमें,
ओझल हो गये यौवन के सारे हास्य-विनोद
सुबह के कुहासे और सपनों की तरह।
पर, इच्छाएँ अब भी दहक रही हैं हमारे भीतर
घातक सत्ता के जुए के नीचे
मातृभूमि के आह्वान हम
सुनते हैं बेचैन हृदय से।
तड़प और आशाओं के साथ
इंतज़ार है हमें स्वतंत्रता की बेला का
जिस तरह इंतज़ार करता है एक प्रेमी
पहले से तय मुलाक़ात का।
जब तक जल रही है हममें आज़ादी की आग
जब तक अंतःकरण के लिए जीवित है हृदय,
मित्र, मातृभूमि को हम अर्पित करेंगे
उदात्त आवेग अपने हृदय के।
साथी, विश्वास रखो, प्रकट होकर रहेगा
मोहक सुखों का वह सितारा,
जाग उठेगा रूस निद्रा से एक दिन
निरंकुश सत्ता के अवशेषों पर
लिखा जाएगा नाम हमारा। (1818)
पुनरुद्धार
एक बर्बर कलाकार अपनी कूची से
रंग फेरता है एक दूसरे मेधावी कलाकार के चित्र पर,
फिर उस पर आँक देता है
अनधिकार एक अर्थहीन तसवीर।
लेकिन समय के साथ उतर जाते हैं
पुरानी पपड़ी की तरह ये रंग
और उस मूल मेधावी चित्रकार की यह कृति हमारे सामने
प्रकट होती है अपने पूर्व सौन्दर्य की गरिमा के साथ।
इसी तरह गायब हो जाते हैं मेरे भटकाव
मेरे संतप्त हृदय से
और प्रकट होते हैं उसमें दृश्य
मेरे आरंभिक निष्कलुष दिनों के। (1819)
बंदी
सीलनभरी कालकोठरी की सलाखों के पीछे
बैठा हूँ मैं, युवा बाज, जीता हुआ दासता में,
मेरा उदास मित्र पंख हिलाते हुए
खिड़की के नीचे खूनसना मांस नोच रहा है चोंच से।
मांस नोचता है, फेंकता है और देखने लगता है खिड़की से
जैसे उसे भी आ रहे हों वे विचार जो मुझे,
बुलाता है वह अपनी चीखों और आँखों से
चाहता है जैसे कहना ‘आओ, भाग जाएँ यहाँ से’।
हम पक्षी हैं स्वच्छंद, आ गया है, मित्र, अवसर अब
उड़ जाने का उधर जहाँ बादलों के पीछे चमक रहा है पर्वत,
जहाँ चमक रहा है समुद्र का नभनील विस्तार
जहाँ भ्रमण करते हैं केवल हम—मैं और पवन। (1822)
पक्षी
मातृभूमि की प्राचीन प्रथा का
पवित्रता के साथ पालन करता हूँ मैं :
पक्षी को छोड़ता हूँ खुला
बहार के उज्ज्वल उत्सव में।
सान्त्वना मिलने लगी है इस विचार से :
कोई शिकायत नहीं रही ईश्वर से,
अधिक नहीं कम से कम एक पक्षी को
स्वतंत्रता दे सका हूँ उपहार में। (1823)
किसने रोका तुम्हें
किसने रोका है तुम्हें, ओ लहरो,
किसने बाँधा तुम्हारा प्रबल वेग?
तुम्हारे प्रचंड प्रवाह को किसने
बदल डाला है शांत ख़ामोश पोखर में?
किसकी जादुई छड़ी ने
तोड़ डाली है मुझमें सभी आशाएँ सुख और दुःख
किसने बेचैन हृदय और यौवन को
सुला दिया है इतनी गहरी निद्रा में?
उठो, हवाओ; उठो, नदियो;
ध्वस्त कर डालो इस संहारक शक्ति को!
कहाँ हो तुम, ओ स्वतंत्रता के प्रतीक तूफ़ानों?
प्रकट हो जाओ जकड़ी जलधारा के ऊपर। (1823)
देवदूत
आध्यात्मिक पिपासा में तड़पता जब
मैं भटक रहा था उदास मरुभूमि में,
छह पंखों वाले एक देवदूत ने
दर्शन दिया मुझे चौराहे पर।
सपनों की तरह सुकोमल उँगलियों से
मेरी आँखों का उसने स्पर्श किया,
डरे हुए बाज की आँखों की तरह
खुल गयीं भविष्यदर्शी वे उसी क्षण।
उसने स्पर्श किया मेरे कानों का,
इनमें भर आयी झनझनाहट और शोर,
साफ़-साफ़ सुनाई देने लगा
आकाश का काँपना और उड़ना देवदूतों का,
पानी के भीतर जलचरों का तैरना
और ठिठुरना अंगूरों की बेलों का।
झुक आया वह मेरे होठों के समीप,
पापी, चतुर और वाचाल जीभ
खींच डाली उसने मेरे मुँह से बाहर
और रक्तस्नात हाथों से उसने
अनुभवी सर्प की जीभ
डाल दी मेरे मुँह के भीतर
तलवार से प्रहार किए उसने मेरी छाती पर
धड़कता दिल निकाल डाला बाहर,
उसके बदले धधकता अंगारा
डाल दिया मेरी छाती के भीतर।
मैं लेटा था जैसे मृत मरुस्थल में
और तभी ईश्वर के मुझे सुनाई दिए स्वर :
‘उठो, ओ देवदूत, देखो, सुनो—
मुझसे ग्रहण करो मेरी इच्छा शक्ति,
जल-थल पर सर्वत्र जाकर
अपनी वाणी से जन-जन के
प्रज्ज्वलित कर डालो हृदय।’ (1826)
साइबेरिया की खानों में
साइबेरिया की खानों की गहराइयों में
बचाये रखना अपना स्वाभिमानी धैर्य,
व्यर्थ नहीं जायेगा तुम्हारा कष्टभरा श्रम,
व्यर्थ नहीं जायेंगे विचारों के उदात्त लक्ष्य।
दुर्भाग्य की विश्वसनीय सखा-आशा—
खानों के घुप्प अंधकार में
जगायेगी तुम्हारे मन में उमंग और उल्लास
कि अवश्य आयेगा वह चिरवांछित दिन।
इन निराशाजनक बाधाओं के बीच से
पहुँचेगा तुम तक हमारा प्रेम और स्नेह
जैसे पहुँचती है तुम्हारी कालकोठरी में
मेरी निर्बन्ध आवाज़।
गिर जायेंगी ये बोझिल बेड़ियाँ,
ध्वस्त हो जायेंगी ये कालकोठरियाँ,
स्वागत करेगी द्वार पर स्वयं स्वतंत्रता,
खंजर सौपेंगे तुम्हारे हाथ भाई-बंध। (1827)
तीन झरने
इस संसार के सीमाहीन दुखभरे निर्जन प्रांतर में
प्रकट हुए हैं रहस्यमय तीन झरने :
यौवन का झरना—फुर्तीला और बेचैन
तेज़ी से बह रहा है उफनता, चमकता।
दूसरा झरना भरा है काव्य प्रेरणाओं से,
निर्जर प्रांतर में प्यास बुझाता है निर्वासितों की,
और तीसरा अंतिम झरना—विस्मृति का
सबसे ज़्यादा मीठा, वही बुझाता है आग हृदय की। (1827)
कवि से
ओ कवि, परवाह मत करना तुम जन सामान्य के प्रेम की,
आह्लादित प्रशस्तियों का शान्त पड़ जायेगा यह क्षणिक शोर,
तुम्हें सुनने को मिलेगी मूर्खों की भर्त्सना,
उदासीन भीड़ के ठहाके,
तुम शान्त रहना, रहना उदास और दृढ़।
सम्राट हो तुम, जीते रहना अकेले अपने दम पर,
मुक्त राह से जाना, जिधर भी ले जायें तुम्हें स्वतन्त्र विवेक,
अपने प्रिय विचारों को ग्रहण करने देना परिपूर्णता
अपने महान उदात्त कार्य के लिए माँगना नहीं कोई पुरस्कार।
पुरस्कार तुम्हारे भीतर हैं।
अपने आपके तुम स्वयं हो निर्णायक,
सर्वाधिक दृढ़ता से तुम्हीं हो समर्थ
अपने श्रम का मूल्यांकन करने में
अपने श्रम से संतुष्ट हो या नहीं,
बताओ हमें ओ कलाकार निर्मम।
संतुष्ट हो तो गाली-गलौज़ करने दो भीड़ को,
थूकने दो उसे वेदी पर जहाँ प्रज्ज्वलित है तुम्हारा दीप
और हिलाते रहने दो उसे तिपाई को एक बच्चे की तरह। (1830)
मैंने स्थापित किया अपना अलौकिक स्मारक
मैंने स्थापित किया अपना अलौकिक स्मारक,
उसे अनदेखा नहीं कर सकेगी जनसामान्य की कोई भी राह,
ऊपर उठा रहेगा उसका अनम्य मस्तक
अलेक्सान्द्र मीनार से भी ऊपर।
पूरा का पूरा मैं मरूँगा नहीं। पावन वीणा में
मेरी आत्मा अक्षुण्ण बची रहेगी राख और विगलन के बाद भी,
गरिमा प्राप्त होती रहेगी मुझे इस धरा पर
जब तक जीवित रहेगा रचनाशील कवि एक भी।
महान रूस के कोने-कोने तक पहुँचेगी मेरी ख्याति।
उसके नागरिक-स्लावपुत्र याद करेंगे मेरा काम,
फिन्न या अभी असभ्य तुंगूस और स्तेपी मित्र-कल्मीक—
सबकी जीभ पर होगा मेरा नाम।
जन-जन का सदा मिलता रहेगा प्रेम मुझे
इसलिए कि वीणा के माध्यम से जगायी उदात्त भावनाएँ,
और आह्वान किया पतितों के प्रति दया-भाव का
मुक्ति के गीत गाये अपनी इस निष्ठुर शताब्दी में।
ईश्वर के आदेशों का पालन करती रहो, ओ वीणा,
डरो नहीं अपमानों से, लोभ न करो सम्मान-पुरस्कार का,
तटस्थ रहो निन्दा और प्रशंसा के प्रति
और न ही प्रतिवाद करो किसी मूर्ख की बात का। (1836)
ये कविताएँ पुश्किन की द्विशतवार्षिकी के अवसर पर साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशित उनकी प्रतिनधि कविताओं के चयन-अनुवाद ‘बिखरे नक्षत्रों के बीच’ से ली गयी हैं। मूल रूसी से हिंदी अनुवाद : वरयाम सिंह।
(वरयाम सिंह: रूसी साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान और अनुवादक। आरंभिक शिक्षा के बाद मास्को राजकीय विश्विद्यालय से रूसी साहित्य में विशेष अध्ययन और पीएच.डी। 1972 से जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय में अध्यापन। रूसी कविताओं के दस अनुवादित संकलन हिंदी में प्रकाशित हैं जिनमें प्रमुख हैं—‘आयेंगे दिन कविताओं के’ (त्स्वेतायेवा), ‘निकॉलाइ रेरिख की कविताएँ’ एवं ‘कविता विषयक रूसी कविताएँ’। साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशित बीसवीं सदी की रूसी कविता ‘तनी हुई प्रत्यंचा’ और ‘मनास’ (किर्गीज़ महाकाव्य) के लिए विशेष प्रशंसा अर्जित। अनुवाद के लिए सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, मध्य प्रदेश साहित्य परिषद का आचार्य रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कार तथा कविता के लिए हिमाचल अकादमी पुरस्कार)
टिप्पणीकार पंकज बोस : दिल्ली विश्विद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त हैं. “सातवें दशक की आलोचना और इलाहाबाद की ‘विवेचना’ गोष्ठी” पर पीएच. डी. और “हिंदी आलोचना के विकास में इलाहाबाद का योगदान” पर पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च। हिंदी की महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में आलोचना और शोध-लेख प्रकाशित। सम्प्रति दिल्ली विश्वविद्यालय के इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय में अध्यापन और कवि कुँवर नारायण से संबंधित कई महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं पर कार्य जिनमें एक पत्रिका का विशेषांक, एक सम्पादित और एक आलोचना पुस्तक शामिल है।
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[1] रूसी चिंतक-पत्रकार (1749-1836)। दिसंबर क्रांति के नेताओं में एक।