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10 वां पटना फिल्मोत्सव : हिंसा, नफरत और उन्माद से बच्चों को बचाने की मार्मिक अपील

क्रांतिकारी कवि और बुद्धिजीवी सरोज दत्त के जीवन और विचार से रूबरू हुए दर्शक

पटना: 11 दिसंबर. 10 वें पटना फिल्मोत्सव के आखिरी दिन की शुरुआत कार्लोस सलदान्हा निर्देशित एनिमेशन फिल्म ‘फर्दीनांद’ से हुई। एक प्यारा-से बछड़े की कहानी है, जिसका नाम फर्दीनांद है। जो अपने हमउम्र बछड़ों से एक लाल रंग के फूल को बचाने की कोशिश करता है। उसके हमउम्र बछड़े अपने पिताओं की ताकत की तारीफ करते हैं, दावे करते हैं कि उनके पिता ही बुल फाइटिंग के लिए चुने जाएंगे। वे आपस में झगड़े भी करते हैं। लेकिन फर्दीनांद को उनकी शैतानियों में कोई दिलचस्पी नहीं है। उसे तो फूूल-पत्तों से प्यार है। उसे लड़ाई पसंद नहीं है।

संयोग से फर्दीनांद के पिता ही बुल फाइटिंग के लिए चुने जाते हैं। उन्हें विदा करते हुए फर्दीनांद सवाल करता है कि क्या बिना लड़े कोई जीत नहीं सकता? पिता के पास इसका जवाब नहीं है। फर्दीनांद को इंतजार है कि उसके पिता लौटकर आएंगे, पर वे नहीं आते। फिर एक दिन फर्दीनांद उस बाड़े से भाग जाता है, जहां बुल फाइटिंग के लिए बलिष्ठ बैल बनाए जाते हैं। भागते-भागते वह एक प्यारी सी बच्ची से मिलता है। वह उसे अपने पास रख लेती है। बच्ची के पिता और उसके कुत्ते की छोटी सी दुनिया का फर्दीनांद सदस्य बन जाता है। उनका घर शहर से दूर है, जहां चारों ओर फूल ही फूल हैं, हरियाली और पहाड़ हैं।

 

अपने पिता की तरह फर्दीनांद भी विशालकाय हो जाता है। वह उस दुनिया में सुख और आनंद से है, पर नियति उसे फिर वहां तक ले जाती है, जहां फाइटिंग के लिए बैलों को तैयार किया जाता है। वह जेल सरीखी जगह है, जहां से भागना मुश्किल लगता है। वहां उसके बचपन के दोस्त मिलते हैं, जो अब भी हिंसक प्रतिस्पद्र्धा से भरे हुए हैं। उनकी ट्रेनर एक बकरी है, जो बहुत ही बकबक करती है। जो बुल फाइटर है वह बहुत ही घमंडी और क्रूर है, कई बैलों को पराजित कर चुका है। जो बैल हार जाते हैं, उनको कसाईघर भेज दिया जाता है, जहां उनको काट दिया जाता है और उनके सींग स्मृति के तौर पर दीवार पर टांग दिए जाते हैं। उसी दीवार पर फर्दीनांद के पिता की तस्वीर और सींग लगी हुई होती है। फर्दीनांद सबके साथ वहां से भागने की कोशिश करता है, सफल भी होता है, पर अंततः पकड़कर फाइटिंग के मैदान में पहुंचा जाता है, जहां उसका सामना क्रूर बुल फाइटर से होता है। संयोग से बुल फाइटर उसके सींगों के बीच फंस जाता है, पर वह उसे नहीं मारता। तब बुल फाइटर उसकी तरफ तलवार लेकर बढ़ता है, पर दर्शकों का समूह कहता है कि उसे मत मारो। लड़की भी उसे खोजते हुए वहां पहुंचती है और फिर वह अपने दोस्तों के साथ फूलों की घाटी वाले घर में पहुंच जाता है। लड़की का कुत्ता कहता है कि अकेला गया था, पूरे फैमिली पैक के साथ आया है।

‘फर्दीनांद’ ने जो अमन और मुहब्बत का संदेश दिया, उससे बड़े दर्शक भी बहुत प्रभावित हुए। बच्चों ने तो खूब मजा लिया। फिल्म भावनात्मक रूप से काफी प्रभावशाली थी।

एसडी: सरोज दत्ता एंड हिज टाइम्स’: एक क्रांतिकारी कवि और कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी की जीवनगाथा
आज की दूसरी फिल्म ‘एसडी: सरोज दत्ता एंड हिज टाइम्स’ प्रसिद्ध कम्युनिस्ट क्रांतिकारी बुद्धिजीवी, कवि-आलोचक, पत्रकार, अनुवादक और भाकपा-माले के सर्वोच्च नेताओं में एक का. सरोज दत्त पर केंद्रित एक दस्तावेजी फिल्म थी। शासकवर्ग ने नक्सलबाड़ी विद्रोह का भीषण दमन किया था, जिसमें कई महत्वपूर्ण नेताओं की हत्या कर दी गई थी। का. सरोज दत्त भी उनमें से एक थे। 4 अगस्त 1971 को पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया और 5 अगस्त को उन्हें मार दिया, उनकी लाश भी नहीं मिली थी।

का. सरोज दत्त नक्सली आंदोलन के सिद्धांतकारों में से थे। उनकी कविताओं, आलोचना और उनका राजनीतिक नजरिये का साठ-सत्तर के दशक के वामपंथी क्रांतिकारियों पर खासा प्रभाव था। इस फिल्म का निर्माण का. सरोज दत्त के जन्म शताब्दी वर्ष 2014 के ठीक एक वर्ष पहले शुरू हुआ था और यह नक्सलबाड़ी विद्रोह की अर्धशताब्दी के अवसर पर 2017 में पूरी हुई। फिल्म की निर्देशिका कस्तुरी बासु और मिताली विश्वास ने इस फिल्म के लिए काफी रिसर्च किया, उस दौर के लोगों से बातचीत की, आंदोलन के इलाकों में लोगों से मिलीं, कई अर्काइवल सामग्री जुटाए। रिसर्च के दौरान उन्हें नक्लबाड़ी के किसानों के बीच उनके दो गीत मिले, जिन्हें रिकार्ड करके फिल्म में शामिल किया गया। एक और गीत का इस्तेमाल प्रसिद्ध अभिनेता और रंगकर्मी उत्पल दत्त ने अपने नाटक ‘तीर’ में किया था तथा दूूसरे गीत को संगीतकार हेमांग विश्वास की पुत्री रंगोली विश्वास ने अपनी आवाज में गाया था।

इस फिल्म में सरोज दत्त की रचनाओं और अर्काइवल फोटाग्राफ्स और उस समय के दुर्लभ फुटेज का इस्तेमाल किया गया था।

का. सरोज दत्त और उनके साथियों ने क्रांति के स्वप्न को नया आवेग दिया: मिताली विश्वास
फिल्म प्रदर्शन के बाद फिल्म की निर्देशिका मिताली विश्वास ने दर्शकों से संवाद के क्रम में कहा कि नक्सलबाड़ी विद्रोह के जो बुनियादी कारण या सवाल थे, अभी तक उनका समाधान नहीं हुआ है। हमारे देश में क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन के बारे में शासकवर्ग और उसके प्रचार माध्यम जितना भी नकारात्मक छवि बनाएं, सच तो यह है कि नक्सलबाड़ी से लेकर अब तक कम्युनिस्ट किसानों और मजदूरों के आंदोलनों के साथ मजबूती से खड़े हैं। जिस तरह का. सरोज दत्त ने मुख्य धारा की मीडिया से प्रचारित शासकवर्गीय विचारों के विरुद्ध जन-पत्रकारिता और जनपक्षीय आलोचना की धारा को निर्मित किया, आज भी उसकी प्रासंगिकता है। का. सरोज दत्त और उनके साथी सच्चे देशभक्त थे। उन्हें समाज के मेहनतकश और हाशिये के लोगों की चिंता थी।

मिताली विश्वास ने यह भी बताया कि नौजवानों और बच्चों के लिए वे दोस्त जैसे थे। उनका मकसद बहुत बड़ा था, उन्होंने क्रांति के स्वप्न को नया आवेग दिया और उसके लिए शहादत तक दी। यह फिल्म का. सरोज दत्त के जीवन के जरिये उस युग के क्रांतिकारियों के स्वप्न से साक्षात्कार कराती है।

आदमखोरी नहीं छोड़ोगे तो सब खत्म हो जाओगे: ‘पागल की डायरी’ ने दिया संदेश
‘‘जिन बच्चों ने नर-मांस न खाया हो।…क्या हम इन बच्चों को बचा सकते हैं?’’
‘पागल की डायरी’ की रचना के सौवें साल में हिरावल ने उसकी नाट्य प्रस्तुति की

दसवें पटना फिल्मोत्सव का समापन दुनिया के महान साहित्यकार लूशुन की कहानी ‘पागल की डायरी’ पर आधारित नाट्य प्रस्तुति से हुई। लूशुन ने यह कहानी आज से 100 साल पूर्व यानी 1918 में लिखी थी। यह एक गहरे अवसाद से ग्रस्त नौजवान के अनुभव हैं, जो डायरी की शक्ल में हैं। हिंसा, हत्या, अविश्वास, नफरत की प्रवृत्तियों से वह बेहद आहत है। उसे लगता है कि चार हजार साल से समाज में आदमखोरी की परंपरा चल रही है। हर कोई एक दूसरे को खा जाने को आतुर है।

लूशुन ने हिंसा और नफरत पर टिके समाज की आलोचना के लिए इस कहानी में अद्भुत शिल्प का इस्तेमाल किया है।

नाटक ‘ एक पागल की डायरी ‘

 

नाटक में एक जगह पागल नौजवान अपने समय और समाज पर जो टिप्पणी करता है, वह जितनी सौ साल पहले प्रासंगिक थी, उतनी आज के लिए भी उचित जान पड़ती है। पागल कहता है- ‘‘दूसरों को खा लेने का लालच, परंतु स्वयं आहार बन जाने का भय। सबको दूसरों पर संदेह है, सब दूसरों से आशंकित हैं… यदि इस परस्पर भय से लोगों को मुक्ति मिल सके तो वे निःश्शंक होकर काम कर सकते हैं, घूम-फिर सकते हैं, खा-पी सकते हैं, चैन की नींद सो सकते हैं। बस, मन से वह एक विचार निकाल देने की जरूरत है। परंतु लोग यह कर नहीं पाते और बाप-बेटे, पति-पत्नी, भाई-भाई, मित्र, गुरु-शिष्य, एक दूसरे के जानी दुश्मन और यहां तक कि अपरिचित भी एक-दूसरे को खा जाने के षड्यंत्र में शामिल हैं, दूूसरों को भी इसमें घसीट रहे हैं और इस चक्कर से निकल जाने को कोई तैयार नहीं।’’

नाटक ‘ एक पागल की डायरी ‘

पागल एक दूसरी जगह निर्णायक चेतावनी देता है -‘‘…अगर तुम आदमखोरी नहीं छोड़ेगो, तो तुम सब खत्म हो जाओगे, एक-दूसरे को खा जाओगे।..’’

नाटक के अंत में सूत्रधार की दर्शकों से मार्मिक गुहार की- ‘‘संभव है, नई पीढ़ी के छोटे बच्चों ने अभी नर-मांस न खाया हो।…क्या हम इन बच्चों को बचा सकते हैं?’’

नाटक ‘ एक पागल की डायरी ‘

नाट्य प्रस्तुति की दृष्टि से ‘पागल की डायरी’ आसान और सहज कहानी नहीं है, पर संतोष झा की परिकल्पना और निर्देशन ने इसे संभव किया। आदमखोरी यानी हत्या और हिंसा की जो लंबी संस्कृति है, उसके समकालीन राजनीतिक प्रतीकों का इस्तेमाल करके उन्होंने इसे बिल्कुल आज के दौर की कहानी बना दिया। यह कहीं से लगा नहीं कि यह कहानी सौ साल पहले लिखी गई थी।

पागल नौजवान की शानदार भूमिका के जरिए विक्रांत चौहान ने इसे और प्रभावशाली बनाया। प्रकाश संयोजन की इस नाटक में खास भूमिका थी, जिसे रोशन ने निभाया। निर्देशक ने प्रोजेक्टर के जरिए कुछ दृश्यों को नाटक के साथ संयोजित किया, जिसमें रोहित वेमुला की तस्वीर गहरा अर्थ रखती थी। प्रीति प्रभा ने काली और भीड़ की भूमिकाएं निभाई। रेशमा खातुन, पायल, पलक और पीहू भी भीड़ की भूमिका में थीं। उन्होंने काली पोशाक पहन रखी थी और चेहरे पर सफेद मुखौटा लगा रखा था। बड़ा भाई, डाॅॅक्टर और सूूत्रधार की भूमिका क्रमशः राम कुमार, राजन कुमार और सुमन कुमार ने निभाई। सुधांशु किसान और नौजवान की भूमिका में थे। प्रोजेक्टर संचालन राजीव के जिम्मे था। मेकअप जितेंद्र जीतू का था, ध्वनि दी सजल आनंद ने। प्रोपर्टी और व्यवस्था की जिम्मेवारी प्रकाश से संभाल रखी थी। मंच और नेपथ्य के कलाकारों के साथ-साथ पटना के नाट्य दर्शकों की भी सराहना करनी चाहिए। कालिदास रंगालय का प्रेक्षागृह नाट्य प्रस्तुति के समय खचाखच भरा हुआ था।

नाटक ‘ एक पागल की डायरी ‘

दसवें पुस्तक मेला में हमेशा की तरह किताबों और सीडी का स्टाॅॅल भी लगाया गया था। प्रेक्षागृह के बाहर कैपस को भी सजाया गया था।

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