समकालीन जनमत
स्मृति

देख लो आज हमको जी भर के

उनकी आवाज सबसे पहले रेडियो पर सुनाई दी, सोलह बरस की एक शोख लड़की की पुरकशिश आवाज ।सांवली रंगत और हिरनी जैसी बड़ी बड़ी आंखों वाली स्मिता, शुरू से ही अपने व्यक्तित्व में विद्रोह लिए जब इन्डस्ट्री में आई तो दुनिया की निगाहों ने उसे सलाम किया ।

वक्त बहुत कम मिला स्मिता को, अपने लिए जिंदगी के पल कम तो हमारे लिए महबूब नायिका का जल्दी चले जाना । पर इसी कम वक्त में ऐसी जिंदगी जो बोल्ड भी है और ब्यूटीफुल भी ।

‘भूमिका’ में मराठी रंगमंच की जानी मानी अभिनेत्री हंसा वाडेकर के चरित्र को रुपहले पर्दे पर साकार करती एक गरीब, टैलेंटेड लड़की की भूमिका जो अपनी मेहनत से अपना मुकाम हासिल करती है । एक रियल कैरेक्टर को पर्दे पर जीने के लिए जिस संवेदना, संजीदगी और अभिनय कौशल की आवश्यकता होती है वह स्मिता में बखूबी दिखाई देती है ।

‘मिर्च मसाला’ में अपने ताकतवर शोषक के खिलाफ संघर्ष करती,डटकर खड़ी लड़की ।

‘अर्थ’ की झुकी झुकी सी नज़र की बेकरारी ।

श्याम बेनेगल जिस वक्त ‘चरनदास चोर’ बनाने की तैयारी में थे उसी समय उनकी मुलाकात स्मिता पाटिल से हुई।

श्याम बेनेगल की अनुभवी आंखों ने उसी वक्त पहचान लिया था कि ये बोलती आंखें दुनिया से बहुत कुछ कहने के लिए हैं । राजनेता पिता और समाजसेवी मां की बेटी ने जब अभिनय की दुनिया में आने का फैसला किया तो न सिर्फ व्यावसायिक सिनेमा बल्कि  चरनदास  चोर से लेकर निशांत, मंथन, भूमिका, आक्रोश, गिद्ध, अर्धसत्य, मंडी, अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है, मिर्च मसाला, चक्र, बाज़ार तक उसने अपने अभिनय से समानांतर सिनेमा को भी एक नया आयाम दिया ।

अपने दस साल के छोटे से फिल्मी सफर में स्मिता ने हिन्दी सिनेमा में अपनी जो छाप छोड़ी उसी का परिणाम था कि 1985 में, उनकी मौत से एक बरस पहले, उनको पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया ।

 

न सिर्फ फिल्मी भूमिकाओं में बल्कि अपनी निजी जिंदगी में भी स्मिता ने संघर्ष की मिसाल पेश की । अपनी लड़ाई खुद से लड़ी, अपने निर्णय खुद से लिए, चाहे वो फिल्मी कैरिअर अपनाने का रहा हो या हमसफर ।

राजबब्बर से रिश्ते को लेकर उनके परिवार वाले उनसे खुश नहीं थे लेकिन स्मिता ने राजबब्बर के साथ रहने का फैसला किया ।

13 दिसंबर 1986 को महबूब अभिनेत्री ने अन्तिम विदा ली । लेखिका भावना सोमाया अपने एक लेख में जिक्र करती हैं कि मानो स्मिता को अपनी अन्तिम विदा का पूर्वाभास हो गया था । अपनी हेयर ड्रेसर माया से उन्होंने कहा-‘प्लीज, मेरे लिए दुआ करना ।’

बान्द्रा स्थित उनके घर से उनकी अन्तिम यात्रा के वक्त उनकी माँ विद्या पाटिल ने नम आंखों से बेटी को विदा करते हुए कहा-‘मेरी बेटी फाइटर थी ।’

‘बाज़ार’ में नसीर साहब के सवाल ‘अगर कहीं मैं मिल गया तो पहचान लोगी मुझे’ के जवाब में  स्मिता  जब कहती हैं -‘सलाम ज़रूर करूंगी’ तो यह पूरा दृश्य, संवाद अदायगी और उसकी  कशिश, पीड़ा और बेचैनी दूर तक हमारा पीछा करती है ।

सलाम स्मिता, कहीं मिल जाने की उम्मीद में!

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