समकालीन जनमत
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जनमत

बहुत कुछ निर्भर है हिन्दी प्रदेश पर

इस सप्ताह के आरम्भ में उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर में हुई हिंसा (2 दिसम्बर 2018 ) को हम कैसे देखें ? क्या कोई भी घटना अचानक या स्वतः स्फूर्त होती है या उसके पीछे कई ठोस कारक होते हैं, जिनकी पहचान-खोज करना हम आवश्यक नहीं समझते ? भीड़ हिंसा पहले न के बराबर थी। अगर कभी कहीं होती भी थी, तो पुलिस सक्रिय होती थी। उसमें ऐसी वृद्धि पहले नहीं देखी गयी। यह सब मई 2014 के बाद हो रहा है।

बुलन्दशहर के स्याना थाना के इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की मृत्यु और कई पुलिसकर्मियों का घायल होना एक नयी घटना है। इस हिंसा में तीन गांवों के लगभग चार सौ लोगों के शामिल होने की बात कही जा रही है। जिन अनेक लोगों पर एफआईआर दर्ज किया गया है, उनमें 27 नाम हैं और शेष अज्ञात है। ज्ञात और अज्ञात का एक साथ भीड़ हिंसा में शामिल होना अचानक नहीं होता। जिस बजरंग दल के जिला संयोजक का नाम पहले अभियुक्त आौर मुलजिम के रूप में है, वह कानून का छात्र है। कानून ढ़ह रहा है और उसे ढ़हाया भी जा रहा है।

बजरंग दल की स्थापना पहली अक्टूबर 1984 को हुई थी। यह विश्व हिन्दू परिषद की युवा शाखा है। इस संस्था की विचारधारा हिन्दुत्व की है। केन्द्र में भाजपा की और प्रदेश में भी उनकी ही सरकार है और यह सब जानते हैं कि भाजपा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से नाभिनालबद्ध है।

कानून व्यवस्था चरमरा रही है। इसी तारीख को जम्मू-कश्मीर के कठुआ जिले में भीड़ ने उस ट्रक को आग लगा दी जिस पर मवेशियों को अवैध तरीके से ले जाने का आरोप लगाया गया। भीड़ को यह शक्ति कहां से प्राप्त होती है ? भीड़ हिंसा का यह सिलसिला रूक क्यों नहीं रहा है ? क्या भीड़ हिंसा लोगों को भयग्रस्त नहीं करती ? क्या यह समाज को आतंकित-प्रभावित करना नहीं है ? एक ओर शासक वर्ग गांधी की डेढ सौ वीं वर्षगांठ मना रहा है, अहिंसा, सत्याग्रह, स्वच्छाग्रह की बातें कर रहा है और दूसरी ओर ऐसी शक्तियों, समूहों और संगठनों के प्रति वह ‘साफ्ट’ है।

हिन्दी क्षेत्र से हमारा आशय दस हिन्दी राज्यों – बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, उत्तराखण्ड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हिमांचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा, दिल्ली – से है जिसकी आबादी भारत की कुल जनसंख्या का लगभग 44-45 प्रतिशत है। लगभग पचास करोड़। भारत के कुल क्षेत्रफल का 41.23 प्रतिशत क्षेत्रफल हिन्दी प्रदेश का है। लोकसभा में 543 सांसदों में से 225 सांसद हिन्दी प्रदेश के हैं। आशीष बोस ने अस्सी के दशक में बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के अंग्रेजी के प्रथमाक्षरों से जो पद ‘बीमारू’ निर्मित किया था, उनके कुल लोकसभा सांसदों की संख्या 204 है। बिहार में 40, झारखण्ड में 14, मध्यप्रदेश में 29, छत्तीसगढ़ में 11, राजस्थान में 25, उत्तर प्रदेश में 80 और उत्तराखण्ड में 5। 16वीं लोकसभा में भाजपा को कुल 282 सीटें प्राप्त हुई थीं, जिनमें हिन्दी प्रदेश से प्राप्त सीटों की संख्या 185 थी।

इन पंक्तियों का लेखक पिछले बीस वर्ष से बार-बार इस तथ्य को आंकड़ों सहित लिखता और कहता रहा है कि हिन्दी क्षेत्र दलदल में फंस चुका है। इसी दलदल से ‘कमल’ खिला है।

हिन्दी प्रदेश अस्सी के दशक के पहले धर्मान्धों, सम्प्रदायवादियों, कट्टरपंथियों का गढ़ नहीं था। इस क्षेत्र को पहले ‘मध्यदेश’ कहा जाता था। यह ‘भारत का हृदय एवं संचालन केन्द्र’ रहा है। 1977 के लोकसभा चुनाव में हिन्दी प्रदेश के कारण ही इन्दिरा गांधी सत्ताच्युत हुई थी। इन्दिरागांधी को सत्ताच्युत कर फिर से उन्हें सत्तासीन कराने में हिन्दी प्रदेशों की बड़ी भूमिका रही है। इसी प्रकार अटल बिहारी वाजपेई की सरकार बनाने में और फिर 2004 में सत्ता च्युत करने में हिन्दी प्रदेश आगे रहा है। नरेन्द्र मोदी को दिल्ली का तख्त हिन्दी प्रदेश ने ही सौंपा और 2014 में लगभग तीस वर्ष बाद किसी पार्टी को उसने बहुमत प्रदान किया।

इस पर कम विचार होता है कि 282 सीटों में से 185 सीट भाजपा को हिन्दी प्रदेश से प्राप्त हुई थी। यह याद रखना चाहिए कि भाजपा को 1984 में जो दो सीटें प्राप्त हुई थीं, उनमें से एक भी सीट हिन्दी प्रदेश की नहीं थी। आज लालकृष्ण अडवानी भाजपा के ‘मार्गदर्शक’ कहने भर को भले हों, पर वे सही अर्थां में भाजपा और हिन्दुत्व के मार्गदर्शक 1989 और उसके बाद थे। आडवानी उसी प्रकार हिन्दी प्रदेश के नहीं थे जिस प्रकार नरेन्द्र मोदी हिन्दी प्रदेश के नहीं हैं। बनारस उनका संसदीय क्षेत्र भर है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलपति ममिडला जगदीश कुमार भी हिन्दी प्रदेश के नहीं है, जिन्होंने जे एन यू की गरिमा को पूरी तरह नष्ट कर दिया है।

हिन्दी प्रदेश एक ‘बैटल ग्राउण्ड’ है। इस क्षेत्र में जहां तक राजनीतिक दलों की बात है, पहले कांग्रेस और समाजवादी प्रमुख थे। हिन्दुत्व का गढ़ इन दोनों दलों की असफलताओं-विफलताओं के कारण बाद में बना। रामविलास शर्मा ने ‘भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश’ में लिखा था – ‘संख्या में, हिन्दी जाति भारत की सबसे बड़ी जाति है। निर्धनता और निरक्षरता के कारण वह इस समय अत्यन्त निर्बल और पिछड़ी हुई है। इस स्थिति को बदलने के लिए सबसे पहले देशी-विदेशी पूंजी के गठबन्धन को तोड़ना आवश्यक है। इस गठबन्धन के समर्थक जिन राजनीतिज्ञों के हाथ में देश की बागडोर है, उनके हाथों से यह बागडोर छीन लेनी है।

जाति-बिरादरी के भेद-भाव, हिन्दू-मुसलमान के साम्प्रदायिक भेदभाव दूर करके हिन्दी जाति को आन्तरिक रूप से एकताबद्ध करके ही हम अपनी भाषा और साहित्य का विकास कर सकते हैं।’ हिन्दी क्षेत्र को आन्तरिक रूप से ‘एकताबद्ध’ करने की चिन्ता किसे है ? क्या सचमुच कोई ऐसा राजनीतिक दल और संगठन है, जिसकी चिन्ताएं हिन्दी प्रदेश है ? क्या कोई कवि, लेखक, विचारक, संस्कृतिकर्मी, बुद्धिजीवी है, जिसमें यह छटपटाहट है ?

हिन्दी प्रदेश तटीय प्रदेश नहीं है। तटीय प्रदेशों की तुलना में यहां शिक्षा का प्रचार-प्रसार बाद में हुआ। 1857 में तीन प्रसिडेंसियों – बंगाल, बम्बई और मद्रास- में विश्वविद्यालय खुलने के तीस वर्ष और कांग्रेस की स्थापना, 1885 के दो वर्ष बाद हिन्दी प्रदेश का पहला विश्वविद्यालय 23 सितम्बर 1887 को खुला – इलाहाबाद विश्वविद्यालय। एक समय जो ‘पूरब का आक्सफोर्ड’ कहा जाता था, आज वह किस स्थिति में है ? वही नही बीएचयू, लखनऊ, आगरा, सागर, पटना आदि विश्वविद्यालय किस स्थिति में हैं ? हिन्दी प्रदेश ऊपर से जितना आकर्षक दिखाई देता हो, पर भीतर से उसे पूरी तरह नष्ट किया जा रहा है, जिसमें राजनीतिक दलों की विशेष भूमिका है।

आज की तरह पहले काॅलेज और विश्वविद्यालय नहीं थे। स्वतंत्र भारत में साठ के दशक तक कमोबेश यहां संस्थाएं बची हुई थी। आल बिहारा राष्ट्र परिषद, पटना, हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग और नागरी प्रचारिणी सभा, काशी अपनी पूर्व स्थिति में है ? जे एन यू साठ के दशक में बना और आज वह किस स्थिति में है ? जहां का वाइस चांसलर ‘टैंक प्रेमी’ हो और परिसर में हिन्दुत्ववादियों के खुले प्रदर्शन पर कोई रोक न लगाता हो, विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में राजीव मल्होत्रा को नियुक्त करता हो, जिन्हें राधावल्लभ त्रिपाठी ने अपने एक लेख (इंडिया टुडे, साहित्य वार्षिकी, 2018 ) में ‘ संस्कृत के नाम पर छद्म समर का सेनानी ’ ही नहीं, यह भी कहा है कि ‘ मल्होत्रा संस्कृतज्ञ नहीं है। संस्कृत के सम्बन्ध में उनका ज्ञान दोयम दर्जे के स्रोतों पर टिका हुआ और अप्रामाणिक है।’ उस शिक्षण संस्थान को किस दिशा में ले आया जा रहा है ? हिन्दी क्षेत्र आौर समाज में विकृतियां लम्बे समय से थीं, पर हिन्दुत्व की राजनीति ने इस पूरे प्रदेश के सकारात्मक पक्षों को नष्ट करने की एक प्रकार से मुहिम चला दी है जो एक साथ कई स्तरों पर सक्रिय है।

हिन्दी प्रदेश में अयोध्या, काशी और मथुरा है, ताजमहल है, बाबरी मस्जिद भी थी और जामा मस्जिद भी है। हिन्दी प्रदेश में जो भी घटित होता है, उसका प्रभाव पूरे देश पर पड़ता है। अगर भाजपा सत्ता में नहीं होती तो सबरीमल (केरल) में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद भी जो घट रहा है, क्या वह संभव होता ? हिन्दी प्रदेश के नेताओं में कट्टरतावाद कम रहा है। आडवाणी, मोदी और अमित शाह हिन्दी प्रदेश के नहीं हैं। अटल बिहारी वाजपेई ‘हिन्दुत्व’ विचारधारा के होने के बाद भी इन तीनों से भिन्न थे। बाद में कट्टरपंथी यहां बढ़ते, फैलते और सत्तासीन होते देखे जा सकते हैं। हिन्दी प्रदेश में धार्मिक कट्टरता का इतिहास बहुत पुराना नहीं है। पहले उस पर आवरण था जो अब पूरी तरह उतर चुका है। हिन्दी समाज में वर्ण-व्यवस्था, जाति-प्रथा, साम्प्रदायिकता सब पहले से मौजूद थीं, पर वे आज की तरह खुले रूप में कम थीं। धर्म का राज्य सत्ता से सम्बन्ध स्वतंत्र भारत में अस्सी के दशक के बाद से प्रमुख हुआ।

आज धर्म और राज्यसत्ता के सम्बन्ध को समझने और उस पर विचार करने की जरूरत है। जिस मुगल-काल और शासन की निन्दा ‘हिन्दुत्व’ के प्रचारक-समर्थक आदि करते हैं, वहीं अकबर का झुकाव रूढ़िमुक्त था और उनका चिन्तन विवेकशील था। धर्म का आस्था से सम्बन्ध है, विेवेक से नहीं और आज सारी बातें आस्था की जाती है। ब्रिटिश से लेकर स्वतंत्र भारत के शासकों तक, किसी ने हिन्दी समाज को एक नहीं होने दिया। रामविलास शर्मा पचास वर्ष तक (1949 से 1999) हिन्दी जाति की एकता की बात करते रहे, पर उनकी चिन्ता पर किसी ने ध्यान नहीं दिया।

चित्र -एसके यादव

हिन्दुस्तान के मुसलमान शासकों की आलोचना करने वाले यह नहीं समझते कि वे सही अर्थों में हिन्दुस्तानी थे। विजय माल्या और नीरव मोदी जैसों की पीठ पर हाथ रखने वाले मुगल शासकों की आलोचना करते हैं। अंग्रेजों ने ‘बांटो और शासन करो’ की जो नीति अपनाई थी, वह स्वतंत्र भारत में भी कायम रही। इधर फर्क यह आया ‘डिवाइर्ट एंड रूल’ अर्थात ध्यान मोड़ो और राज करो। एक साथ समाज को तोड़ा और विघटित किया जा रहा है और आधारभूत सवालों से उसका ध्यान मोड़कर दूसरी ओर ध्यान दिलाया जा रहा है। एकता भंग की जा रही है। उद्देश्य मात्र एक है – किसी-न-किसी प्रकार सत्ता प्राप्त करना।

हिन्दी प्रदेश एक समय मुस्लिम सम्प्रदायवाद का केन्द्र था। आज वह हिन्दू सम्प्रदायवाद का केन्द्र है। इससे मुकाबला करने वाली शक्तियां नगण्य हैं। पूरा हिन्दी प्रदेश प्रतिक्रियावाद का गढ़ है। 1857 की लड़ाई में हिन्दी प्रदेश की प्रमुख भूमिका थी। अंग्रेजों से लड़ने में सब एक साथ थे। ऐसी एकजुटता फिर कभी देखी नहीं गयी। उसी समय से हिन्दी प्रदेश अंग्रेज शासकों की आंख में खटकता रहा। उन्होंने भाषा, धर्म के आधार पर पूरी तरह तोड़ा। आजादी या सत्ता हस्तांतरण के बाद भी इसमें कोई कमी नहीं आयी। हिन्दी प्रदेश को बार-बार कमजोर किया जाता रहा। अकबर के समय में सामंतवाद कमजोर हुआ था। बाद में इसे मजबूत किया गया।

आज जिस प्रकार साम्प्रदायिक शक्तियों का उभार है, वह पहले नहीं था। मुस्लिम सम्प्रदायवाद को अंग्रेजों ने बढ़ावा दिया था। हिन्दू सम्प्रदायवाद को अमेरिका बढ़ावा दे रहा है। अक्सर हम यह भूल जाते हैं कि नयी आर्थिक नीति और नवउदारवादी व्यवस्था (1991) के बाद बाबरी मस्जिद ध्वंस हुआ था। देश का कोई भी राजनीतिक दल नवउदारवादी अर्थव्यवस्था का वास्तविक अर्थों में विरोधी नहीं है। जिसे विपक्षी एकता या गठबन्धन कहते हैं, वह कहने भर के लिए है। नीतीश कुमार ने ‘संघ मुक्त भारत’ की बात कही थी। आज वे कहां हैं ? कम संभावना है कि अगले लोकसभा चुनाव, 2019 में भाजपा के खिलाफ किसी एक दल का ही प्रत्याशी खड़ा हो। 543 सीटों की बात छोड़ें, हिन्दी प्रदेश की 225 सीटों पर ही क्या सारे विपक्षी दल मिलकर भाजपा के खिलाफ किसी एक प्रत्याशी को खड़ा करेंगे ? असंभव तो नहीं, पर यह बहुत कठिन है। हिन्दी प्रदेश अपनी इस सांसद संख्या (225) के कारण प्रमुख भूमिका में है, पर सत्तालोलुप राजनीतिक दलों को इसकी कोई चिन्ता नहीं है। जब हम केवल अपनी चिन्ता करते हैं, तब समाज और देश की चिन्ता गायब हो जाती है। हिन्दी प्रदेश पर न सही सब कुछ, पर बहुत कुछ तो निर्भर करता ही है। बुलन्दशहर की घटना हो या अन्य और कहीं की, इसके तार बहुत लम्बे और मजबूत हैं।

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