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स्त्री शिक्षा : आधे-अधूरे चित्त की उपज

कमलानंद झा


‘‘क्यों कर लड़कियां लिख-पढ़कर अपने सासरे वालों के बस में नहीं रहेंगी निश्चय वह तन-मन से अपने पुरूष की टहल करेंगी और आज्ञा में रहेंगी और उनको सब रीति से प्रसन्न और मगन रखेंगी और जो शिक्षा उनके पुरूष बालकों के पालन और चाल-चलन के संवारने में करेंगी उनको जी से सुनेंगी और पल्ले गांठ बांधेंगी और जो उनका पुरूष कोई अनुचित बात भी कहेगा तो उसको उसकी बुराई समझा सकेंगी। अब तो स्त्रियां डर-भय से अधीन हैं, पढ़-लिखकर जी से अधीन रहेंगी।’’1
(सन् 1883 में प्रकाशित स्त्री शिक्षा पर केंद्रित उपन्यास वामा शिक्षक, नेशनल बुक ट्रस्ट, 2009, पु. 10-11)
‘ऐसी चाल से उनको शिक्षा दीजिए कि वह अपना देश और कुल-धर्म सीखें, पति की भक्ति करें और लड़कों को सहज शिक्षा दें।’ (भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा बालिया भाषण का अंश)
‘सन् 1890 में पंजाब के जालंधर में लाला मुंशीराम की मदद से लाला देवराज ने जो कन्या महाविद्यालय खोला, उस स्कूल की लड़कियां न सिर्फ रोजाना कसरत करतीं और तरह-तरह के खेल खेलती थीं, बल्कि उन्हें अध्यापिका बनने की भी ट्रेनिंग दी जाती। जो पत्र लिखने उन्हें सिखए जाते थे, उनमें नौकरी या रोजगार के लिए आवेदन करना भी शामिल होता था। स्कूल ने पाठ्यक्रम और शिक्षा देने के तरीकों में नए प्रयोग किए। देवराज ने हंसी-खेल में शिक्षा की विधि निकाली जिसमें तरह-तरह के खेलों के माध्यम से शिक्षा दी जाने लगी।1 (रस्साकशी, वीरभारत तलवार, सारांश प्रकाशन, 2002, पृ. 51)
उपर्युक्त उद्धरणों से इतना तो स्पष्ट है कि हिंदी क्षेत्र जिसे पश्चिमोत्तर प्रांत या युक्तप्रांत भी कहा जाता है, के नवजागरणकालीन अधिकांश बुद्धिजीवियों का स्त्री शिक्षा से क्या मतलब था? ये भद्रलोक स्त्रियों को उतनी ही और उसी प्रकार की शिक्षा देना चाहते थे जिनसे उनके पुरुष सत्ता को खरोंच न लगे। इसके विपरीत अन्य स्रोतों यथा बंगाल, महाराष्ट्र और पंजाब आदि में बुद्धिजीवी शब्द के सही अर्थ में स्त्रियों को शिक्षित करने में लगे थे। जिस तरह अंग्रेज भारतीयों ने इसी क्रम में स्वतंत्रता का पाठ भी पढ़ लिया, ठीक इसी प्रकार हिंदी क्षेत्र के पुरुष बुद्धिजीवी स्त्रियों को उतना ही शिक्षित करना चाह रहे थे जिससे उनका काम अधिक सुभीते से हो जाए लेकिन स्त्रियों ने शिक्षित होकर पुरुष पराधीनता के खिलाफ आवाज भी उठाना शुरू कर दिया।
एक ओर सन् 1848 ई. में ज्योतिबा फुले पहली कन्या पाठशाला खोल रहे थे जिसमें मांग और महार जैसी दलित जातियों की लड़कियों को भी शिक्षित किया जा रहा था। धीरे-धीरे फुले दंपती ने श्रृंखलाबद्ध ढंग से ऐसे स्कूल खोले वहीं हिंदी नवजागरण के अग्रदूत भारतेंदु हरिश्चंद्र लड़कियों को घर पर ही नैतिक धार्मिक शिक्षा की पक्षधरता कर रहे थे। सन् 1882 ई. में हंटर आयोग से पूछे गए सवालों के उत्तर में उन्होंने कहा, ‘ये पाठ्यपुस्तकें कई कारणों से आपत्तिजनक हैं। बड़ी लड़कियों को (लल्लू लाल लिखित) प्रेमसागर ग्रंथ पढ़ने के लिए नहीं देना चाहिए। ‘विद्यांकुर’ और ‘इतिहास तिमिरनाशक’ उनके नैतिक चरित्र का विकास नहीं कर सकते। चरित्र निर्माण (मोरलिटी) और घरेलू प्रबंध वगैरह के बारे में बताने वाली अच्छी पाठ्यपुस्तकें उनके पाठ्यक्रम में लगनी चाहिए। भारतेंदु ने आगे कहा कि इस देश (पश्चिमोत्तर प्रांत) के लोगों में अपनी लड़कियों को पब्लिक स्कूलों में भेजने में कम रुचि है।2
शिवप्रसाद जी द्वारा  तैयार की गई उक्त दोनों पुस्तकें 19वीं सदी के स्कूली पाठ्यक्रम में हिंदी में लिखी गई महत्वूपर्ण पाठ्यपुस्तकें थीं। ‘इतिहास तिमिरनाशक’ इतिहास पर आधुनिक ढंग से लिखी गई किताब थी तो ‘विद्यांकुर’ आधुनिक पदार्थ विज्ञान और समाजशास्त्र की। भारतेंदु एक ओर आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा को हिंदुस्तानियों के लिए बिलकुल जरूरी ठहराते थे, दूसरी ओर लड़कियों को इसी ज्ञान-विज्ञान से दूर रखना चाहते थे।
नवजागरणकालीन हिंदी क्षेत्र में इन बुद्धिजीवियों के अंतर्विरोध और पंचोखम को समझना आसान नहीं। ऐसा नहीं है कि इस तरह की सोच हिंदी विद्वानों की ही थी। उर्दू की स्थिति ऐसी ही थी। ‘वामाशिक्षक’ के प्रकाशन से वर्षां पूर्व 1869 ई. में डिप्टी नजीर अहमद ने ‘मिरातुल-उरूस’ नामक किताब लिखी जिसमें दो बहनों की कहानी के जरिए मुसलिम भद्रवर्गीय स्त्रियों को मां, बहन, बेटी और पत्नी के रूप में अपने परंपरागत कर्तव्यों को और भी कुशलता के साथ पूरा करने की शिक्षा दी गई है। इसी तरह की एक अन्य उर्दू पुस्तक की चर्चा अन्वेषण-धनी डॉ. वीरभारत तलवार अपनी प्रसिद्ध पुस्तक रस्साकशी में करते हैं, 19वीं सदी के मुसलिम नवजागरण की सबसे महत्वपूर्ण संस्था देवबंद दारूल उलूम से
संबंधित मौलाना अशरफ अली थानवी ने ‘बहिश्ती जेवर’ किताब लिखी जो एक ऐसा वृहद कोश था जिसमें भद्रवर्गीय मुसलिम स्त्री को धर्म, पारिवारिक कानूनों, घरेलू प्रबंध, इसलामी दवा-दारू वगैरह की शिक्षा दी गई थी। उर्दू में लिखी गई ये दोनों किताबें भद्रवर्गीय मुसिलम परिवारों में हर लड़की को उसके ब्याह के समय उपहार के रूप में दी जाती थी।3 निश्चित रूप से जहां स्त्री शिक्षा के नाम पर कुछ भी न हो, वहां यह किताबें अपने ऐतिहासिक संदर्भ में महत्वपूर्ण थीं लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि ये किताबें ‘स्त्री संहिता’ रच रही थी।
भारत में जब कभी स्त्री शिक्षा का इतिहास लिखा जाएगा, बेथून साहब का नाम अत्यंत आदर से लिया जाएगा। सन् 1949 ई. में बेथून ने कलकत्ते में बालिका विद्यालय की स्थापना की जो भारत में स्त्री शिक्षा की इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना साबित हुई। 14 मार्च 1879 ई. में यही बालिका विद्यालय बेथून कॉलेज के नाम देश का पहला कॉलेज बना, जो आज भी चल रहा है। सन् 1883 ई. में इसी कॉलेज की कांदबिनी और चंद्रमुखी बोस कलकत्ता विश्वविद्यालय की परीक्षा पास कर भारत की पहली स्नातिका बनीं। उस समय और इंगलैंड में भी किसी विश्वविद्यालय ने स्त्रियों के लिए अपने दरवाजे नहीं खोले थे। ध्यान देने की बात यह है कि बेथून साहब को बालिका विद्यालय खोलने के लिए कोई सरकारी मदद नहीं मिली थी। उन्होंने अपनी सारी जायदाद स्कूल के नाम पर दी थी। बंगाल में स्त्री शिक्षा के मामले में ईश्वरचंद्र विद्यासागर का नाम अग्रणी है। उन्होंने 1857 से 1858 तक लगभग 35 बालिका विद्यालय खोला ।
लाला देवराज ने जालंधर में जो स्कूल खोले, उसका सकारात्मक असर पूरे पंजाब पर पड़ा। वह स्कूल स्त्री शिक्षा में चमत्कार से कम नहीं था। मधु किश्वर ने उक्त स्कूल में संबंध में लिखा है कि ‘वह स्कूल सिर्फ स्कूल न रहकर एक आंदोलन बन गया था जिसने 19वीं सदी के पश्चिमी शिक्षा प्राप्त तमाम सुधारकों के स्त्री संबंधी आदर्श विक्टोरियन वूमेन्स की सीमाएं पार कर ली थी। स्त्री का नया आदर्श स्कूल की पत्रिका ‘पंचाल पंडिता’ में छपने वाली कल्पित स्त्रियों की कहानियों के जरिए पेश किया जाता था जिसमें एक ऐसी स्त्री की छवि उभारी जाती थी जो शरीर से स्वस्थ है, बुद्धिमान है और पुरूषों के साथ स्वतंत्रतापूर्वक और आत्मविश्वास के साथ बातचीत करती है।4
गौर करने की बात है कि जहां अन्य प्रांतों में बालिकाओं के नए-नए स्कूल खुल रहे थे या स्कूल खोलने की बेचैनी थी वहां संयुक्त प्रांत में ऐसे प्रयास नगण्य थे। इसके विपरीत जो भी सरकारी बालिका विद्यालय थे, वे बंद होते जा रहे थे। हंटर कमीशन को रिपोर्ट (पृ. 527) के हवाले से पता चलता है कि 1870-71 में युक्त प्रांत में लड़कियों के कुल 640 स्कूल थे जिनमें 13,853 लड़कियां पढ़ती थीं। 1875-76 तक आते-आते इनमें से 240 स्कूल बंद हो गए और 400 स्कूल रह गए जिनमें छात्राओं की संख्या घटकर 9,000 रह गई। 1880-81 तक आते-आते लड़कियों के लिए सिर्फ 160 स्कूल रह गए जिनमें 3,757 लड़कियां पढ़ती थीं। जहां 1870-71 में 13,853 लड़कियां स्कूल में पढ़ती थीं वहां 1880-81 में घटकर 3,757 लड़कियां मात्र स्कूल में नामांकित रह गईं।
युक्त प्रांत में स्त्री शिक्षा के प्रति उपेक्षा के प्रधान कारण भद्र लोगों की स्त्रियों के प्रति शुद्धतावादी दृष्टि रही है। वामा शिक्षक में जमुनादास और मथुरादास दोनों भाइयों के बीच हुए लंबे संवाद इसी दृष्टि के द्योतक हैं। इस क्षेत्र में बाल-विवाह ने स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में रोड़े अटकाए। सामान्य व्यक्ति की बात तो दूर हिंदी क्षेत्र के नवजागरणवादियों में बाल-विवाह, विधवा-विवाह और विद्यालय में जाकर लड़कियों की शिक्षा में संबंध में परंपरावादी दृष्टि बद्धमूल थी। यह संयोग मात्र नहीं है कि हिंदी क्षेत्र में आज भी स्त्री शिक्षा की हालत दयनीय है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 में स्त्री शिक्षा पर महत्वूपर्ण पहल किए गए। कदाचित पहली बार इस नीति में कहा गया कि शिक्षा का उपयोग महिलाओं के सामाजिक दर्जे में बुनियादी परिवर्तन लाने के लिए एक साधन के रूप में किया जाएगा। अतीत से चली आ रही विकृतियों को खतम करने के लिए महिलाओं के पक्ष में एक स्पष्ट तयशुदा झुकाव होगा। राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था महिलां के सशक्तीकरण हेतु एक सकारात्मक हस्तक्षेप की भूमिका निभाएगी …. इस काम को कृत संकल्प होकर सामाजिक ‘इंजीनियरिंग’ के रूप में किया जाएगा। इस नीति में ‘महिलाओं की समानता हेतु शिक्षा’ वाले अंश को ठोस रूप देने के लिए सन् 1988 ई. में महिला समाख्या कार्यक्रम में यह अपेक्षा की गई थी कि महिलाएं ‘स्वयं अपनी शिक्षा हेतु नियोजन करेंगी और निगरानी भी रखेंगी ताकि ज्ञान का एक नया भंडार उन्हें उपलब्ध हो सके। अनिल सद्गोपाल के शब्दों में, ‘इस कार्यक्रम ने पितृसत्तात्मक ढांचों, मूल्यों और तयशुदा भूमिकाओं पर सवाल खड़े किए और लैंगिक संबंधों की असमानता के ईश्वरीय देन होने के विचार को नकारा। उसमें यह भी जोर दिया गया कि (पुरुष के) अधीनस्थ रहने की विचार की वैधानिकता को सामूहिक स्तर पर अस्वीकार कर दिया जाए।24
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में स्त्री शिक्षा की महत्ता तो स्वीकारी गई लेकिन व्यावहारिक रूप से स्त्री शिक्षा जमीनी हकीकत बनकर नहीं उभर पाई है। वसतुतः समाज के पितृसत्तात्मक ढांचे को तोड़े वगैर लिंग-समता तक नहीं पहुंचा जा सकता। यह संभव ही नहीं है कि महिलां की सामाजिक हैसियत यथास्थित बनी रहे और लड़कियों को समान गुणवत्ता वाली शिक्षा उपलब्ध हो जाए।
प्राचीन काल में अंधविश्वास ने स्त्री शिक्षा में बाधा डालने का काम किया। यहां तक कि ब्रिटिश काल में भी शिक्षा में लड़कियों की सीमित हिस्सेदारी के कारणों के बारे में एडम राजशाही में शिक्षा संबंधी रिपोर्ट के बारे में कहते है, ‘कहा जाता है कि अधिकांश हिंदू परिवारों में एक अंधविश्वास है, विशेष तौर पर स्त्रियों में, जिसे पुरुष समाप्त करने की कोशिश नहीं करते, कि पढ़ी-लिखी लड़की शादी के तुरंत बाद विधवा हो जाती हैं… मुसलमानों में भी लड़कियों की पढ़ाई के बारे में यही बात कही जाती है, और इसलिए चाहते हुए भी वे अपने बच्चों को शिक्षा नहीं दे पाते।25
‘स्त्री को स्त्री बनाना’ उसे उसकी शिक्षा से वंचित करना है। तात्पर्य यह कि अधिकांश स्त्रीवादी विद्वान यह स्वीकार करते हैं कि स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है। स्त्री पैदा तो एक मनुष्य के रूप में होती है लेकिन उसे ठोक-पीटकर एक ‘अच्छी लड़की’ बनाने की कबायद चार-पांच वर्ष की उम्र से ही शुरू हो जाती है। उसकी इस पुनर्रचना में शिक्षा हाशिए पर होती है। आज की तारीख में भी उत्तर भारत की अधिकांश लड़कियों को उसके विवाह के लिए पढ़ाया जाता है, कारण आजकल के लड़के को शिक्षित लड़की की तलाश है। लड़की की इस पुनर्रचना की प्रक्रिया अत्यंत गंभीर और जटिल है। शिक्षाविद कृष्ण कुमार ने ‘लड़की की पुनर्रचना’ नामक अपने अत्यंत महत्वपूर्ण और गंभीर आलेख में यह सिद्ध किया है कि कोई संस्कृति किस तरह लड़की की पुनर्रचन करती है। कृष्ण कुमार के ही शब्दों में, ‘‘जब कोई लड़की चूडि़यों की विपुल रशि में से अपने हाथ दुकानदार के हाथों के सामने पेश करती है, तो वह संस्कृति के एक लंबे एजेंडा की तामील कर रही होती है। जैसे एक पत्थर किसी इमारत की दीवार में लगाए जाने से पहले अपनी जमीन में हुमसाया जाता है, लोहे के मजबूत औजारों से तोड़ा और तराशा जाता है, कुछ वही हाल बचपन और किशोर वय की लड़की का होता है। लोहे के औजार उस पत्थर के लिए हथियार हैं, जिसे दीवार में लगाया जाना है। संस्कृति की दीवार में लड़की को जमाया जाना भी लोहे जैसी निर्माण कठोरता की मांग करता है। इसके पहले कि लड़की परिवार और जाति की सुदृढ़ इमारत की मजबूती का माध्यम बन सके, उसे तोड़ा और तराशा जाना आवश्यक है। उसकी बाल्योचित स्वतत्रंता पर उतना ही निर्णायक प्रहार किया जाना जरूरी है, जितना उसकी मानवोचित स्वाधीनता पर। यह काम ममता और स्नेह से नहीं हो सकता, मगर इस काम को अंजाम देने के वास्ते परिवार और समुदाय की चौहद्दी से बाहर की जगहें भी उपयुक्त नहीं हैं क्योंकि संस्कृति का प्रजनन तो इन्हीं संस्थाओं में होना है। इस विवशता के चलते परदे की जरूरत पड़ती है, पीछे हथौड़ों के जरिए पत्थर को तोड़ने और उसे दीवार के लायक सपाट बनाने का अनवरत काम चालू रख सके। ऐसे उपयोगी परदे का विस्तार इतना होना चाहिए कि वह समाज की हर आंख में लटक जाए। हर कान में तन जाए ताकि तोड़ी-तराशी जाती लड़की की चीखें और सिसकियां न दिखाई दें, न सुनाई दें। संस्कृति का जीवन तभी तक अक्षुण्ण है, जब तक लड़की के स्वभाव के कुचले जाने और उसकी आत्मा की घुटन से कोई विचलित न हो, न पिता, न मां। विचलन हो तो यदा-कदा और क्षणिक, जैसा कन्यादान के समय होता है और उचित, अस्थायी व सहनीय बना रहता है। अंततः लड़की टूट जाए। उसकी पुनर्रचना हो जाए-एक बच्चे से बदलकर एक संज्ञाहीन मशीन में, जिसके कुछ उपयोग सामाजिक हों, कुछ जैविक। यह भी जरूरी है कि इस आमूल पुनर्रचना के बाद वह अपने वजूद की क्षणिकता को जेहन में उतार ले, एक समूची मनुष्य होने की स्वाभाविक स्मृति से उबर जाए। चूड़ी की तरह मायावी रंग और चमक का घेरा बन जाए।’’26
इस तरह की अमानवीय पुनर्रचना का प्रतिकार स्कूली शिक्षा, पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों में होना चाहिए। लेकिन दुर्भाग्यवश नीतियों और समितियों की अनुशंसाओं के बावजूद पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तक स्त्री की पूर्णतः सकारात्मक छवि प्रस्तुत नहीं कर पाती है। श्रीमती हंसा मेहता की अध्यक्षता में महिला शिक्षा के लिए स्थापित कमेटी की सिफारिश ध्यान देने योग्य है, ‘लोकतांत्रिक सामजवादी समाज में शिक्षा व्यक्तिगत क्षमताओं, दृष्टिकोणों और रुचियों से संबंधित होगी न कि लिंगभेद से। अतः ऐसे किसी भी समाज में पाठ्यक्रम में लिंग-आधारित विभाजन की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती।27 इस सिफारिश को स्वीकार करते हुए कोठारी कमीशन ने दो टूक कहा, ‘हम कक्षा दस तक सभी विद्यार्थियों के लिए समान पाठ्यक्रम का प्रस्ताव रखते हैं।28 लेकिन राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2005 के अंतर्गत प्रकाशित एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों को छोड़कर अधिकांश पाठ्यपुस्तकों का अध्ययन करने के पश्चात् शोधकर्त्ता अजय गुप्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि कोठारी कमीशन द्वारा लिंग आधारित भेदभाव को दूर करने का सुझाव मात्र सुझाव ही रहा। तमाम उत्तरवर्त्ती प्रयत्नों के बावजूद आज भी पाठ्यपुस्तकों में सामान्यतः स्त्री को उसकी परंपरागत छवि में ही प्रदर्शित किया जाता है।
इन पाठ्यपुस्तकों में स्त्री की छवि पुरुष की अनुगामिनी के रूप में होती है। ऐसी छवि को देखने के बाद सन् 1882 में प्रकाशित हिंदी उपन्यास वामा शिक्षक का स्मरण होना स्वाभाविक है। आज की पाठ्यपुस्तकों में स्त्रियों के प्रति जो निहितार्थ हैं, वही बामा शिक्षक का अभिधार्थ (सीधे-सीधे) हैं। अलका सरावगी की यह उक्ति सही प्रतीत होता है कि, ‘औरत के लिए सारी शिक्षा का उद्देश्य वही का वही है, ‘प्रचालित पैमाने के आधार पर सुयोग्य पत्नी, बहू और मां बनना।29
अजय गुप्ता ने राजस्थान राज्य पाठ्यपुस्तक मंडल द्वारा प्रकाशित प्राइमरी की पाठ्यपुस्तकों का अध्ययन किया है। बकौल अजय गुप्ता, ‘‘हिंदी की कक्षा 3, 4, 5 की पाठ्यपुस्तकों में हमें स्त्री/बालिका की विभिन्न पाठों में वर्णित स्थिति का जायजा लेने की कोशिशि की है। हिंदी की तीनों पाठ्यपुस्तकों में आई 47 कहानियों में केंद्रीय पात्र के रूप में 25 पुरुषों के मुकाबलों में 5 महिलाएं हैं। ग्यारह कहानियां पशु-पक्षियों पर आधारित हैं और 6 कहानियों में में केन्द्रीय पात्र के रूप में एक समूह है। यदि गहराई से देखें तो यह पता चलाता है कि जिन कहानियों में केंद्रीय पात्र के रूप में महिलाएं हैं, वे वही प्रसिद्ध परंपरागत और शायद एक लंबे समय से पाठ्यपुस्तकों में चली आ रही हैं, जैसे-लक्ष्मीबाई, कालीबाई, पन्ना धाय आदि। जिस पाठ में वर्तमान संदर्भ हैं, वहां भी नजरिया परंपरावादी और आदर्शवादी है।’’30
ऐसा नहीं है कि इन्हीं पुस्तकों में स्त्री छवि इस तरह की है बल्कि अन्य राज्यों की पाठ्यपुस्तकों में ही नहीं 2005 से पूर्व प्रकाशित एनसीईआरटी की कई पाठ्यपुस्तकों में ऐसी ही स्त्री छवि के दर्शन हो जाते हैं। अंत में निष्कर्ष स्वरूप राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 के अनुसार, ‘समानता के व्यवहार या लड़कियों के लिए समान अवसर के संबंध में औपचारिक दृष्टिकोण अपर्याप्त है। आज एक कारगर दृष्टिकोण अपनाए जाने की जरूरत है, ताकि परिणामों में समानता आए और जिसमें विविधता, विभेद और असुविधाओं का भी ध्यान रखा जाए।
समानता की दिशा में शिक्षा की महत्वूपर्ण भूमिका यह समझी जाती है कि यह सभी शिक्षार्थियों को अपने अधिकारों की दिशा में सजग बनाए ताकि वे समाज और राजनीति में अपना योगदान कर सकें। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि उन अधिकारों और सुविधाओं को तब तक लागू नहीं किया जा सकता जब तक केंद्रीय मानवीय क्षमताओं का विकास न हो जाए। इसलिए हाशिए पर ढकेल दिए गए विद्यार्थियों विशेषकर लड़कियों के लिए यह मुमकिन होना चाहिए कि वे अपने अधिकारों का दावा कर सकें और सामूहिक जीवन को रूप देने में सक्रिय भूमिका आदा कर सकें। इसके लिए शिक्षा को ऐसा होना चाहिए कि वह उनमें यह सामर्थ्य दे सके कि वे असमान समाजीकरण के नुकसान की भरपाई कर सकें और अपनी क्षमताओं का इस प्रकार विकास कर सकें कि आगे चलकर वे स्वायत्त और समान नागरिक बन सकें।’31
संदर्भ और टिप्पणियां
1. भाषाओं को पढ़ाने केक लिए पाठ्यक्रम मई 2005, एनसीईआरटी, नई दिल्ली, पृ. 7, 8.
2. अनिल सद्गोपाल, शिक्षा में बदलाव का सवाल, ग्रंथ शिल्पी (इंडिया) प्रा.लि., दिल्ली, 2000, पृ. 150-151.
3. परमेश आचार्य, देशज शिक्षा, औपनिवेशिक विरासत और जातीय विकल्प, ग्रंथ िल्पी (इंडिया) प्रा. लि., नई दिल्ली, 2008, पृ. 60.
4. उपर्युक्त, पृ. 60-61.
5. बंगाल एजुकेशन वीक, 1936, खंड-1 पृ. 71.
6. रिपोर्ट ऑफ द एजुकेशन कमीशन, 1964-66, पृ. 195.
7. न्गुगी व थ्योंगो, औपनिवेषिक मानसिकता से मुक्ति , अनुवाद- आनंदस्वरूप वर्मा, ग्रंथ षिल्पी प्रा. लि. दिल्ली, 1999, पृ. 6.
8. जेम्स ब्रिटेन, भाषा और अधिगम, ग्रंथ शिल्पी (इंडिया) प्रा. लि., दिल्ली, 2006, पृ. 133.
9. साहित्य भारती, भाग एक, (विशिष्ट कक्षा 11वीं के लिए) माध्यमिक शिक्षा मंडल,
मध्य प्रदेश द्वारा संकलित (शिक्षकों से निवेदन)
10. कृष्ण कुमार, बच्चे की भाषा और अध्यापक, नेशनल बुक ट्रस्ट, 1996, पृ. 11.
11. बाबू शिवप्रसाद, भूगोल हस्तामलक, संस्कृत प्रेस, कलकत्ता, 1859, पृ. 3.
12. वीरभारत तलवार, रस्साकशी, सारांश प्रकाशन, दिल्ली, हैदराबाद, 2002, पृ. 80.
13. गौतम नवलखा (सं.) सांच, अगस्त-सितंबर 1989; कृष्ण कुमार, हिंदी क्षेत्र की सांस्कृतिक चेतना और शिक्षा.
14. परमेश आचार्य, देशज शिक्षा, औपनिवेशक विरासत और जातीय विकल्प, ग्रंथ शिल्पी (इंडिया) प्रा. लि., दिल्ली, 2002, पृ. 24.
15. वीरभारत तलवार, रस्साकाशी, पृ. 63.
16. डॉ. मुरली मनोहर जोशी, एनसीईआरटी, 1 सितंबर 2000 (एनसीईआरटी के 40वां स्थापना दिवस समारोह में दिया गया अभिषण), पृ. 3.
17. उपुर्यक्त, पृ. 2
18. उपर्युक्त, पृ. 5.
19. हंस, सितंबर, 2003, पृ. 18.
20. उपर्युक्त, पृ. 82.
21. वीरभारत तलवार, रस्साकशी, सारांश प्रकाशनख् 142-ई, पॉकेट-4, मयूर बिहार-1, दिल्ली, 2002, पृ. 36.
22. उपर्युक्त, पृ. 42.
23. उपर्युक्त, पृ. 52.
24. अनिल सद्गोपाल, शिक्षा में बदलाव का सवाल, ग्रंथ शिल्पी (इंडिया) प्रा. लि., दिल्ली, 2000, पृ. 242.
25. जे. लनांग, ‘एडम्स रिपोर्ट आन वर्नाक्यूलर एजुकेशन इन बेंगाल एंड बिहार सबमिटेड टू गवर्नमेंट इन 1835’, पृ. 131-132 (परमेश आचार्य, देशज शिक्षा, औपनिवेशिक विरासत और जातीय विकल्प, ग्रंथ शिल्पी (इंडिया) प्रा. लि., दिल्ली, 2000, पृ. 10 से उद्धृत).
26. कृष्ण कुमार, ‘लड़की क पुनर्रचना’ तद्भव, जनवरी 2009, पृ 1, 2.
27. ‘शिक्षा विमर्श’, दिगंतर, मई 1998, जगतपुरा, जयपुर, पृ. 39.
28. उपर्युक्त.
29. राजकिशोर, ‘अपनी बेटी के लिए, स्त्री के लिए जगह से, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली (शिक्षा विमर्श, मई 1998 से उद्धृत).
30. शिक्षा विमर्श, मई 1998, दिगंतर, जयपुर, पृ. 39-40
31. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005, एनसीईआरटी, नई दिल्ली, मई 2006, पृ. 6.

(कमलानंद झा: जन्म 28 जनवरी 1968, जिला-मधुबनी, बिहार। हिन्दी आलोचना में गहरी अभिरुचि। सौ से अधिक नुक्कड़ नाटकों की प्रस्तुति एवं निर्देशन| हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं में लगातार आलोचना-लेखन। तुलसीदास का काव्य-विवेक और मर्यादाबोध (वाणी प्रकाशन), पाठ्यपुस्तक की राजनीति (ग्रन्थशिल्पी), मस्ती की पाठशाला (प्रकाशन विभाग), राजाराधिकरमण प्रसाद सिंह की श्रेष्ठ कहानियां, सं0(नेशनल बुक ट्रस्ट), होतीं बस आँखें ही आँखें (यात्री-नागार्जुन का रचना-कर्म, विकल्प प्रकाशन) आदि पुुस्तकें इनकी प्रकाशित हैं। सम्प्रति अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर के पद पर कार्यरत।)

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