समकालीन जनमत
पुस्तक

अधिग्रहण और प्रतिरोध की दास्तान

2023 में मंथली रिव्यू प्रेस से इयान आंगुस की किताब ‘द वार अगेंस्ट द कामन्स: डिसपजेशन ऐंड रेजिस्टेन्स इन द मेकिंग आफ़ कैपिटलिज्म’ का प्रकाशन हुआ । पिछले पांच सौ सालों से लोगों की जमीन और मेहनत की जो लूट जारी है उससे जूझने की गरीबों की रणनीतियों का इतिहास इस किताब में वर्णित है । पूंजीवाद का विकास लोगों को उनकी आजीविका के लिए जरूरी जमीन से बेदखल करने का इतिहास रहा है । इस बेदखली के जरिये पूरी तरह संपत्तिहीन बनाया गया मेहनतकश समुदाय अपनी आजीविका के लिए जमीन और पूंजी के मालिकान के पास काम करने को मजबूर हो गया था । सबसे पहले लेखक ने स्पष्ट किया है कि मानव अस्तित्व के लगभग समूचे कालखंड में हम सभी आत्मनिर्भर रहे हैं । इस दीर्घकाल में पड़ोसियों के साथ मिल जुलकर हम रहते थे, खेत में एक साथ काम करते थे, भोजन भी एकत्र और तैयार करते थे तथा घर, औजार और कपड़े भी खुद ही बनाते थे ।

उनके अनुसार इतिहास में अधिकांश समय ऐसा गुजरा है जब छोटे छोटे समुदायों में रहते हुए मनुष्य जाति साझी जमीन पर अन्न उपजाती थी और स्थानीय स्तर पर उसका उपभोग करती थी । इसके उलट फिलहाल हम सभी लोग दूसरों के लिए काम करते हैं । हमारा जीवन ही हमारी पगार और रोजगार पर निर्भर हो गया है । समूची उत्पादक संपदा के मालिक मुट्ठी भर कुछ व्यक्ति या कारपोरेशन हो गये हैं और उनको अपनी कार्यक्षमता की बिक्री किये बिना हमें रोटी भी नहीं मिलती । यही पूंजीवादी व्यवस्था है और हम इसके इस कदर अभ्यस्त हो गये हैं कि अब यह स्वाभाविक सा लगने लगा है । हालात ये हैं कि अन्याय और विषमता के अत्यंत कटु आलोचक भी मालिकों और नौकर, नियोक्ता और कर्मचारी के विभाजन के बारे में शायद ही कभी सवाल उठाते हैं । इस मामले में अक्सर हम भूल जाते हैं कि पूंजीवाद की उम्र कुछ सौ सालों की है जबकि मनुष्य का इतिहास तीन लाख साल का है । और कुछ नहीं तो मेसोपोटामिया की सभ्यता भी कम से कम छह हजार साल पुरानी है ।
यह तो सही है कि पहले के समाजों में भी पगार पर कुछ लोग काम करते रहे हैं लेकिन पगारजीवी श्रमिक की ऐसी सार्वभौमिक मौजूदगी विगत कुछेक सौ सालों का ही कारनामा है । इस भारी बदलाव को मानव समाज पर अतिशय बर्बरता और निर्दयता के साथ थोपा गया है । मानव स्वभाव के साथ इसका कोई लेना देना नहीं है । इस नयी व्यवस्था की विजय के लिए लोगों की आत्मनिर्भरता को समाप्त करना बहुत जरूरी था । इस खात्मे की शुरुआत 1400 में इंग्लैंड से हुई । इसके लिए जमीन के साझा इस्तेमाल की रवायत को खत्म किया गया और संसाधनों पर अब तक के साझा अधिकार के जरिए गरीबों की भी जीवनरक्षा करने में सक्षम भरण पोषण की व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया । भोजन के लिए शिकार या मछली मारने, जंगलात से लकड़ी या वनोपज एकत्र करने, फसल की कटाई के बाद बचा अन्न बीनने और चरागाहों में ढेरों गायें चराने के अधिकार छीन लिये गये और धरती की समस्त संपदा के इस्तेमाल का अधिकार चंद मालिकान तक सीमित रह गया ।
इस तरह जोर जबर्दस्ती और छल कपट से साझी संपदा का निजीकरण किया गया । साझे की जमीन को छोटे छोटे निजी टुकड़ों में बांटकर उसको चारदीवारी से घेर दिया गया और आम लोग अपना जीवन चलाने के लिए इन मालिकान के पास काम करने के लिए मजबूर कर दिये गये । अधिकांश लोगों को उनकी आजीविका के साधनों से जबरन अलगा दिया गया तथा श्रम के बाजार में पूरी तरह अधिकारविहीन अवस्था में सर्वहारा के बतौर अरक्षित और खुला छोड़ दिया गया । कृषि उत्पादक जनता की जमीन से बेदखली इस समूची प्रक्रिया का आधार बनी ।
इस तरह नयी सामाजिक व्यवस्था का स्थायी लक्षण हुआ सदियों से लोगों की आजीविका का साधन रही जमीन से उनका अलगाव और जिंदा रहने के लिए अपनी मेहनत को दूसरों के हाथ बेचना । पूंजी पर आधारित संबंध को सर्वव्यापी होने के लिए श्रम और स्वामित्व के बीच सम्पूर्ण अलगाव परमावश्यक था । पूंजीवादी उत्पादन पद्धति में इस अलगाव को बरकरार रखने के साथ और भी बड़े पैमाने पर पुनरुत्पादित किया जाता है । इसी प्रक्रिया को कार्ल मार्क्स ने अपने ग्रंथ ‘पूंजी’ के पहले अध्याय में आदिम पूंजी संचय कहा है । दुनिया के अलग अलग देशों में इस प्रक्रिया को अलग अलग रूपों में संचालित किया गया ।
बेदखली की यह प्रक्रिया तो आज भी जारी है लेकिन लेखक ने इस किताब में खेती से कामगार की बेदखली की मूल प्रक्रिया को ही देखा है । उनका मत है कि कार्ल मार्क्स से पहले इस बात पर किसी ने इतनी गहराई से न तो शोध किया था और न ही इस तरीके से इसकी व्याख्या की थी । पूंजीवाद के उदय में जिसकी भी दिलचस्पी हो उसके लिए मार्क्स का यह विवरण देखना अनिवार्य है । उनके लेखन के बाद से बहुतेरी नयी सूचनाएं भी हासिल हुई हैं । इन नयी सूचनाओं की रोशनी में लेखक ने उस प्रक्रिया को फिर से देखा है । इसमें उनका जोर बेदखली से अधिक उसके प्रतिरोध पर रहा है जिसमें कामगारों ने बेदखली से संघर्ष भी किया और अपनी जिंदगी को दूसरों के पास सौंपने की जगह उस पर काबू भी पाया ।
बेदखली की यह प्रक्रिया कभी एकतरफ़ा नहीं रही । इसमें शुरू से ही तीक्ष्ण वर्ग संघर्ष के तत्व मौजूद रहे थे । 1400 से 1850 तक की अवधि का ही वर्णन इस किताब में किया गया है । इसके पहले भाग में 1400 से 1660 तक बेदखली और प्रतिरोध की घटनाओं पर ध्यान केंद्रित किया गया है । इसमें पूंजीवाद के आकार लेने के साथ जुड़ी घेरेबंदी और बेदखली की पहली लहर से लेकर इंग्लैंड की क्रांति तक का विवेचन किया गया है । शुरू में साझा संपत्ति की व्यवस्थित चोरी और उसके प्रतिरोध के वर्णन के साथ ही भूमिहीन मजदूर वर्ग के उदय और सरकार की ओर से श्रम अनुशासन लादने की प्रक्रिया को भी इसमें उजागर किया गया है । इस दौरान वैकल्पिक समाज बनाने के एक सपने का जिक्र भी इस भाग में हुआ है ।
दूसरे भाग में 1660 से 1860 तक जारी घेरेबंदी और अधिग्रहण की दूसरी लहर का विश्लेषण हुआ है जिसमें अफ़्रीका के गुलामों की मुफ़्त की मेहनत और भारत की औपनिवेशिक लूट ने निर्णायक भूमिका निभायी । दूसरी ओर जमींदारों और व्यापारियों ने राजसत्ता पर कब्जा जमाकर शेष बचे लोगों को भी उनकी संपत्ति से जबरन बेदखल किया । गरीबों को भोजनार्थ अन्न उपजाने या शिकार करने पर पाबंदी थी । पहली लहर में जो प्रक्रिया इंग्लैंड में पूरी की गयी थी उसे इंग्लैंड के बाद स्काटलैंड में भी पूरा कर लिया गया ।
किताब के तीसरे भाग में सदियों से जारी इस बेदखली के नताइज की चर्चा है । अध्याय 10 में इस दावे की छानबीन की गयी है कि घेरेबंदी की प्रक्रिया से उत्पादन बढ़ा, भुखमरी कम हुई और औद्योगिक क्रांति को मदद मिली । 11वें अध्याय में दिखाया गया है कि मालिकों ने जान बूझकर भुखमरी पैदा की ताकि खेतिहर मजदूरों की अबाध आपूर्ति जारी रहे । 12वें अध्याय में मार्क्स और एंगेल्स के क्रांतिकारी कार्यक्रम में देहात और शहर के बीच भेद की समाप्ति की प्रमुखता को रेखांकित गया है । अध्याय 13 में वर्तमान समय में बेदखली और प्रतिरोध की निरंतरता का वर्णन है ।
किताब के परिशिष्टों में सबसे पहले मार्क्स की आदिम पूंजी संचय की धारणा को स्पष्ट किया गया है । उसके बाद रूसी किसान कम्यूनों की क्रांतिकारी सम्भावना के बारे में मार्क्स-एंगेल्स की राय का उल्लेख और विश्लेषण हुआ है । फिर इस समय जारी बेदखली और घेरेबंदी का विरोध करने वाले किसान संगठनों का घोषणापत्र प्रस्तुत किया गया है । इसके बाद किताब में वर्णित घटनाओं की कालानुक्रमणिका प्रस्तुत की गयी है ।
लेखक के मुताबिक किताब में वर्णित यह कहानी पूंजीवाद के उदय के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है । कामगार लोगों को उनकी आजीविका के सारे साधनों, खासकर जमीन से डकैती, हिंसा और छल के हथियारों से निर्मतापूर्वक बेदखल किया गया । गरीबों को खेतों, खदानों और कारखानों में काम करने के लिए मजबूर करने हेतु भुखमरी के अमानवीय अस्त्र का इस्तेमाल किया गया । गरीब लोग इस धोखाधड़ी और जबर्दस्ती को सिर झुकाकर बर्दाश्त करने के मुकाबले उससे सभी सम्भव हथियारों को लेकर लड़े । इस तरह जबरन बेदखली और संघर्ष की यह समूची कहानी मार्क्स के शब्दों में खून और आग की इबारत से लिखी हुई है ।

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