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फायरब्रांड :एक और पॉइंट ऑफ व्यू प्रस्तुत करती फ़िल्म

अम्बरीश त्रिपाठी


प्रियंका चोपड़ा के प्रोडक्शन और अरुणाराजे के निर्देशन में बनी फिल्म ‘फायरब्रांड’ नेटफ्लिक्स पर फ़रवरी में प्रदर्शित हुई थी।

मराठी फ़िल्म ‘धग’ के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त अभिनेत्री उषा जाधव की बेहतरीन अदाएगी और बेहद सधी हुई कहानी एक क्षण के लिए भी आंखों को स्क्रीन से हटने नहीं देती।

बिना किसी गाने के बनी यह फ़िल्म अपनी दमदार कहानी और कहने के रोचक आंतरिक लय से किसी नदी सी कुछ उतार-चढ़ाव के साथ दर्शकों के मस्तिष्क पर अपनी छाप छोड़ती आगे बढ़ती है।

नाम के अनुरूप इस फिल्म में वकील सुनंदा           (उषा जाधव) के माध्यम से स्त्री अधिकारों के लिए संघर्ष का तीव्र आक्रोश दिखा है, पर कहीं ज़्यादा ये स्वर सुनंदा के मौन में मुखरित हुआ है जो एक शोले के रूप में उसके समूचे अस्तित्व को बार बार जमींदोज करना चाहता है।

सुनंदा का प्रेमी है माधव (गिरीश कुलकर्णी), बचपन में एक दारूबाज वहशी ने स्कूल से लौटते वक्त सुनंदा का बलात्कार कर दिया था, इस बात को जानते हुए भी सुनंदा के इनकार के बावजूद माधव उससे शादी करता है।
पति के स्नेहासिक्त आँखों से मुहब्बत और अपने गर्दन में स्पॉन्डिलाइटिस का दर्द लेकर फैमिली कोर्ट रूम में पहुँचने वाली सुनंदा अपने अकाट्य तकरीरों से औरतों पर ज़ुल्म करने वालों की खाट खड़ी कर देती है।

चॉल में रहने वाली गरीब पीड़िता हो या धन्ना सेठों के घर की प्रताड़ित स्त्री, अगर वे सही हैं तो सुनंदा उन्हें न्याय दिलाती है।

आग और पानी के संतुलन के सिद्धांत से बुना हुआ सुनंदा का चरित्र कहीं मीठे गहरे झील सी आश्वस्ति देता है तो कहीं उस झील के नीचे से उठने वाले ज्वालामुखी के शोलों सा विस्फोटक हो जाता है।

स्त्री मुद्दों को लेकर सामान्य सी लगने वाली फ़िल्म तब खुलने लगती है जब सुनंदा और माधव के नितांत निजी क्षणों के आड़े सुनंदा का दुखदायी अतीत आ जाता है।

हमारे समाज में प्रायः बलात्कार पीड़िता के सामाजिक -पारिवारिक नज़रिए पर ही विचार किया जाता है। ‘सरवाइवर ‘ की मानसिक टूटन तो कहीं विमर्श का मुद्दा ही नहीं होता। इस मामले में यह फ़िल्म बेजोड़ है।

निर्देशक ने इस मानसिक टूटन की तीव्रता इस कोण से और बढ़ा दी कि ख़ुद दूसरी स्त्रियों को न्याय दिलाने के लिए संकल्पित सुनंदा अपने निजी ज़िंदगी में टूटती जा रही है।

अपने पति के ‘सेक्सुअल डिजायर ‘ को न पूरा कर पाने की आत्मग्लानि में वो घुलती जा रही है। मनोचिकित्सक से लगातार उपचारों के बाद भी सामान्य नहीं हो पाती। पति से तलाक़ की बात कहने पर माधव कहता है” जहाँ सच्चा प्यार होता है वहाँ सेक्स नहीं और जहां सेक्स होता है वहाँ सच्चा प्यार नहीं।”

इसके बाद माधव कुछ दिनों के लिए सुनंदा से दूर चला जाता है। प्यार और सेक्स के बीच अपना खुदा तलाश रहे इस फ़िल्म में एक नया मोड़ तब आता है जब दिव्या पटेल (राजेश्वरी सचदेव)अपने पति आनंद (सचिन खेडेकर) के ख़िलाफ़ तलाक़ का केस लेकर सुनंदा के पास पहुँचती है।

इस प्रसंग के माध्यम से निर्देशक ने पति-पत्नी संबंधों में ईगो(अहं) के प्रश्न को उठाया है।दिव्या अपने विकलांग बच्चे का ज़िम्मेदार भी अपने पति को मानती है।
दिव्या का केस सुनंदा हार जाती है ।गुस्से में दिव्या सुनंदा के साथ बहुत बदतमीजी करती है।

फ़िल्म का क्लाइमेक्स बहुत स्तब्ध कर देने वाला है।माफ़ी मांगने आया दिव्या का पति सुनंदा के साथ फ्रेंडली हो जाता है। खेल खेल में निर्देशक ने सुनंदा के दलित जाति और सांवले रंग के कारण समाज में होने वाले भेदभाव को बड़ी बारीकी से उजागर किया है।

सुनंदा के गर्दन की मालिश करने के दरम्यान दोनों के भावनाओं का ज्वार उफ़ान खाता है और उनके बीच शारीरिक संबंध क़ायम हो जाता है।इस जादुई प्रेमालाप में सुनंदा को उसके वीभत्स अतीत से छुटकारा मिल जाता है।

अगले दिन माधव देखता है सुनन्दा के हाव भाव बदले हुए हैं। सुनंदा बिना किसी ग्लानि भावना के बीती रात के किस्से को बताती है कि कैसे वो अपने त्रासदायक अतीत से मुक्त हो गई।

तुम्हारी खुशी में ही मेरी खुशी है कहकर माधव उसे अपना लेता है।

अपने क्लाइमेक्स से फ़िल्म नैतिक दृष्टि से आम दर्शक के मन में कुछ सवाल खड़े करता है। मसलन ,दूसरी औरत के साथ सोने को आधार बनाकर पत्नियों को तलाक़ दिलाने वाली सुनंदा का अपने समर्पित और वफ़ादार पति के प्रति कुछ दायित्व नहीं बनता क्या?

शुरू से ही फ़िल्म स्त्री- पुरूष संबंधों में वफ़ादारी को भी एक महत्वपूर्ण केंद्र की तरह प्रस्तुत करती है।अपने सुख को भूलकर पत्नी को हर तरह से सपोर्ट करने वाले माधव के प्रति किये गए अन्याय को न देखना एक ग़लत को दूसरे ग़लत द्वारा सही करने का भ्रमित प्रयास नहीं तो और क्या है??
दरअसल फ़िल्म का ताना बाना नायिका सुनंदा के ही इर्द-गिर्द बुना गया है।जिसमें वो एक तरफ बाहरी समाज में फैली विसंगतियों से टकरा रही है तो दूसरी तरफ वो बचपन में ही बलात्कार के दंश से आक्रांत अपने ही वज़ूद से अनवरत संघर्ष रत है।

जिसे असामान्य मनोविज्ञान की भाषा में उत्तर आघातीय तनाव विकृति की श्रेणी में रखा जा सकता है। वह आत्मघात, दुनिया से भागने या ‘ मुंदहु आँख कतहुँ कछु नाहिं’ जैसा पलायनवादी कदम न उठाकर शादी करके जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रतिबद्ध होती है।

वह जानती है कि उसकी समस्या मानसिक है और इस बीमारी को दूर करने के लिए वो मनोचिकित्सक की हर सलाह मानती है।

समझदार सामाजिक व्यवहारिकता इस बात पर जोर देती है कि बुरी बातों को भुला दो, आगे बढ़ो,पर इससे समस्या कुछ देर के लिए टल भले जाएगी पर दूर नहीं होगी।

इसीलिए चिकित्सक की सलाह से सुनंदा बार बार उस वारदात को लिखती है ,शीशे के सामने पढ़ती है और हर बार ये सब करते हुए वो एक बार फिर बलात्कार की उसी क्रूर मानसिक यंत्रणा से गुजरती है।

यंत्रणा ऐसी कि पति भी उसको देख सुन नहीं पाता और हट जाता है , पर सुनंदा उस पीड़ा से लगातार जूझती है।
इस प्रकार अगर हम सामान्य मनोविज्ञान के हवाले से देखें तो यहाँ सुनंदा के जीवन का प्रश्न मूल मुद्दा है, नैतिकता- अनैतिकता का प्रश्न द्वितीयक है।

यदि हम सुनंदा को मानसिक रूप से अस्वस्थ स्वीकार करें(जैसा कि निर्देशक का स्पष्ट मानना है) तो हम माधव की तरह यह समझ पाएंगे कि अपने दुखद अतीत से छुटकारा पाने के क्रम में सुनंदा द्वारा किया गया कृत्य सोचसमझ कर बनाया गया अर्थात संज्ञेय अनैतिक संबंध नहीं है।

रही बात माधव के प्रेम की तो सुनंदा ने हमेशा उसे सम्मान दिया। साथ देने की पूरी कोशिश की, पर अगर हम बारीकी से फ़िल्म पर गौर करें तो पाएंगे कि माधव का प्रयास उसको सुख देने, देखभाल करने तक का रहा।

कभी उसने आनंद की तरह उसके दुखों में हिस्सेदार बनने की कोशिश नहीं की।फ़िल्म के क्लाइमेक्स सीन में आनंद और सुनंदा की बातचीत अपने अपने दुखों को शेयर करने से ही शुरू होती है।’ दुःख ने दुःख से बात की ‘ वाले शैली में वो पहले दुःख के सहचर बनते हैं फिर प्रेम में उसकी परिणति हुई जहाँ प्रेम और सेक्स दोनों ही एक दूसरे से मिलकर पूर्णता पाते हैं। फिर भी मैं ये बात जोर देकर कहना चाहता हूं कि मानसिक पीड़ा दूर करने के प्रस्तुत तरीके को एक अप्रत्याशित घटना मात्र मानना चाहिए कोई सिद्ध विधि नहीं।
किसी महिला निर्माता, महिला निर्देशक और दमदार महिला नायिका के तालमेल से सजी इस फ़िल्म ने न केवल स्त्री मन को सामाजिक- आर्थिक – मनोवैज्ञानिक धरातल पर रखकर परखा है वरन बहुत कम बजट में नेटफ्लिक्स जैसे माध्यमों से सशक्त सामाजिक हस्तक्षेप भी किया है।

(समीक्षक अम्बरीश त्रिपाठी, सहा. प्राध्यापक हिंदी
D-,503 B Block, तालपुरी कॉलोनी भिलाई, दुर्ग
7489164100)

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