समकालीन जनमत
जनमतशख्सियत

मानवीय मूल्यों और अधिकारों के कवि राजेश जोशी

विवेक निराला


18 जुलाई, राजेश जोशी का जन्मदिनहै। राजेश जोशी आज की कविता के उन महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षरों में हैं, जिनसे समकालीन कविता की पहचान बनी है।

18 जुलाई, 1946 को मध्य प्रदेश के नरसिंहगढ़ में जन्मे जोशी ‘एक दिन बोलेंगे पेड़’, ‘मिट्टी का चेहरा’, ‘नेपथ्य में हंसी’ और ‘दो पंक्तियों के बीच’ और जिद जैसे काव्य संग्रहों के अलावा मायकोवस्की की कविताओं का अनुवाद ‘पतलून पहना आदमी’ और भृतहरि की कविताओं का अनुवाद ‘धरती का कल्पतरु’ के लिए खासे चर्चित रहे हैं। साल 2002 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित राजेश जोशी मानवीय मूल्यों और अधिकारों के कवि हैं।

राजेश जोशी ने 80 के दशक की कविता और कवियों में अपना स्थान सुरक्षित कर लिया है। मैं अगर 80 के दशक का चतुष्टय बनाऊँ तो राजेश जोशी, अरुण कमल, मंगलेश डबराल और वीरेन डंगवाल होंगे। इसमें भी
राजेश जोशी ने अपना होना सिद्ध किया है।

संवेदनशीलता और जनपक्षधरता उनकी कविताओं का सहज गुण है। 90 के दशक में समाजवादी वटवृक्ष सोवियत यूनियन के विघटन के साथ ही एकध्रुवीय हो चुके विश्व और उदारीकरण, निजीकरण तथा बाजारवाद की आँधी में मनुष्यता तिनकों की तरह बिखरती गयी। इस क्षत-विक्षत मनुष्यता को बचाने की कोमल ज़िद से राजेश जोशी का काव्य-संसार बनता है।

राजकमल से प्रकाशित अपने काव्य संकलन ‘ज़िद’ की भूमिका में उन्होंने लिखा है कि आग, पहिया और नाव की ही तरह भाषा भी मनुष्य का एक अद्वितीय अविष्कार है! इस अर्थ में और भी अद्वितीय कि यह उसकी देह और आत्मा से जुडी है!

भाषा के प्रति हमारा व्यवहार वस्तुतः जनतंत्र और पूरी मनुष्यता के प्रति हमारे व्यवहार को ही प्रकट करता है!

हम एक ऐसे समय से रूबरू हैं जब वर्चस्वशाली शक्तियों की भाषा में उद्दंडता और आक्रामकता अपने चरम पर पहुँच रही है! वे कहते हैं- “बाज़ार की भाषा ने हमारे आपसी व्यवहार की भाषा को कुचल दिया है। विज्ञापन की भाषा ने कविता से बिम्बों की भाषा को छीनकर फूहड़ और अश्लीलता की हदों तक पहुंचा दिया है। इस समय के अंतर्विरोधों और विडम्बनाओं को व्यक्त करने और प्रतिरोध के नए उपकरण तलाश करने की बेचैनी हमारी पूरी कविता की मुख्य चिंता है। उसमें कई बार निराशा भी हाथ लगती है और उदासी भी लेकिन साधारण जन के पास जो सबसे बड़ी ताकत है और जिसे कोई बड़ी से बड़ी वर्चस्वशाली शक्ति और बड़ी से बड़ी असफलता भी उससे छीन नहीं सकती, वह है उसकी ज़िद। मेरी इन कविताओं में यह शब्द कई बार दिखाई देगा। शायद यह जिद ही है जो इस बाजारू समय में भी कवि को धुंध और विभ्रमों के बीच लगातार अपनी जमीन से विस्थापित किए जा रहे मनुष्य की निरंतर चलती लड़ाई के पक्ष में रचने की ताकत दे रही है। सबसे कमजोर रोशनी भी सघन अँधेरे का दंभ तोड़ देती है। इसी उम्मीद से ये कविताएँ यहाँ हैं।”

मनुष्य के जीवन के तमाम संकटों और खतरों पर बात करते हुए वे अपनी कविताओं में मनुष्य के बेहतर जीवन का एक विराट स्वप्न रखते हैं।वे ऐसे यथार्थ के आग्रही कवि हैं कि जो जैसा है उसे तुरत-फुरत कविता में बदल देते हैं और इसे कविता का जादू कहते हैं।

हमारा समय त्वरा का समय है। सब हड़बड़ी में हैं। एक अजीब सी आपाधापी और जल्दबाजी दिखायी देती है। एक कवि कहता है कि ‘दुनिया रोज़ बनती है’।

इस रोज बनती दुनिया के दृश्य भी रोज़ बदलते रहते हैं। इसमें आम आदमी की तकलीफें और उसकी बेचैनी बढ़ती ही जाती है और सत्ता का सर्वग्रासी रूप भी और हिंसक होता जाता है। राजेश जोशी की कविताएं वस्तुतः इसके प्रतिरोध की कविताएं हैं।

आइए आज उनके जन्मदिन पर उनकी कुछ कविताओं से गुज़र कर उन्हें काव्यात्मक बधाई देते हैं-

मारे जाएँगे
**********

जो इस पागलपन में शामिल नहीं होंगे, मारे जाएँगे

कठघरे में खड़े कर दिये जाएँगे
जो विरोध में बोलेंगे
जो सच-सच बोलेंगे, मारे जाएँगे

बर्दाश्‍त नहीं किया जाएगा कि किसी की कमीज हो
उनकी कमीज से ज्‍यादा सफ़ेद
कमीज पर जिनके दाग नहीं होंगे, मारे जाएँगे

धकेल दिये जाएंगे कला की दुनिया से बाहर
जो चारण नहीं होंगे
जो गुण नहीं गाएंगे, मारे जाएँगे

धर्म की ध्‍वजा उठाने जो नहीं जाएँगे जुलूस में
गोलियां भून डालेंगी उन्हें, काफिर करार दिये जाएँगे

सबसे बड़ा अपराध है इस समय निहत्थे और निरपराधी होना
जो अपराधी नहीं होंगे, मारे जाएँगे।

बच्‍चे काम पर जा रहे हैं
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कोहरे से ढँकी सड़क पर बच्‍चे काम पर जा रहे हैं
सुबह सुबह
बच्‍चे काम पर जा रहे हैं
हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
भयानक है इसे विवरण के तरह लिखा जाना
लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह

काम पर क्‍यों जा रहे हैं बच्‍चे?

क्‍या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें
क्‍या दीमकों ने खा लिया हैं
सारी रंग बिरंगी किताबों को
क्‍या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने
क्‍या किसी भूकंप में ढह गई हैं
सारे मदरसों की इमारतें
क्‍या सारे मैदान, सारे बगीचे और घरों के आँगन
खत्‍म हो गए हैं एकाएक
तो फिर बचा ही क्‍या है इस दुनिया में?
कितना भयानक होता अगर ऐसा होता
भयानक है लेकिन इससे भी ज्‍यादा यह
कि हैं सारी चीज़ें हस्‍बमामूल

पर दुनिया की हज़ारों सड़कों से गुजते हुए
बच्‍चे, बहुत छोटे छोटे बच्‍चे
काम पर जा रहे हैं।

वली दकनी
************

बात इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई के शुरूआती दिनों की है
जब बर्बरता और पागलपन का एक नया अध्याय शुरू हो रहा था
कई रियासतों और कई क़िस्म की सियासतों वाले एक मुल्क में
गुजरात नाम का एक सूबा था
जहाँ अपने हिन्दू होने के गर्व और मूर्खता में डूबे हुए क्रूर लोगों ने —
जो सूबे की सरकार और नरेन्द्र मोदी नामक उसके मुख्यमन्त्री के
पूरे संरक्षण में हज़ारों लोगों की हत्याएँ कर चुके थे
और बलात्कार की संख्याएँ जिनकी याददाश्त की सीमा पार कर चुकी थीं

— एक शायर जिसका नाम वली दकनी था का मज़ार तोड़ डाला !

वह हिन्दी-उर्दू की साझी विरासत का कवि था
जो लगभग चार सदी पहले हुआ था और प्यार से जिसे
बाबा आदम भी कहा जाता था।

हालाँकि इस कारनामे का एक दिलचस्प परिणाम सामने आया
कि वह कवि जो बरसों से चुपचाप अपनी मज़ार में सो रहा था
मज़ार से बाहर आ गया और हवा में फ़ैल गया !
इक्कीसवीं सदी के उस शुरूआती साल में एक दूसरे कवि ने
जो मज़ार को तोड़ने वालो के सख्त ख़िलाफ़ था
किसी तीसरे कवि से कहा कि
मैं दंगाइयों का शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ
कि उन्होंने वली की मज़ार की मिट्टी को
सारे मुल्क की मिट्टी, हवा और पानी का
हिस्सा बना दिया !

अपने हिन्दू होने के गर्व और मूर्खता में डूबे उन लोगों को
जब अपने इस कारनामे से भी सुकून नही मिला
तो उन्होंने रात-दिन मेहनत-मशक़्क़त करके
गेंदालाल पुरबिया या छज्जूलाल अढाऊ जैसे ही
किसी नाम का कोई एक कवि और उसकी कविताएँ ढूँढ़ निकलीं

और उन्होंने दावा किया कि वह वली दकनी से भी अगले वक़्त का कवि है
और छद्म धर्मनिरपेक्ष लोगों के चलते उसकी उपेक्षा की गई
वरना वह वली से पहले का और ज़्यादा बड़ा कवि था !
फिर उन लोगों ने जिनका ज़िक्र ऊपर कई बार किया जा चुका है
कोर्स की किताबों से वो सारे सबक़ जो वली दकनी के बारे में लिखे गए थे
चुन-चुनकर निकाल दिए ।

यह क़िस्सा क्योंकि इक्कीसवीं सदी की भी पहली दहाई के शुरूआती दिनों का है
इसलिए बहुत मुमकिन है कि कुछ बातें सिलसिलेवार न हों
फिर आदमी की याददाश्त की भी एक हद होती है !

और कई बातें इतनी तकलीफ़देह होती है कि उन्हें याद रखना
और दोहराना भी तकलीफ़देह होता है
इसलिए उन्हें यहाँ जान-बूझकर भी कुछ नामालूम-सी बातों को छोड़ दिया गया है
लेकिन एक बात जो बहुत अहम है और सौ टके सच है
उसका बयान कर देना मुनासिब होगा
कि वली की मज़ार को जिन लोगों ने नेस्तनाबूत किया
या यह कहना ज्यादा सही होगा कि करवाया
वे हमारी आपकी नसल के कोई साधारण लोग नहीं थे
वे कमाल के लोग थे
उनके सिर्फ़ शरीर ही शरीर थे
आत्माएँ उनके पास नहीं थीं
वे बिना आत्मा के शरीर का इस्तेमाल करना जानते थे
उस दौर के क़िस्सों में कहीं-कहीं इसका उल्लेख मिलता है
कि उनकी आत्माएँ उन लोगों के पास गिरवी रखी थी,
जो विचारों में बर्बरों को मात दे चुके थे
पर जो मसखरों की तरह दिखते थे
और अगर उनका बस चलता तो प्लास्टिक सर्जरी से
वे अपनी शक्लें हिटलर और मुसोलिनी की तरह बनवा लेते !

मुझे माफ़ करें मैं बार-बार बहक जाता हूँ
असल बात से भटक जाता हूं
मैं अच्छा क़िस्सागो नहीं हूं
पर अब वापस मुद्दे की बात पर आता हूं

कोर्स की किताबों से वली दकनी वाला सबक़
निकाल दिए जाने से भी जब उन्हें सुकून नहीं मिला
तो उन्होंने अपने पुरातत्वविदों और इतिहासकारों को तलब किया
और कहा कि कुछ करो, कुछ भी करो
पर ऐसा करो
कि इस वली नाम के शायर को
इतिहास से बाहर करो !

यक़ीन करें मुझे आपकी मसरूफ़ियतों का ख़्याल है
इसलिए उस तवील वाकिए को मैं नहीं दोहराऊँगा
मुख़्तसर यह कि
एक दिन….!

ओह ! मेरा मतलब यह कि
इक्कीसवीं सदी की पहली दहाई के शुरूआती दिनों में एक दिन
उन्होंने वली दकनी का हर निशान पूरी तरह मिटा दिया
मुहावरे में कहे तो कह सकते हैं
नामोनिशान मिटा दिया !

उन्ही दिनों की बात है कि एक दिन

जब वली दकनी की हर याद को मिटा दिए जाने का
उन्हें पूरा इत्मीनान हो चुका था
और वे पूरे सुकून से अपने-अपने बैठकखानों में बैठे थे
तभी उनकी छोटी-छोटी बेटियाँ उनके पास से गुज़री
गुनगुनाती हुई

……………………..

वली तू कहे अगर यक वचन
रकीबां के दिल में कटारी लगे !

शासक होने की इच्छा
*******************

वहाँ एक पेड़ था
उस पर कुछ परिंदे रहते थे
पेड़ उनकी आदत बन चुका था

फिर एक दिन जब परिंदे आसमान नापकर लौटे
तो पेड़ वहाँ नहीं था
फिर एक दिन परिंदों को एक दरवाजा दिखा
परिंदे उस दरवाजे से आने-जाने लगे
फिर एक दिन परिंदों को एक मेज दिखी
परिंदे उस मेज पर बैठकर सुस्ताने लगे
फिर परिंदों को एक दिन एक कुर्सी दिखी
परिंदे कुर्सी पर बैठे
तो उन्हें तरह-तरह के दिवास्वप्न दिखने लगे

और एक दिन उनमें
शासक बनने की इच्छा जगने लगी !

ज़िद
*****
निराशा मुझे माफ़ करो आज मैं नहीं निकाल पाऊँगा तुम्हारे लिए समय
आज मुझे एक ज़रूरी मीटिंग में जाना है

मुझे मालूम है तुम भी वही सब कहोगी
जो दूसरे भी अक्सर ही कहते रहते हैं उन लोगों के बारे में
कि गिनती के उन थोड़े से लोगों की बिसात ही क्या है
कि समाज में कौन सुनता है उनकी बात ?
कि उनके कुछ करने से क्या बदल जाएगा इस दुनिया में ?
हालाँकि कई बार उन्हें भी निरर्थक लगतीं हैं अपनी सारी कोशिशें
फिर भी एक ज़िद है कि लगे ही रहते हैं वे अपने काम में
कहीं घटी हो कोई घटना
दुनिया के किसी भी कोने में हुआ हो कोई अन्याय
कोई अत्याचार कोई दंगा या कोई दुर्घटना
वे हरकत में आ जाते हैं तत्काल
सूचित करने निकल पड़ते हैं सभी जान-पहचान के लोगों को
और अक्सर मुफ़्त या सस्ते में उपलब्ध किसी साधारण-सी जगह पर
किसी दोस्त के घर में या किसी सार्वजनिक-उद्यान में
आहूत करते हैं वे एक मीटिंग
घंटों पूरी घटना पर गंभीरता से बहस करते हैं
उसके विरूद्ध या पक्ष में पारित करते हैं एक प्रस्ताव

अपनी मीटिंग की वे ख़ुद ही तत्काल ख़बर बनाते हैं
ख़ुद ही उसे अख़बारों में लगाने जाते हैं
प्रतिरोध की इस बहुत छोटी-सी कार्यवाही की ख़बर
कभी-कभी कुछ अख़बार सिंगल कॉलम में छाप देते हैं
अक्सर तो बिना छपी ही रह जाती हैं उनकी ख़बरें

कई बार उदासी उन्हें भी घेर लेती हैं
उन्हें भी लगता है कि उनकी कोई आवाज़ नहीं इस समाज में

निराशा !
मैंने कई-कई बार तुम्हें उनके इर्द-गिर्द मंडराते
और फिर हाथ मलते हुए लौटते देखा है
मैंने देखा है तुम्हारे झाँसे में ज़्यादा देर तक नहीं रहते
वे लोग
कभी-कभी किसी बड़े मुद्दे पर वे रैलियाँ निकालते हैं।

अन्धेरे के बारे में कुछ वाक्य
***********************
अन्धेरे में सबसे बड़ी दिक़्क़त यह थी कि वह क़िताब पढऩा
नामुमकिन बना देता था।

पता नहीं शरारतन ऐसा करता था या क़िताब से डरता था
उसके मन में शायद यह संशय होगा कि किताब के भीतर
कोई रोशनी कहीं न कहीं छिपी हो सकती है ।
हालाँकि सारी क़िताबों के बारे में ऐसा सोचना
एक क़िस्म का बेहूदा सरलीकरण था ।
ऐसी क़िताबों की संख्या भी दुनिया में कम नहीं,
जो अन्धेरा पैदा करती थीं
और उसे रोशनी कहती थीं ।

रोशनी के पास कई विकल्प थे
ज़रूरत पडऩे पर जिनका कोई भी इस्तेमाल कर सकता था
ज़रूरत के हिसाब से कभी भी उसको
कम या ज़्यादा किया जा सकता था
ज़रूरत के मुताबिक परदों को खीच कर
या एक छोटा सा बटन दबा कर
उसे अन्धेरे में भी बदला जा सकता था
एक रोशनी कभी-कभी बहुत दूर से चली आती थी हमारे पास
एक रोशनी कहीं भीतर से, कहीं बहुत भीतर से
आती थी और दिमाग को एकाएक रोशन कर जाती थी ।

एक शायर दोस्त रोशनी पर भी शक करता था
कहता था, उसे रेशा-रेशा उधेड़ कर देखो
रोशनी किस जगह से काली है ।

अधिक रोशनी का भी चकाचौंध करता अन्धेरा था ।

अन्धेरे से सिर्फ़ अन्धेरा पैदा होता है यह सोचना ग़लत था
लेकिन अन्धेरे के अनेक चेहरे थे
पॉवर-हाउस की किसी ग्रिड के अचानक बिगड़ जाने पर
कई दिनों तक अन्धकार में डूबा रहा
देश का एक बड़ा हिस्सा ।
लेकिन इससे भी बड़ा अन्धेरा था
जो सत्ता की राजनीतिक ज़िद से पैदा होता था
या किसी विश्व-शक्ति के आगे घुटने टेक देने वाले
ग़ुलाम दिमागों से !

एक बौद्धिक अन्धकार मौक़ा लगते ही सारे देश को
हिंसक उन्माद में झौंक देता था ।

अन्धेरे से जब बहुत सारे लोग डर जाते थे
और उसे अपनी नियति मान लेते थे
कुछ ज़िद्दी लोग हमेशा बच रहते थे समाज में
जो कहते थे कि अन्धेरे समय में अन्धेरे के बारे में गाना ही
रोशनी के बारे में गाना है ।

वो अन्धेरे समय में अन्धेरे के गीत गाते थे ।

अन्धेरे के लिए यही सबसे बड़ा ख़तरा था ।

यह समय
*********

यह मूर्तियों को सिराये जाने का समय है ।
मूर्तियाँ सिराई जा रही हैं ।

दिमाग़ में सिर्फ़ एक सन्नाटा है
मस्तिष्क में कोई विचार नहीं
मन में कोई भाव नहीं।

काले जल में, बस, मूर्ति का मुकुट
धीरे-धीरे डूब रहा है !

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