पांच जुलाई को जब लखनऊ के बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता चिन्हट क्षेत्र में एकत्र होकर 1857 में अवध खासतौर से लखनऊ की जनता के बहादुराना संघर्ष को याद कर रहे थे, कवि ब्रहमनारायण गौड़ की याद बरबस आ रही थी। गौरतलब है कि 1857 की 30 जून के दिन ब्रिटिश हुकूमत और दुनिया की सबसे शक्तिशाली फौज को लखनऊ की जनता ने शिकस्त दी थी। यह साझा संघर्ष और साझी एकता का नायाब नमूना है। बी एन गौड़ आजादी के इस पहले संग्राम से इस कदर प्रभावित थे कि उन्होंने इस बहादुराना संघर्ष पर चम्पू प्रबंध काव्य ‘मै अट्ठाहर सौ सत्तावन बोल रहा हूं’ की रचना कर डाली।
इस प्रबन्ध काव्य में ‘अट्ठारह सौ सत्तावन ’ स्वयं आजादी के इस संघर्ष का नायक है। वह पाठकों से संवाद करता है और आजादी की कथा स्वयं सुनाता है। वह कहता है – ‘मुक्ति.युद्ध जारी है/और जारी रहेगा /…..मैं मरूँगा नहीं…./क्रान्ति का इतिहास इतनी जल्दी नहीं मरता/बलिदान के रक्त की ललाई को/न धूप सुखा सकती है,/ न हवा और न वक्त…../…इसलिए, मैं फिर कहता हूँ – मैं जिन्दा हूँ, जिन्दा रहूँगा/भेष बदल सकता हूँ,/उद्देश्य नहीं,/चित्र बदल सकता हूँ,/चरित्र नहीं…..’।
बी एन गौड़ ने 3 जनवरी 2019 को भले ही हमारा साथ छोड़ा, पर उनके काव्य की ये पंक्तियां आज भी उनके होने का एहसास दिलाती हैं। एक रचनाकार इसी तरह जिन्दा रहता है।
बी एन गौड़ का जन्म अम्बेडकरनगर {तत्कालीन फैजाबाद} जिले के ऐतिहासिक परगना बिडहर के सुतहरपारा गांव में नौ जुलाई, 1934 को हुआ था। वे अपने कवि के साथ ‘विप्लव बिड़हरी’ उपनाम जरूर जोड़ते थे। ‘बिड़हरी’ उनकी मिट्टी की पहचान थी तो ‘विप्लव’ उनके विद्रोही चरित्र की। इसी पहचान के साथ उन्होंने जिन्दगी जीया। उनके जीवन और कर्म में कोई फांक नहीं। ये बातें उनकी साहित्य सर्जना में भी दिखती हैं। अपने लेखन के पीछे क्या उद्देश्य है, इसे अपनी कविता में उन्होंने इस तरह बयान किया – ‘मैं नहीं लिखता कि लूटूँ/वाह.वाही आपकी/लिख रहा हूँ क्योंकि दिल में/आग जलती है सदा/जी रहे हैं जो फफोलों की कसक मन में लिए/दर्द उनका हूँ, उन्हीं का स्वर, उन्हीं का हूँ पता’। और भी – ‘मेरी पसन्द क्या है/क्यों पूछते हैं आप/मैं ध्वसं चाहता हूँ/निर्माण के लिए/मैं चाहता हूँ आग लगे सारे विश्व में/निष्प्राण भी संघर्ष करें प्राण के लिए’।
बी एन गौड़ अपने प्रबन्ध काव्य में 1857 के घटित होने के कारणों की तह में जाते हैं। उन घटनाओं को सामने लाते हैं जिससे जनता उद्वेलित हुई और वह जन उभार का कारण बना। कहानी 1855 के संथाल विद्रोह से शुरू हुई। लेकिन तूफान का आगाज तो उस खिलाड़ी से हुई जिसके कई नाम थे, पर उसका मकसद एक था। वह था देश की आजादी। उसका नारा था ‘हमें हिन्द की मुक्ति चाहिए’। यह थे अहमदउल्ला शाह उर्फ डंका शाह उर्फ नक्कार शाह उर्फ सूफी बाबा। इस संग्राम के दिमाग अजीमुल्ला खाँ के गीत को राष्ट्रगीत घोषित किया गया – ‘हम हैं इसके मालिक हिन्दुस्तान हमारा/पाक़ वतन है कौम का जन्नत से भी न्यारा’। फिर तो हवाएँ हर दिशाओं और कोनों से उमड़ घुमड़ कर तूफान बनने लगीं। क्रान्ति का इतिहास मेरठ से गरज उठा। मंगल पाण्डेय ने सिंहनाद किया। प्रबन्ध काव्य इस पूरी हलचल से हमें रु.ब.रु कराता है। लखनऊ, छत्तीसगढ़ , नागपुर समेत मध्य भारत, बस्तर का अदिवासी क्षेत्र, झारखण्ड, गोंडों और लोधों का क्षेत्र मालवा, बिहार का पटना, गया, सासाराम व पलामू क्षेत्र, पश्चिमोत्तर सरहद से लेकर राजपूताना तक उठा रोमांचित कर देने वाला यह संघर्ष इस प्रबन्ध काव्य के माध्यम से हमारी आँखों के सामने सजीव हो उठता है।
लेकिन वह क्रान्ति पूरी नहीं हुई। गौड़ जी के विचार से ‘…क्रान्ति असफल नहीं हुई/उसने खून से लिखा एक नया इतिहास/….उसने दिया साम्राज्यवाद के खिलाफ और/पूर्ण स्वतंत्रता के लिए लड़ने का जज्बा ’। 1947 में देश आजाद हुआ। पर यह शोषित पीड़ित जनता की आजादी नहीं थी। भले विदेशी शासक प्रत्यक्ष रूप से चले गये हों पर उनके दलालों के हाथ में सत्ता थी। इसीलिए 1857 का वह संघर्ष जारी रहा। आजादी के इस संधर्ष को जारी रखने का इस प्रबन्ध काव्य का नायक 1857 न सिर्फ संकल्प लेता है बल्कि वह लोगों से आहवान भी करता है। इस तरह विप्लव बिड़हरी का यह प्रबन्ध काव्य 1857 का मात्र आख्यान नहीं है। यह आजादी की वह भावना है जो ब्रिटिश साम्राज्यवादियों से लड़ते हुए पैदा हुई, 1857 के महासंग्राम में पहली बार सबसे मजबूती से अभिव्यक्त हुई तथा 1947 के साथ उसका भले एक चरण पूरा हुआ हो लेकिन वह जनता के नये हिन्दुस्तान के निर्माण में क्रान्तिकारी संघर्ष के रूप में आज भी जारी है।
गौड़ जी ऐसे ही क्रान्तिकारी विचारों से भरे थे। बढ़ती उम्र के बावजूद उनकी सक्रियता कम नहीं हुई। बीमारी ने उन्हें जरूर परेशान किया। अपने 80 वें जन्मदिवस पर आयोजित समारोह में अपने साथियों को ललकारते हुए कहा कि न मैं बैठूंगा, न आप साथियों का बैठने दूंगा। उनकी बातों में प्रेमचंद का यह कथन याद आता है कि अब और अधिक सोना मृत्यु का लक्षण है। गौड़ जी संघर्ष और मोर्चे के लेखक रहे हैं। काव्य लेखन या साहित्य सर्जना उन्हें विरासत में नहीं मिली थी। वे रेल कर्मचारी थे। वहां के संघर्ष में शामिल हुए। 1968 में ग्यारह दिनों के लिए तथा 1974 की ऐतिहासिक रेल हड़ताल के दौरान 46 दिनों तक जेल में रहे। इस संघर्ष ने लिखने, कुछ गुनने को प्रेरित किया। पहली रचना पुस्तक ‘शहीद ऊधम सिंह’ प्रकाशित हुई। उसके बाद तो लिखने का अनवरत सिलसिल शुरू हो गया। फिर कविता संग्रह आया ‘अर्ध शती’।
ब्रह्मनारायण गौड़ मानते थे कि आज समाज में चारों तरफ शिथिलता, गतिहीनता, धार्मिक कुरीतियां, रूढ़ियां जातिवाद, धर्मांधता आदि व्याप्त हैं। अज्ञान व अशिक्षा का बोलबाला है। यह दुनिया श्रम करने वालों ने बनाई है पर वे ही सबसे ज्यादा वंचित व उपेक्षित हैं, पर उन्हें आशा थी कि स्थितियां बदलेंगी। उनके अन्दर का यही आशावाद वैचारिक लेखों के संग्रह ‘आयेंगे अच्छे दिन जरूर’ के रूप में सामने आया। उन्होंने रूसी क्रान्ति के नायक लेनिन के विचारों व जीवन को कविता में बांधने की कोशिश में ‘क्रान्तिरथी’ जैसा महाकाव्य रच डाला। यह कृति उस वक्त आई जब कहा जा रहा था कि विचारधारा का अन्त हो चुका है, समाजवाद अतीत की गाथा है। ‘क्रान्तिरथी’ विप्लव बिड़हरी के इन विचारों के विरुद्ध रचनात्मक संघर्ष का प्रतिफल है। यही नहीं, इन्होंने ‘द्वापर द्वारिका द्रोपदी’ की भी रचना की। यह विचार प्रधान खण्ड काव्य है जो पुरुषों की वर्चस्ववादी व्यवस्था में नारी जीवन की दशा को रेखांकित करता है। प्रगतिशील और जनवादी विचारों को उन्होंनें ‘कुछ सीप, कुछ मोती’ किताब में संकलित किया। इसी क्रम में ‘मैं और मेरे जनगण’ और ‘शब्दों को बाजार के हवाले नहीं करेंगे’ लिखा।
गौड़ जी उर्फ ‘विप्लव बिड़हरी’ बहुत याद आते हैं। वे प्रचार के इस युग में प्रचार से दूर थे। लेकिन अपने साथियों से उनका जुड़ाव बहुत गहरा थ। जन संघर्ष की वे हमेश अगली कतार में रहते थे। साहित्य, समाज और राजनीति के बारे में उनकी समझ साफ थी। उनका कहना था कि समाज से कटकर कोई साहित्य सृजन नहीं हो सकता। हमारे समाज में विद्रूपताएं हैं, शोषण व अत्याचार हैं तो इनके विरुद्ध बेहतरी के लिए संघर्ष भी है। इसी ने मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया, मेरे अन्दर विद्रोही चेतना पैदा की। उनका साहित्य इसी संघर्ष से उपजा हैं। वे कहते हैं – ‘हर शोषण के उत्पीड़न के/हो विरुद्ध जो क्रान्ति वो सुन्दर है/धरती जब ज्वालामुखी बनती/तब जानो कि ज्वाला भी अन्दर है/इस भाँति की क्रान्ति से जो परिचालित/हो, वह ही सच्चा नर है’।