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झारखंड जनाधिकार महासभा की रिपोर्ट : यूएपीए कानून के जरिए आदिवासी-मूलवासियों का हो रहा है दमन

झारखंड जनाधिकार महासभा ने एक रिपोर्ट जारी कर कहा है कि झारखंड के निर्दोष आदिवासी-मूलवासियों को माओवादी होने के आरोप में उत्पीड़ित किया जा रहा है और उनके ऊपर यूएपीए और राजद्रोह लगाकर जेल के अंदर रखा जा रहा है। महासभा ने 31 आदिवासियों-मूलनिवासियों के केस का सर्वेक्षण करने के बाद यह रिपोर्ट जारी की है और मांग की है कि सभी पीड़ितों के विरुद्ध दर्ज मामले को अविलम्ब वापिस लिया जाए, उत्पीड़न के लिए मुआवज़ा दिया जाए। महासभा ने राज्य में UAPA व राजद्रोह धारा के इस्तेमाल पर पूर्ण रोक लगाने की भी मांग की है।

झारखंड जनाधिकार महासभा ने यह रिपोर्ट विचाराधीन कैदियों के मुद्दे पर आजीवन संघर्ष करने वाले स्टेन स्वामी की शहादत की बरसी पर जारी किया।

झारखंड जनाधिकर महासभा ने अपने कई साथी संगठनों (आदिवासी-मूलवासी अधिकार मंच, बोकारो, आदिवासी विमेंस नेटवर्क, बगईचा आदि) के साथ मिलकर अगस्त 2021 – जनवरी 2022 के दौरान बोकारो ज़िला के गोमिया व नवाडीह प्रखंड में 31 निर्दोष आदिवासी-मूलवासियों, जो माओवाद व UAPA अतर्गत आरोपों में फंसे हैं, उनका सर्वेक्षण किया. सर्वेक्षण का उद्देश्य पीड़ितों की स्थिति को समझना, गलत आरोपों में फंसने की प्रक्रिया को समझना एवं पीड़ितों व उनके परिवारों पर इसके प्रभाव को समझना था.

महासभा के अनुसार सर्वेक्षण के नतीजे चौकाने वाले थे. सभी सर्वेक्षित पीड़ितों के विरुद्ध माओवादी होने / माओवादियों को सहयोग करने / माओवादी घटना में शामिल होने का आरोप था. अधिकांश मामलों में UAPA कानून की विभिन्न धाराएं एवं 17 CLA समेत IPC की विभिन्न धाराओं का इस्तेमाल किया गया है. कई मामलों में एक्सप्लोसिव्स एक्ट भी लगाया गया है. पीड़ितों / उनके परिवार के सदस्यों को उनके ऊपर लगे अधिकांश धाराओं की जानकारी नहीं है. UAPA का तो अनेकों ने नाम तक नहीं सुना है.

इन 31 लोगों ने स्पष्ट कहा कि इनका माओवादी पार्टी के साथ कोई रिश्ता नहीं है और न ही कथित घटनाओं से कोई तालमेल. कई पीड़ितों के गाँव जंगल में है जहाँ माओवादियों का आना-जाना होता था. पहले ज़्यादा था और अब बहुत कम हो गया है. ग्रामीणों को डर व दबाव में उन्हें खाना देना पड़ता था.

16 पीड़ितों के मामलों में से सात के मामले 2014 के पहले के हैं, 2014-19 में 9 पर मामले दर्ज हुए और उसके बाद 3 पर दर्ज हुए. 22 पीड़ितों के आंकड़ों के अनुसार पीड़ितों ने लगभग 2 साल औसतन जेल में गुज़ारा. कई पीड़ित तो 5 साल से भी ज्यादा जेल में रहे हैं. सालों से विचाराधीन रहने के बाद एक-एक करके पीड़ित आरोपमुक्त हो रहे हैं. 29 पीड़ित में 9 पूर्ण रूप से आरोपमुक्त होकर बरी हो गए हैं और 20 पीड़ित कम-से-कम एक मामले में अब भी विचारधीन हैं. किसी पीड़ित के पास केस व कोर्ट में चल रहे मामले से सम्बंधित दस्तावेज़ नहीं है. सभी दस्तावेज़ वकीलों के पास जमा है. इसलिए बहुतों को यह जानकारी भी नहीं है कि कितने मामले में वे आरोपित हैं.

सभी पीड़ितों की आजीविका का मुख्य स्रोत कृषि व मज़दूरी है. कई परिवारों की आर्थिक स्थिति बहुत ख़राब है. सर्वेक्षित 31 पीड़ितों में 18 निरक्षर हैं या न के बराबर पढ़ाई किए हैं. केस के कारण पीड़ित परिवारों की स्थिति बद्तर हो गयी है. कई परिवारों को घर के गाय-बैल को बेचना पड़ा एवं कुछ ज़मीन बंधक में देना पड़ा. कई परिवारों ने अन्य ग्रामीणों व रिश्तेदारों से ऋण लिया था. केस का प्रभाव सीधा बच्चों की पढाई पर पड़ा. कई परिवार में केस से हुई आर्थिक तंगी के कारण बच्चों की पढाई छुट गयी. 28 पीड़ितों के अनुमानित खर्च के आंकड़ों के अनुसार प्रत्येक पीड़ित का औसतन 90,000 रु खर्च हुआ है. जिनके कई मामले थे और कई सालों से केस चल रहा है, उनका तो 3,00,000 रु तक खर्च हुआ है.

इन मामलों के आंकलन से यह स्पष्ट है कि जब भी कोई हिंसा की घटना / माओवादी घटना होती है, तब स्थानीय पुलिस क्षेत्र के कई निर्दोष आदिवासी-मूलवासियों का नाम केवल संदेह के आधार पर प्राथमिकी में डाल देते हैं. अगर किसी का नाम इस प्रकार के एक भी मामले में जुड़ जाता है, इसके बाद उस क्षेत्र में कोई भी घटना होने से वो व्यक्ति हमेशा संदेह के दाएरे में रहता है. यह भी स्पष्ट है कि कई बार तो केवल दोषी प्रस्तुत करने के लिए निर्दोषों को पकड़ के मामले में डाला गया.

स्थानीय न्यायालय में न पुलिस द्वारा समय पर चार्जशीट दायर की जाती है और न न्यायालय द्वारा मामले की त्वरित सुनवाई होती है. पीड़ितों को भी न मामले की जटिल प्रक्रियाओं की जानकारी होती है और न ही सही क़ानूनी मदद मिलता है. इन कारणों से पीड़ित सालों तक विचाराधीन कैदी या आरोपमुक्त होने के लिए संघर्ष करते हैं. आखिरकार अधिकांश पीड़ितों का आरोप सिद्ध नहीं होता है.

निर्दोष लोगों को माओवादी घटनाओं में फ़र्ज़ी रूप से आरोपी बनाना पुलिस की कार्यशैली पर गंभीर सवाल खड़े करती है. साथ ही, स्थानीय कोर्ट द्वारा बेल हमेशा रिजेक्ट कर देना न्यायिक व्यवस्था पर भी सवाल खड़े करता है. एक निर्दोष व्यक्ति को कई साल लग जाते हैं आरोपमुक्त होने में. इस उत्पीड़न में UAPA की भी बड़ी भूमिका है.

इन 31 पीड़ितों की परिस्थिति फ़र्ज़ी आरोपों, UAPA आदि में फंसे राज्य के हजारों आदिवासी, दलित, पिछड़े, वंचितों की परिस्थिति का उदहारण मात्र है. पिछली सरकार द्वारा व्यापक पैमाने पर राज्य में आदिवासियों, गरीबों व सामाजिक कार्यकर्ताओं के विरुद्ध फ़र्ज़ी आरोपों पर UAPA कानून व राजद्रोह धारा का इस्तेमाल किया गया था. सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2015-19 के बीच UAPA मामलों में 138% की वृद्धि हुई, जबकि वास्तविक आंकड़े और अधिक होंगे. दुःख की बात है कि 2020 में भी राज्य में UAPA के 86 मामले दर्ज किए गए हैं. अभी भी निर्दोष ग्रामीण ऐसे मामलों से जूझ रहे हैं।

महासभा झारखंड सरकार से मांग की है कि सर्वेक्षित सभी पीड़ितों के विरुद्ध दर्ज मामले को अविलम्ब वापिस लिया जाए, सालों से पुलिस व न्यायिक कार्यवाई से हुए उत्पीड़न के लिए पर्याप्त मुआवज़ा दिया जाए एवं परिवार के सदस्यों को नौकरी दी जाए. आदिवासी-वंचितों पर फ़र्ज़ी मामले दर्ज करने के दोषी पुलिस पदाधिकारियों के विरुद्ध कार्यवाई की जाए. ऐसे अनेक मामले गोमिया व राज्य के अन्य क्षेत्रों में हैं. इस परिस्थिति की निष्पक्ष जांच के लिए न्यायिक जांच का गठन किया जाए। स्थानीय प्रशासन और सुरक्षा बलों को स्पष्ट निर्देश दें कि वे किसी भी तरह से लोगों, विशेष रूप से आदिवासियों, का शोषण न करें. नक्सल विरोधी अभियानों की आड़ में सुरक्षा बलों द्वारा लोगों को परेशान न किया जाए. राज्य में UAPA व राजद्रोह धारा के इस्तेमाल पर पूर्ण रोक लगे. केंद्र सरकार UAPA को रद्द करे। पुलिस प्रणाली में सुधार की जाए. केवल संदेह के आधार पर अथवा केवल माओवादियों को महज़ खाना खिलाने के लिए निर्दोष आदिवासी-वंचितों को माओवादी घटनाओं में न जोड़ा जाए।

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