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शाहीनबाग और शांतिबाग की औरतें

शाहीनबाग दिल्ली में है और शांतिबाग बिहार के गया में। शाहीनबाग दक्षिण दिल्ली का एक मुस्लिम बहुल इलाका है जो दिल्ली से नोएडा जाने वाली रोड पर है। यह हरियाणा, दिल्ली, यूपी को जोड़ने वाली नोएडा-सरिता विहार का रोड नंबर 13 है जहां 14 दिसंबर 2019 की दोपहर में मात्र 10 से 15 स्थानीय महिलाओं द्वारा नागरिकता संशोधन कानून – सीएए के खिलाफ शांतिपूर्ण प्रदर्शन शुरू किया गया। अब यह देश-विदेश में सुर्खियों में है। 11 दिसंबर 2019 को लोकसभा और राज्यसभा में नागरिकता संशोधन बिल पास हुआ और इसके खिलाफ देश के प्रत्येक हिस्से में शांतिपूर्ण प्रदर्शन हो रहे हैं। इस बीच जामिया मिलिया इस्लामिया, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जेएनयू में जो पुलिस बर्बरता हुई उसके खिलाफ भी विरोध प्रदर्शन जारी है। शाहीनबाग का प्रदर्शन दिन-रात 24 घंटे का है। वहीं, वहां रविवार के दिन एक लाख लोग इकट्ठे हो जाते हैं और अब शाहीनबाग की शैली में उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद और कानपुर, कोलकाता के पार्क सर्कस, हैदराबाद और गया के शांतिबाग में औरतें प्रदर्शन कर रही हैं।

छात्र व युवा प्रदर्शन के बाद शाहीनबाग की औरतों ने अपने अनुशासित प्रदर्शन से एक मिसाल कायम कर दी है। आधुनिक भारत का यह अकेला उदाहरण है और संभवत ब्रिटिश भारत में भी। एक महीने से ऊपर हजारों की संख्या में इस प्रकार के महिलाओं के विरोधी प्रदर्शन का कोई उदाहरण नहीं होगा। यह औरतें सेकुलर भारत की लड़ाई लड़ रही है और सेकुलर पार्टियां लगभग दुबकी हुई हैं। इस व्यापक जन असंतोष ने उनका वास्तविक चेहरा सामने ला दिया है। महिलाओं की ऐसी निर्भीकता का अपने देश में ऐसा उदाहरण कौन है। एक प्रदर्शनकारी मरियम खान कहती हैं – क्या करेंगे लाठियां बरसायेंगे, मार देंगे, हमारे दिल में फिर भी मोहब्बत ही रहेगी। वह हमें विभाजित नहीं कर सकते। इतने जुल्म हो गए – बाबरी मस्जिद केस, मुसलमानों की सड़कों पर लिंचिंग, हम सहते रहे पर अब संविधान पर जुल्म हो रहा है हम नहीं सहेंगे। दो वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर जनता को यह बताया था कि भारतीय लोकतंत्र खतरे में है। भारतीय संविधान और भारतीय लोकतंत्र को कायम रखने के लिए शाहीनबाग की औरतें जो केवल घरेलू महिलाएं नहीं है अपने बच्चों को गोद में लेकर प्रदर्शन कर रही हैं। यहां सभी मजहब की महिलाएं हैं।

शाहीनबाग की औरतों के सत्याग्रह का एक महीना से अधिक हो चुका है। उनके प्रदर्शन में दिल्ली से बाहर के लोगों का आना और शामिल होना जारी है। पंजाब से भारतीय किसान यूनियन के सैकड़ों प्रदर्शनकारी वहां पहुंच चुके हैं। लंगर तैयार किया जाता है। शाहीनबाग कालिंदी कुंज के नजदीक है जो दिल्ली को उसके पड़ोसी शहरों फरीदाबाद और नोएडा से जोड़ता है। प्रदर्शनकारियों के सड़क पर बैठने से उस मार्ग से गुजरने वाले व्यक्तियों का समय दूसरे मार्ग से जाने के कारण दो-तीन घंटे अधिक का हो जाता है पर शाहीनबाग की औरतें भारत को बचाने के लिए बैठी हुई हैं। नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ एक महीने से देश की प्राय सभी जगह में जो निरंतर विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं उन सब में शाहीनबाग सबसे विशिष्ट है। दिल्ली की कंपाती दो डिग्री के तापमान में भी अपने छोटे बच्चों के साथ वे कांप और हांफ नहीं रही हैं। उनके भीतर की आग बाहर की ठंड पर भारी पड़ रही है।

शाहीनबाग और शांतिबाग की औरतें ‘ कैेथरकलां की औरतों’ से एकदम अलग हैं। गोरख पांडे की कविता ‘कैथरकलां की औरतें’ एक क्रांतिकारी कविता है। कैथलकलां की औरतें तीज-व्रत रखने वाली धान-पिसान करने वाली गरीब औरतें थी जो किसी की बीवी के साथ ही ‘गांव भर की भाभी भी’ थीं। वह गाली मार खाती थीं, निरक्षर थी – ‘काला अक्षर भैंस बराबर’ समझती थीं। वे सिपाही देखकर डरने वाली औरतें थीं, जो उन्हें देखकर घर में छिप जाती थीं। उनके होंठ सिले थे। अपने चारों ओर बढ़ते जुल्मों को देखकर और उसके खिलाफ गरीब गुरबा के एकजुट होने के बाद एक बगावत की लहर आ गई थी। कैथरकलां की औरतें नक्सलियों की धरपकड़ करने आई पुलिस से भिड़ गई थीं। उनमें यकायक यह बदलाव आ गया था। पहले वह गाय जैसी सीधी और अबला थीं। अचानक उनमें बंदूक छीन लेने की हिम्मत कहां से आई, कैसे आई? पुलिस को भगा दिया कैसे? क्या से क्या हो गई कैथरकलां की औरतें ? एक प्रकार की बगावत थी जिसकी प्रशंसा करना स्वाभाविक रूप से सबके लिए संभव नहीं था। द्रोपदी की जब भरी सभा में साड़ी खींची गई थी किसी पुरुष की जबान तक नहीं खुली थी। उस ‘महाभारत’ के समक्ष यह महाभारत कैसे घटित हो गया? कवि जोर-जबर्दस्ती, जुल्म और अन्याय के खिलाफ हैं। सशस्त्र क्रांति का समर्थक है।

हिंदी में ऐसी कई क्रांतिकारी कविताएं हैं जो 70 और 80 के आरंभिक दशक में कई कवि लिख रहे थे। वह इंदिरा गांधी का समय था और उस समय अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता थी। ऐसी कविताएं लिखना कोई अपराध नहीं था। अब वह समय नहीं है। देश ही नहीं बदला दुनिया भी बदल चुकी है। नक्सलबाड़ी आंदोलन भी पहले जैसा नहीं रहा और आज सशस्त्र क्रान्ति में विश्वास करने वाले कवि नहीं के बराबर है। कैथरकलां की औरतें अधिक परिपक्व नहीं थीं। गोरख पांडे की कविता आंदोलन से जुड़ी आंदोलनधर्मी कविता है।
आज के भारत में शाहीनबाग और शांतिबाग की औरतें महत्वपूर्ण हैं। वह संविधान की रक्षा की बात कर रही हैं। ‘प्रतिहिंसा’ एक विशेष दौर में एक विशेष कवि का ‘स्थाई भाव’ हो सकता है पर आज के समाज में प्रतिहिंसा से कहीं अधिक महत्व प्रतिरोध का है। जीवन में और कविता में भी शांतिपूर्ण प्रदर्शन आज की सरकार और सत्ता व्यवस्था को नापसंद है। शाहीनबाग और शांतिबाग की औरतों का घर से निकल कर एक प्रकार से सड़क को ही घर बना लेने का संदेश बड़ा है। क्या सचमुच हम यह संदेश सुन पा रहे हैं? संसद में जो होना था वह हो चुका। बिल पास हो गया और राष्ट्रपति की मुहर लगने के बाद नागरिकता संशोधन बिल बिल न रहकर कानून बन चुका है और सरकार अपनी जिद पर अड़ी हुई है।

शाहीनबाग के प्रदर्शन के लगभग 15 दिन बाद गया के शांतिबाग में महिलाओं ने 29 दिसंबर 2019 को अपना शांतिपूर्ण अनिश्चित प्रतिरोध प्रदर्शन 7-8 की संख्या में आरंभ किया था। अब प्रतिदिन उनके सहभागी साथियों की संख्या बढ़ रही है। वे फैल रही हैं। बच्चों से बुजुर्ग तक प्रतिदिन वहां उपस्थित होकर उनके साथ एकता प्रदर्शित कर रहे हैं। वह सब सरकार की उन विभाजनकारी नीतियों के खिलाफ है जो नागरिकों को धर्म के आधार पर विभाजित कर रही है। प्रदर्शनकारी ‘संविधान बचाओ मोर्चा’ के बैनर तले हैं। गया के कटारी हिल रोड में शांतिबाग है और शांतिबाग का यह शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन संदेश दे रहा है कि यह समय घर के भीतर चुप होकर बैठने का ना होकर सड़क और मैदान में उतर कर शांतिपूर्ण प्रदर्शन का है। वर्ष के आरंभ में एक नया समय आकार ग्रहण कर रहा है। वहां गांधी और अंबेडकर के कट आउटस हैं। यह प्रदर्शन नागरिकता संशोधन कानून – सीएए, राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर – एनआरसी और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर – एनपीआर के विरुद्ध है। इन महिला प्रदर्शनकारियों ने एक दानपात्र रखा है जिसमें उनका समर्थन करने वाले प्रतिदिन 6000 से अधिक रुपए रख रहे हैं। यह राशि कुछ दिन 10-15 हजार तक हो जाती है। अब इनकी योजना सदर प्रखंड स्तर तक जाने और फैलने की है।

पहली बार इतनी अधिक संख्या में संविधान की प्रस्तावना का सामूहिक पाठ किया जा रहा है। समाचार पत्रों में इनके लिए स्थान नहीं है पर सोशल मीडिया में ये छाई हुई हैं। इन जगहों पर भाषण दिए जा रहे हैं। कविताएं पढ़ी जा रही हैं। आजादी के गाने गाए जा रहे हैं। बहसें हो रही हैं। संसद में जो होता है, उस से सर्वथा भिन्न। क्या यह किसी संसद से कम है? यह कहीं अधिक सामाजिक और राष्ट्रीय है। आज महिलाएं कहीं अधिक जागरूक और सक्रिय हैं। वीडियो जारी हो रहे हैं। यह एक नया राष्ट्रव्यापी उधार है। वास्तविक भारतीय राष्ट्रवाद है।

शाहीनबाग और शांतिबाग की औरतें देश के विभिन्न हिस्सों में फैल रही हैं। अधिक स्थानों पर, सड़कों पर, मैदानों में ऐसे प्रदर्शनों की संख्या बढ़ रही है। यह दिन-रात का शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन है। वह अकेली नहीं है। पूरे देश में उनकी आवाज सुनी जा रही है। नए नारे गढ़े जा रहे हैं। नए गीत गाए जा रहे है।ं आवाम के कवियों, शायरों की कविताएं और शायरी इन जगहों में गूंज रही है। कविता और शायरी सवाल खड़ी कर रही है। विरोध और संघर्ष का यह अनुपम सौन्दर्य है। एक नया सृजन हो रहा है।

फोटो-आमिर अज़ीज़

जर्मन कवि मार्टिन निमोलर जो हिटलर के विरोधी थे की यह विश्व प्रसिद्ध कविता पहली बार इतनी अधिक संख्या में देश के विभिन्न हिस्सों में पढ़ी जा रही है – ‘पहले वे कम्युनिस्टों के लिए आए/और मैं कुछ नहीं बोला/ क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था/फिर वे आए ट्रेड यूनियन वालों के लिए/और मैं कुछ नहीं बोला/क्योंकि मैं ट्रेड यूनियन में नहीं था/फिर वे यहूदियों के लिए आए/और मैं कुछ नहीं बोला/क्योंकि मैं यहूदी नहीं था/फिर वे मेरे लिए आए/और तब तक कोई नहीं बचा था/जो मेरे लिए बोलता’।

महिलाओं के लबों का खुलना बड़ी घटना है। यह संदेश दे रही हैं। यह देश किसी एक धर्म या मजहब का नहीं है। हमारा यह देश सबका है। देश के विभिन्न हिस्सों मे, दक्षिण में कर्नाटक और तमिलनाडु में भी एक साथ ‘आजादी’ के नारे शायद ही कभी स्वाधीन भारत में लगे हों। सत्ता का खौफ टूट रहा है। महिलाएं घर से निकल चुकी हैं। अब तक जो नहीं निकली थी, वह निकल भी रही हैं। कन्हैया कुमार का ‘आजादी’ वाला गाना राष्ट्रव्यापी हो गया है। आलम यह है कि जो नारे लगा रहा है वह अपनी ओर से भी कुछ नया जोड रह़ा है। यह एक प्रकार का सामूहिक सृजन है। गया के शांतिबाग में आठ-दस वर्ष के एक छोटे लड़के ने इसे जिस अंदाज से गुंजाया, वह अनोखा है। वह नारे बोल रहा है और हजारों की संख्या में महिलाएं उसे दोहरा रही हैं। ऐसे प्रदर्शनों से विभिन्न भाषाओं में नए नारे बन रहे हैं। ‘हम कागज नहीं दिखाएंगे’ अब एक लोकप्रिय नारा है जो विविध भाषाओं में लगाया जा रहा है।

सरकार इन महिलाओं की आवाजें नहीं सुन रही है। उनसे मिलने और उन्हें सुनने के लिए अब तक उनके पास कोई मंत्री नहीं पहुंचा है। शाहीनबाग की महिलाएं कह रही हैं कि जब तक प्रधानमंत्री और गृहमंत्री उनसे आकर संवाद नहीं करते वे अपना प्रदर्शन जारी रखेंगी। इन प्रदर्शनों ने उन सारी दीवारों को ढाह दिया है जो हमें विभाजित करती हैं। शाहीनबाग में ‘सर्व धर्म समभाव’ कार्यक्रम हो चुका है जिसमें विभिन्न धर्मों के लोगों ने भाग लिया। हिंदुओं ने हवन किया। सिखों ने कीर्तन। एक साथ गीता, कुरान, बाइबल का पाठ हुआ। इकबाल पढ़े गए – ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना’ और ‘तू शाही है, परवाज है काम तेरा/तिरे सामने आसमां और भी हैं’।

इन प्रदर्शनकारियों की चिंताएं व्यापक हैं। वहां ऑस्ट्रेलिया में फैली आग पर भी चिंता प्रकट की जा रही है। हजारों लाखों मुसलमानों के हाथों में हैदराबाद में तिरंगा झंडा लहरा रहा था। वे ‘वंदे मातरम’ गा रहे थे। धर्म, लिंग, भाषा, क्षेत्र की दीवारें यहां नहीं है। सब एक साथ हैं। सब भारतीय है।ं यह लोकतांत्रिक, शांतिपूर्ण, विरोध-प्रतिरोध प्रदर्शन है। प्रदर्शनकारी संविधान के साथ हैं। संविधान की रक्षा संविधान की शपथ लेने वालों ने नहीं की है। यह प्रदर्शनकारी संविधान की रक्षा के लिए सड़कों पर हैं। पहली बार आजाद भारत में फैज़ इतनी अधिक संख्या में शायद गाये और पढ़े जा रहे हैं। उन्हें कोई रोक नहीं सकता। ‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे’।

शाहीनबाग अब एक स्थान नहीं है। वह प्रतीक है। एक उदाहरण है। वहां की औरतें भारत माता की शानदार बेटियां हैं। शांतिबाग की औरतें शाहीनबाग की औरतों की बहने हैं। देश के जिन अनेक हिस्सों में जिन स्त्रियों ने संविधान की रक्षा का प्रण लेकर सड़क पर उतरने और वहां डटे रहने का फैसला लिया है वे अकेले नहीं हैं। उनकी संख्या बढ़ रही है। उनके साथ बच्चे, युवा, अधेड,़ वृद्ध सब हैं। शाहीनबाग में सब पहुंच रहे हैं। रिपोर्टर, एंकर, संस्कृतिकर्मी, बुद्धिजीवी, सक्रियतावादी, छात्र, युवा, अरुंधति राय, रवीश कुमार, आईशी घोष सब।

वकील अमित शाहनी ने दिल्ली हाईकोर्ट में इन्हें हटाने के लिए एक जनहित याचिका दायर की थी। दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डीएन पटेल और जस्टिस सी हरिशंकर की बेंच ने इस प्रदर्शन को पुलिस को अपने ‘विजडम’ से हल करने को कहा। महिलाएं सत्याग्रह पर बैठी हुई है और इन पंक्तियों के लिखे जाने तक केंद्र और दिल्ली सरकार का कोई मंत्री उनसे संवाद करने, उन्हें सुनने नहीं आया है। अब सीसीए, एनआरसी, एनपीआर आदि का विरोध प्रदर्शन देश भर में फैल चुका है। स्त्रियां पहल कर चुकी हैं। वे सड़कों पर हैं और आगे हैं। नए नारे, गाने, कविताओं और पुष्पों के बीच हैं वे। सरकार के पास अश्रु गैस, लाठी और टैंक है। जरूरी है संवाद। जरूरी है हम सब उनकी आवाज बने। यह असहमति और प्रतिरोध की आवाज है। ‘आवाज दो हम एक हैं’ की आवाज गूंज रही है और यह नारा भी गूंज रहा है कि ‘हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई, आपस में है भाई भाई’ या ‘देश के हैं चार सिपाही’। शाहीनबाग और शांतिबाग की औरतों की आवाज एकता की आवाज है। यह आवाज काले कानूनों के खिलाफ एक लोकतांत्रिक आवाज है।

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