इस वक्त पूरा देश कोरोना महामारी की दूसरी लहर से लड़ रहा है, संभावना यह है कि देश को कोरोना की तीसरी लहर का भी सामना करना पड़ सकता है। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि इस संकट की घड़ी का सामना बगैर एक दूसरे की सहायता के सम्भव नहीं है, दुःख की घड़ी हो या मदद की बात हो एक दूसरे का सहारा कई मुसीबतों को हल्का कर देता है लेकिन इस वायरस ने हम सबको एक दूसरे से दूर कर दिया है जिसकी वजह से हम एक दुसरे से शारीरिक रूप से नहीं मिल सकते है पर मानसिक रूप से एक दुसरे के साथ खड़े जरूर हो सकते है। कई जगह पर लोग अपनी तरह से एक दुसरे की मदद भी कर रहे है। देश की स्थिति गंभीर है और इस स्थिति की वजह से देश के कई प्रदेशों और शहरों में लॉकडाउन लगा दिया गया है।
यह बात भी ठीक है कि इस दुःख की घड़ी में हमे सकारात्मक और आशावादी रहने की जरुरत है लेकिन क्या आशावादी होने का यह मतलब है कि हम अपने प्रियजनों के खोने के एहसास को भूल जाएं ? हम यह कैसे भूल जाए कि यह महामारी हमारे किसी न किसी प्रियजन को खा गई है ? क्या हम यह भूल जाए कि एक बेड, एक आक्सीजन के सिलिंडर की व्यवस्था करने की जद्दोजहद की वजह से हमने कितनी परेशानियों का सामना किया? हम कैसे उन हजारो तैरते शवो के बारे में बात ना करे जो गंगा नदी के तट पर पाए गए ? जो किसी न किसी के रिश्तेदार या प्रियजन रहे होंगे ? क्या आशावादी होने का यह मतलब है की हम आक्सीजन की खपत के बारे में सवाल न करे? क्या हम स्वास्थ्य सुविधाओ के बारे में सवाल न करें ? सरकार के लिए भले ही कोरोना से मरने वाली हर मौत महज एक आंकड़ा हो लेकिन उस आँकड़े में हमारा या आपका रिश्तेदार या प्रियजन ही है. क्या अपने रिश्तेदार या प्रियजन की मौत की वजह पूछना गुनाह है ?
जब भारत में कोविड-19 के मामलो की गिनती लाखो की संख्या को पार कर रही हो और हर दिन औसतन ढाई लाख मामले दर्ज किए जा रहे हो और अखबारों के पन्ने हर दिन श्रद्धांजलियों से भरे हो व औसतन हर दिन 4000-4500 लोग मर रहे हो तब क्या सिर्फ सकारात्मक रहना संभव है ? क्या यह सब आँकड़े हमें यह बात याद नहीं दिलाते की इतनी मौतों का कारण हमारे देश की चरमराई हुई स्वास्थ्य व्यवस्था है ?
यह तो वह अंकड़ें हैं जो हमारे समक्ष पेश हो गए है लेकिन सरकार पर हालिया आरोप यह लगा है कि वह कोविड से मरने वाले लोगो की मौत के आंकड़ों को छुपाने की कोशिश कर रही है। यह सवाल होना ज़रूरी है क्योंकि अगर आप को सही हालत का अंदाजा लगाना हो या किसी स्थिति को समझना हो तो आँकड़े आपकी मदद करते है, तो सही स्थिति का पता लगाने के लिए आंकड़ों को लेकर के पारदर्शिता आवश्यक है, लेकिन उदाहरण यह बताते है की सरकार कुछ और ही कर रही है।
अगर हम उत्तर प्रदेश को ही लें । हाल की खबर है जब सरकार की तरफ से यह कहा गया कि पंचायत चुनाव के समय सिर्फ तीन लोगो की मृत्यु हुई है जिस पर गुस्सा कर अखिल भारतीय शिक्षक संघ के अध्यक्ष ने सरकार को एक पत्र लिख कर अंकड़ें न छुपाने की हिदायत दी जिसके मुताबिक प्रदेश भर में कोरोना से मरने वाले शिक्षकों की संख्या औसतन 1621 है। दैनिक भास्कर की 06 मई की खबर के अनुसार 24 अप्रैल से 5 मई तक के कोरोना से लखनऊ में मौतों की सरकारी आकड़ो की संख्या 393 थी जब की इसी दौरान शवदाह की संख्या 1500 थी। इसी प्रकार कानपुर के एक स्थानीय अख़बार में छपी 23 अप्रैल की ख़बर के अनुसार ‘अकेले कानपुर में ही विभिन्न शमशान घाटों पर विद्युत् शवदाह द्वारा 476 अंतिम संस्कार किये’ गए जबकि सरकारी आंकड़ों में सिर्फ 3 मौतों का ज़िक्र था।
प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया के लिए काम करने वाले पत्रकार दीपक पटेल ने भी अपने प्रदेश गुजरात में इन आंकड़ों को लेकर कुछ इसी तरह की असहजता का सामना किया। उन्होंने स्थानीय अखबारों का हवाला देते हुए 26 अप्रैल को एक ट्वीट किया जिसमे उन्होंने यह कहा कि अख़बार सन्देश के अठारह पृष्ठों में से सात पृष्ठों में केवल श्रद्धांजलियां ही शामिल है जिसका मतलब है कुल 287 मौतें-जबकि आधिकारिक आंकड़े सिर्फ 26 मृत्यु की बात करते हैं। पटेल ने इस साल में 1 मार्च से 10 मई की अवधि के दौरान में जारी किए गए मृत्यु प्रमाण पत्रों की जिलेवार संख्या पर भी प्रकाश डाला, जो आधिकारिक COVID-19 से मरने वाले आंकड़ों से काफी अधिक थे। उन्होंने लिखा- अहमदाबाद ने इस साल की दूसरी लहर के दौरान इस 71 दिन की अवधि में कुल 13,593 मृत्यु प्रमाण पत्र जारी किए गए जबकि गुजरात सरकार के आंकड़ों में यह कहा गया कि इस अवधि में अहमदाबाद शहर में कोविड से केवल 2,126 लोगों की मौत दर्ज हुई है।
बड़ोदरा के संदर्भ में भी उन्होंने कुछ यही लिखा की इस साल में 1 मार्च से 10 मई की अवधि के दौरान 7,722 मृत्यु प्रमाण पत्र जारी किए गए है पर इन पर भी सरकारी आकडो में अंतर पाया गया। जगह-जगह के अखबार इस तरह की ख़बरों और आंकड़ों के अंतर से भरे हुए हैं . एक भी मौत का होना त्रासदी है और हर त्रासदी की वजह तलाशना उस पर सवाल करना हमे आने वाले समय के लिए तैयार करता है।
सवाल यह है कि अंकड़े छुपाने की ऐसी नौबत क्यों आई ? इसका जवाब यह है कि सरकार ने कोरोना की पहली लहर से कुछ सीखा ही नहीं और कोरोना पर जीत का जश्न पहले ही मनाना शुरू कर दिया व आने वाली कोरोना की लहर से जुडी हुई भविष्यवाणियों को अनदेखा किया, स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए ठोस कदम नहीं उठाये और कई जगह वह गलतियां की जिसकी वजह से इस महामारी को फैलने में बल मिला, फिर चाहे वह उत्सवों को लेकर के सरकार द्वारा एक ठोस योजना में कमी का मामला रहा हो या फिर पांच राज्यों में चुनाव रहें हो। यह सब सरकार की महामारी के प्रति एक ठोस समझदारी के अभाव को दिखाता है। साथ ही यह समझदारी बताती है कि सरकार की जरुरत कहाँ बनी रही।
आंकड़ों को लेकर सरकार का इस तरह का रुख यह साफ़ ज़ाहिर करता है कि हमारे समक्ष कोविड से मरने वालों की संख्या को लेकर स्थिति साफ़ नहीं है। यह बात इस तरफ भी इशारा करती है कि देश में हालात अभी भी सुधरे नहीं है। सरकार का अपनी छवि को लेकर के कोरोना से मरने वालो की संख्या को छुपाना और अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ना किसी भी तरह से विवेकपूर्ण नहीं है। एक तरह से यह झूठी सकारात्मकता का संचार है, जिसमे किसी का भी फायदा नहीं है। इस तरह की सकारात्मकता में केवल दर्द है, वह सकारात्मकता किस काम की जो हमे अपनी असलियत का सामना करने के लिए तैयार न करती हो ?
पिछले साल नवंबर में बनी एक संसदीय समिति ने भारत में कोरोना की दूसरी लहर को लेकर के एक भविष्यवाणी की थी और सरकार को आगाह भी कर दिया था लेकिन उस पर कोई ठोस कदम नहीं लिए गए। अगर सरकार आंकड़ों को लेकर अपनी मनमानी करती रहेगी, उनसे कोई सीख नहीं लेगी तो यह और भी बढ़ सकती है। अगर सरकार व्यवस्था में कमी को बताने वालों को अनदेखा करेगी या उन को डरा-धमका कर चुप करा देगी या मुकदमा करेगी तो वह महामारी को लेकर के कोई ठोस तैयारी भी नहीं कर पायेगी व कोरोना की तीसरी लहर का मुकाबला भी नहीं कर सकेगी और आने वाली तीसरी लहर भी देश में इसी तरह की तबाही मचा सकती है ।
एक भी मौत का होना त्रासदी है और एक त्रासदी से सीख ले कर खुद को तैयार ना कर पाना दूसरी त्रासदी को न्योता है।