अनुपम सिंह
मन्नू भंडारी का जन्म 3 अप्रैल 1929 को मध्य प्रदेश के भानपुरा में हुआ, और अब दिनाँक-15 नवंबर 2021 को वे इस दुनिया को अलविदा कह गयीं. इस दुनिया से जाना अतिसाधारण बात है, लेकिन जाना जब मन्नू भंडारी जैसी शख़्सियत का हो तो उसके मायने एकदम अलग हो जाते हैं. तब वहाँ सांत्वना से काम नहीं चलता. पूर्व के किसी अनुभव से हम इस उपजे खालीपन को भर नहीं सकते. यह जाना किसी एक के लिए नहीं, किसी अपने के लिए नहीं, बल्कि पूरे समाज के लिए सैलाब जैसा होता है. लेकिन यह जाना भी साधारण जाना कहाँ होता है! बल्कि जाते-जाते स्वयं को छोड़ जाना होता है.
मन्नू भंडारी को कुल 90 वर्ष का जीवन मिला. सक्रियता एवं निष्क्रियता, तथाकथित सफलता और तथाकथित असफलता के बीच निश्चय ही यह जीवन आसान नहीं रहा होगा उनके लिए. कई अर्थों में दुःख एवं पीड़ा से भरा रहा उनका जीवन. लेकिन वही दुःख जीवन की रोशनी बन हम जैसे हजारों पाठकों का पथ आलोकित करता रहेगा. सभी अच्छे लेखक को अपने जीवन का ‘बलिदान’ करना ही पड़ता है. और मन्नू भंडारी ने क्या बख़ूबी किया है अपना ‘बलिदान’!
अनेक शिक्षण संस्थाओं में अध्ययन-अध्यापन के साथ साथ मन्नू भंडारी आजाद भारत के प्रथम कहानी आंदोलन ‘नयी कहानी आंदोलन’ में अपनी ऐतिहासिक भूमिका एवं योगदान के लिए हमेशा याद की जाएंगी.
यह कहानी आंदोलन जहाँ रूढ़ियों के टूटने, परिवार के टूटने, संबंधों के टूटने, भीतरी अंतर्द्वंद्व एवं नई आकार लेती आकांक्षा को दर्ज़ कर रहा था वहीं मन्नू भंडारी इस सब प्रकार की टूटन के केंद्र में स्त्री को रखकर देख रही थीं. मन्नू भंडारी अपनी कहानियों, अपने उपन्यासों एवं नाटकों में आजाद भारत में बन रहे नई स्त्री के स्वबोध या आत्मबोध को चित्रित करने, उस बोध को निर्मित करने व उसे मज़बूत करने वाली कथाकार हैं.
मन्नू भंडारी का उपन्यास ‘आपका बंटी’ दो औरतों के प्रेमिल अंतर्द्वंद्व के बीच एक बच्चे ‘बंटी’ के जीवन के विघटन एवं उसके बाल मनोविज्ञान पर पड़ने वाले स्याह प्रभाव से अपने पाठकों को झकझोर देता है, पाठक भी कभी न कभी इस कटु-तिक्त -मधुर अनुभव से गुज़रा जो है.
मन्नू भंडारी हाड़-मांस की एक देह भर नहीं हैं. पिछले कितने ही सालों से परिदृश्य से ओझल होकर भी वे अपने पाठकों को आकर्षित करती रहीं हैं. भारतीय राजनीति के सवर्णवादी चरित्र पर जब भी बात होगी बिना मन्नू भंडारी के वह बात पूरी नहीं होगी. भारतीय राजनीति की कूटनीति का जटिल यथार्थ कितने ही सरल बुनावट में मन्नू भंडारी ने प्रस्तुत किया है, इसके लिए बार-बार ‘महाभोज’ को रेखांकित करना ही होगा.
कभी-कभी लगता है कि ‘वह हार गई’ लेकिन वह हार कर भी कहाँ हारती है. वह किसी यूटोपिया को हारा हुआ दिखती है. किसी यूटोपिया से पर्दा थोड़ा सरका देती है, और हर बार इस हारने का भाव और उसकी असफलता ही तो पूर्णता है. वही तो जीत है इस लेखक की, उसके पात्रों की, उसके पाठकों की. इन्हीं अर्थों में ‘मैं हार गई, की लेखिका कभी नहीं हारती है.
‘यही सच है’ कि जाना सबको है लेकिन जाने से पहले सबको कहाँ पता है कि कहाँ जाना है, किस ओर जाना है. वर्तमान में या अतीत में. यही तो द्वंद्व है. द्वंद्व ही तो उस अतीत के भूले हुए प्रेम को पुनः जीवित कर देता है. वही द्वंद्व ही तो संजय है. वही द्वंद्व ही तो निशीथ है. वही तो दीपा है. इस द्वंद्व से मुक्त कहाँ है जीवन! इसी द्वंद्व में ही तो जीवन का एक हिस्सा दे दिया था मन्नू भंडारी ने. जब वे लंबे समय तक तय नहीं कर पायीं थीं कि छत एक होनी चाहिए, कि छत दो होनी चाहिए. या एक ही छत के नीचे जीवन की राहें एकदम कटी होनी चाहिए.
लेकिन मन्नू भंडारी कभी अतीत नहीं होंगी. उनके पाठक, उनके आलोचक, उनके अपने लोग हर बार उनसे बात करेंगे. बस अब जरिया थोड़ा अलग होगा. हम बार- बार पलटेंगे पन्ने ‘आपका बंटी’ , ‘महाभोज’, ‘एक इंच ‘मुस्कान’ ,’यही सच है’, ‘एक कहानी यह भी’, हम बनाएंगे ‘बिना दीवारों का घर’.
हमारे जीवन की इस अदम्य नायिका को हमारा सलाम.
आखिरी सलाम !