फणीश्वर नाथ रेणु ने कहा था कि भारत के सामाजिक जीवन को जानना है तो लेखकों को गांवों की ओर जाना चाहिए। जन संस्कृति मंच, बिहार ने अपना पांचवां राज्य सम्मेलन बेगूसराय (बिहार) से करीब 10 किलोमीटर दूर विप्लवी पुस्तकालय, गोदरगावां में आयोजित किया। यह महज पुस्तकालय नहीं है बल्कि राष्ट्रीय आंदोलन से लेकर वर्तमान के सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक आंदोलन की धरोहर को अपने में समेटे है। इसकी नींव स्वाधीनता आंदोलन के दौरान 26 फरवरी 1931 को पड़ी थी। यह उस संघर्ष और कुर्बानी के इतिहास का गवाह है। आजादी के बाद की पीढ़ी ने इसे खण्डहर होने से बचाया है तथा संवारा और आधुनिक रंग-रूप दिया है।
गोदरगावां कथाकार, उपन्यासकार व साम्यवादी नेता राजेंद्र राजन का गांव है। विप्लवी पुस्तकालय उनकी कल्पनाशीलता, जन प्रतिबद्धता और सांस्कृतिक सरोकार का मूर्त रूप है। पुस्तकालय को उन्होंने संस्थाबद्ध किया है। एक टीम के पास संचालन की जिम्मेदारी है। यहां लोकतांत्रिक माहौल है। ऐसे समय में जब पुस्तकालय संस्कृति संकट में है, वे नष्ट किए जा रहे हैं, उनका अस्तित्व खतरे में है, विप्लवी पुस्तकालय एक मशाल की तरह है। यह हम जैसों के लिए किसी साहित्यिक तीर्थ यात्रा से कम नहीं है। वहां 2 दिन के प्रवास के दौरान यही महसूस होता रहा ।
गोदरगावां तक पहुंचना ऊबड़-खाबड़ और पतली सड़क के रास्ते होता है। पर यहां प्रवेश करते ही नई संस्कृति का दर्शन होता है। आने वालों की पहली मुलाकात शहीद चंद्रशेखर आजाद की भव्य प्रतिमा से होती है। पुस्तकालय परिसर में शहीद ए आजम भगत सिंह की भव्य कांस्य प्रतिमा है, वहीं सभागार के मुख्य द्वार पर कबीर, मीरा व आजादी के शहीदों की मूर्तियां हैं। पुस्तकालय, वाचनालय, सभागार, अतिथि कक्ष सहित सारी दीवारों व चप्पे-चप्पे पर स्वाधीनता आंदोलन से लेकर वर्तमान के साहित्यकारों, कलाकारों, समाज सुधारकों व जननायकों की खुशबू फैली है। तस्वीरें आगंतुकों को इस कदर आकर्षित करती हैं कि आप उनसे मिले बिना आगे बढ़ नहीं सकते। उनका इतिहास रोमांचित करता है। वह हमारी धमनियों में एक नई ऊर्जा का संचार करता है।
इस पुस्तकालय में विभिन्न भाषाओं और विषयों से संबंधित प्राचीन व नयी लगभग चालीस हजार पुस्तकें संग्रहित हैं। यहां जन संस्कृति की छटा ऐसी फैली है कि उससे आप प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते । यहां स्थित ‘देवी वैदेही सभागार’ आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित है। इसका उद्घाटन सुप्रसिद्ध कथाकार कमलेश्वर ने किया। इस मौके पर डा. नामवर सिंह भी उपस्थित थे। उनका कहना था कि ‘यह शब्द संस्कृति का आधुनिक तीर्थ स्थल है’। सभागार में तीन स्तरीय ऐसी व्यवस्था है कि आप गोष्ठी व बैठक कर सकते हैं, सेमिनार आयोजित हो सकता है तथा नाटक व फिल्म के प्रदर्शन की सुविधा है। ऐसे सभागार शहरों में भी कम ही देखने को मिलेंगे।
राजेंद्र राजन जी प्रगतिशील लेखक संघ के पूर्व राष्ट्रीय महासचिव रहे हैं। 1990 से 2005 तक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के विधायक रहे। उन्हीं की पहल पर 2008 में प्रगतिशील लेखक संघ का 14 वां राष्ट्रीय सम्मेलन यहां आयोजित हुआ। इसमें देश भर से सैकड़ों लेखक शामिल हुए जिनमें डॉ. नामवर सिंह, हबीब तनवीर, डॉक्टर विश्वनाथ त्रिपाठी, असग़र अली इंजीनियर, तुलसी राम आदि प्रमुख थे। इसी कड़ी में जन संस्कृति मंच बिहार का दो दिवसीय राज्य सम्मेलन 27 और 28 नवंबर को संपन्न हुआ। इस सम्मेलन के स्वागताध्यक्ष के रूप में राजेंद्र राजन ने न सिर्फ वर्तमान के संकट और चुनौतियों को रेखांकित किया बल्कि सांस्कृतिक क्षेत्र में संयुक्त मोर्चा की जरूरत को मजबूती से पेश किया।
बात अधूरी रहेगी यदि हम राजेंद्र राजन जी के सृजनात्मक अवदान और लेखन की चर्चा ना करें। सामाजिक और राजनीतिक रूप से सक्रिय होने के बावजूद उन्होंने कलम को कभी निष्क्रिय नहीं होने दिया। इसी का ताजा उदाहरण उनका नया उपन्यास ‘लक्ष्यों के पथ पर’ है। गोदरगावां प्रवास के दौरान उन्होंने इस उपन्यास को भेंट किया। साथ ही एक अन्य उपन्यास ‘एक रंग यह भी’, प्रगतिशील लेखक संघ के 14 वें अधिवेशन का दस्तावेज और ‘विप्लवी हांक’ स्मारिका भी।
दोनों दिन जलेस बिहार के सचिव व कवि कुमार विनीताभ का साथ मिला। उनकी वजह से ही ‘समय सुरभि अनन्त’ के संपादक नरेंद्र कुमार सिंह से मिलना संभव हो पाया। नरेन्द्र जी अपनी बीमारी के कारण सम्मेलन में नहीं पहुंच पाए थे। उनसे साहित्य व पत्रकारिता पर बात हुई। कोरोना के संकट काल में भी उन्होंने पत्रिका के प्रकाशन को बनाए रखा। इसे लेकर उनके अन्दर जुनून दिखा। बात सही भी है कि आज की तारीख में लघु पत्रिका का प्रकाशन प्रतिबद्धता, समर्पण और जुनून से ही संभव है। पत्रिका के साथ उन्होंने एक अन्य महत्वपूर्ण कार्य किया है। वह है ‘कविता कानन-3’ का प्रकाशन। यह बेगूसराय जनपद के 81 कवियों का संकलन है। इसमें एक खण्ड ‘धरोहर कविताएं’ है जिसमें रामधारी सिंह दिनकर, राम अवतार यादव ‘शक्र’, रामेश्वर प्रशान्त, डॉक्टर आनन्द नारायण शर्मा आदि की कविताएं हैं। नरेन्द्र जी ने अपनी भावी योजनाओं की चर्चा की। उनके घर में अपनेपन के साथ साहित्य का माहौल छलछलाता दिखा। उनकी जीवन संगिनी स्वयं कवयित्री हैं।