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सिनेमा

आज का प्रोपेगेंडा, कल की हिस्ट्री – ‘ दि ताशकंद फाइल्स ’

नीतू तिवारी

क्या आपने ‘दि ताशकंद फाइल्स’ देखी ? नहीं देखी तो ज़रूर देखिए।  बिना इस बात की परवाह किए कि निर्देशक की पॉलिटिक्स क्या है, एजेण्डा क्या है, रेटिंग क्या है वगैरह-वगैरह।  दरअसल इस फिल्म के साथ बॉलीवुड में ऐतिहासिक घटनाओं को कुरेदने का जो ट्रेंड शुरू हो रहा है वो अपने आप में निरर्थक मनोरंजन और भोंडे क़िस्म की कॉमेडी फ़िल्मों से कहीं बेहतर है.

ज़रूरी नहीं है कि आप फिल्म देखकर उसके निष्कर्षों से सहमत ही हों लेकिन ‘वॉर ऑफ़  नैरेटिव ’ के युग में आप अगर कॉउंटर करना चाहते हैं, असहमत होना चाहते हैं तो आपको पढ़ना होगा.  मेहनत करनी होगी.  अकादमिक रूप से सिनेमाई पीढ़ी जोकि साहित्य, इतिहास, भूगोल और भाषाओँ के ज्ञान से कटकर एक शुन्य समयकाल की कहानियाँ कह रही है, उसे बदलना होगा. मुख्यधारा में हुए कुछ बेहतरीन अपवादों को छोड़ दें तो चलन उन्ही फ़िल्मों का रहा है जिन्हें अपने समय के जन-आन्दोलनों, विमर्शों और संघर्षों से सरोकार ना के बराबर रहा है. यहाँ बतौर दर्शक हम क्यूँ ऐसे सिनेमा को बढ़ावा नहीं देना चाहते जो इतिहास या साहित्य की छन्नी से छनकर आया हो.

अब बात करते हैं, ‘ दि ताशकंद फाइल्स ’ फिल्म के बारे में, तो फ़िल्म बेशक एक प्रोपेगेंडा फ़िल्म कही जा सकती है. लेकिन उस प्रोपेगेंडा को रचने लिए निर्देशक विवेक अग्निहोत्री 52 साल पुरानी एक ऐसी घटना दर्शकों के सामने मिस्ट्री बनाकर ले आते हैं जो इमोशनली कैची टॉपिक है. लोग एकबारगी उचक उठते हैं ये जानने के लिए कि क्या वाक़ई हमारे देश के प्रधानमंत्री के साथ ऐसा हुआ था !! भावनात्मक रूप से विषय को कैश कर पाने में बेशक वे सफल रहे हैं और इसीलिए ढ़ाई करोड़ की लागत वाली यह फ़िल्म अपने पहले हफ्ते में चार करोड़ कमा चुकी है.

फ़िल्म शास्त्री जी की मृत्यु के बारे में एक वन साइडेड स्टोरी है, इसमें कोई दो राय नहीं है. फ़िल्म को सच की शक्ल देने के लिए मित्रोखिन आर्काइव, कुलदीप नय्यर, अनुज धर और कई अन्य लेखकों की किताबों का हवाला दिया गया है. इन किताबों से जो सवाल इतिहास की ओर उछाले गए हैं वो फिलवक़्त तो हमारी ऐतिहासिक स्मृतियों का हिस्सा नहीं हैं . लेकिन लोगों में इस तरह की दबी हुई कहानियाँ दरअसल फ्लोट करती हैं. उन्हीं ‘पॉपुलर नैरेटिव्ज़’ की शक्ल लेकर यह फ़िल्म आज परदे पर है.  हो सकता है कि कल यही पॉलिटिकल हिस्ट्री भी बन जाए और आने वाली पीढ़ियाँ एक कन्फ्यूज्ड इतिहास के साथ बड़ी हों. जहाँ हर घटना के दो आख्यान उनके पास होंगे और तब हम सुविधाजनक इतिहास को सत्यता के ऊपर तरजीह देने लगेंगे.

अगर आप चाहते हैं कि इतिहास एक ही रहे, तो ‘दि ताशकंद फाइल्स’ जैसी फ़िल्मों से आँखें बचाकर मत निकलिए. ये फ़िल्में देखिये और जानिए कि शास्त्री जी की डेथ मिस्ट्री के साथ गुमनामी बाबा का अस्तित्व, होमी भाभा की मौत और पोस्टमॉर्डम व अन्य कई प्रश्नों को कैसे जोड़ा गया है. फिल्म की स्क्रिप्टिंग चाहे जितनी खराब कह लीजिए पर ये फ़िल्म फिर से हिस्ट्री पढ़ने को मजबूर तो करती है. इस बार स्टूडेंट नहीं स्कॉलर बनकर या किसी जर्नलिस्ट की तरह खोज-खोज कर पढ़ने के लिए बाँधती है . पॉलिटिकल अवेयरनेस और नागरिक अधिकारों को लेकर सजगता की माँग करती है. बाकि फ़िल्म में अच्छे एक्टर्स का कैसा बेवजह इस्तेमाल हुआ है  और बैकग्राउंड स्कोर कितना घटिया है आदि बातों की जानकारी के लिए आप गूगल कर सकते हैं.

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