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सिने दुनिया: बारां (पर्शियन)(ईरान): मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का…

प्रेम कहानियों के सिरहाने न जाने कितने दर्द, कितनी तकलीफ़ें दफ़्न हैं। यह बात इसलिए भी कि प्रेम एक सियासी मसला है। सियासत तय करती है कि प्रेम में डूबे दो लोग जब किसी राह से गुज़रते हैं, तो उन्हें धूल उड़ाते दुश्वार रास्ते मिलेंगे या घने दरख़्तों वाली किसी धुन की टेर लगाती कोई राह।
आज एक ईरानी फिल्म पर बात करते हैं। दुनिया की कुछ महान प्रेम कहानियों की बात होती है, तो लतीफ और बारां (रहमत) के खामोश अफसाने की बात भी होती है। एक चौदह साल की लड़की, जिसका कोई मुल्क नहीं है और एक सत्रह साल का लड़का, जो उस लड़की को ही अपना मुल्क और अपना खुदा समझता है। दुनिया के कुछ महान फिल्मकारों में से एक ईरानी फिल्मकार माजिद मजीदी की 2001 में आई फिल्म ‘बारां’ पर बात करें, उससे पहले उन हालात पर कुछ बात करते हैं, जो किसी शख़्स को अपने मुल्क से जुदा कर देता है और किसी लड़की के अरमानों का खून कर देता है।
हमारी नायिका का परिवार अफ़ग़ानिस्तान से ताल्लुक रखता है। उसके पिता नज़फ को अपना मुल्क छोड़ना पड़ता है। चूंकि ईरान पड़ोस में है और खस्ताहाल नायिका का परिवार अमरीका या यूरोप के किसी देश में बसने की हैसियत नहीं रखता, तो वह ईरान पहुंच जाता है। इस कहानी के किरदार भले ही लतीफ, बारां, नज़फ और मेमार हों, लेकिन यह कहानी किसी एक लतीफ और किसी एक बारां की नहीं है। यह कहानी किसी नज़फ की भी नहीं है और किसी मेमार की तो हरगिज़ नहीं।

इस कहानी में दूर-दूर तक अमेरिका नहीं है, सोवियत संघ भी नहीं है, तालिबान भी नहीं है, अल-क़ायदा और ओसामा बिन लादेन भी नहीं है। …लेकिन किसी बारां को अपने मुल्क, अपने गांव से दूर किसी गैर मुल्क की नदी से पत्थर उठाने पड़ते हैं तो उसके लिए ये सभी जिम्मेदार हैं।

‘बारां’ एक पर्सियन फिल्म है। यह इस फिल्म की नायिका का नाम भी है, लेकिन उसके इस नाम का जिक्र फिल्म में सिर्फ एक बार आता है। बाकी पूरे समय वह रहमत नाम से जानी जाती है। पर्सियन जुबान में बारिश को भी बारां कहते हैं। तो यह कहानी बारां यानी रहमत और लतीफ की है। यह फिल्म आपको सराबोर कर देगी।

यूं तो दुनियाभर में प्रेम की अनुभूतियां ग़ालिबन एक-सी होती हैं, लेकिन ‘बारां’ देखने के बाद आप कह सकते हैं कि माजिद मजीदी का है अंदाज-ए-बयां कुछ और…
यह कहानी तालिबानियों के आतंक के दौरान अफ़ग़ानिस्तान से अपने परिवार के साथ तेहरान पहुंची एक 14 साल की लड़की रहमत और वहीं मजदूरी करने वाले 17 साल के लड़के लतीफ की है। सर्दियों के दिन हैं। एक इमारत बनाई जा रही है, वहीं ये दोनों काम करते हैं। हुआ यूं कि एक रोज एक बूढ़ा मजदूर घायल हो जाता है। उसका पैर कट जाता है, तो अगले रोज उसके स्थान पर काम करने उसका 14 साल का बेटा रहमत आता है।
ठेकेदार देखता है कि वह कमजोर है और पिता के स्थान पर काम नहीं कर पा रहा है तो उसे लतीफ वाला काम चाय, नाश्ता बनाने, बर्तन धोना बगैरह दे दिया जाता है। लतीफ को मुश्किल काम दे दिया जाता है। इससे लतीफ चिढ़ जाता है। वह उससे इंतकाम लेने की बात कहता है और तरह-तरह से परेशान करता है। एक सुबह रहमत काम पर आता है तो लतीफ छुपकर छत से उसके ऊपर पानी फेंक देता है। इसके बाद वह पाता है कि मजदूरों के कमरे से किसी लड़की के गुनगुनाने की आवाज़ आ रही है। वह कमरे में झांकता है तो कोई खूबसूरत लड़की अपने बाल बना रही होती है।
लतीफ इतने दिनों में नहीं देख पाया था कि रहमत के लड़कों के हुलिए के पीछे एक खूबसूरत लड़की रहती है। तब से वह शांत हो गया। पूरा बर्ताव बदल गया। लड़के को दुनिया की सबसे महान बीमारी ‘मोहब्बत’ हो गई। ईरान में कोई भी शरणार्थी सरकार द्वारा जारी किए गए पहचान पत्र के बगैर काम नहीं कर सकता। इन कार्डों की कालाबाज़ारी भी होती है और जिसके पास ये कार्ड है, वह खुशनसीब तो है ही, कुछ अमीर भी है। क्योंकि वह कभी भी ऊंचे दामों पर अपना कार्ड बेच सकता है।
कालाबाज़ारी करने वाले इस कार्ड पर किसी और की फोटो चिपकाकर और ऊंचे दामों पर बेच देते हैं। …तो जिन अफ़ग़ानियों के पास कार्ड नहीं हैं, वे बहुत कम मजदूरी पर चोरी-छुपे काम करते हैं। रहमत जहां काम करती है, वहां एक रोज छापा पड़ता है और उसकी नौकरी चली जाती है। लतीफ की वजह से वह भागने में कायमाब हो जाती है और गिरफ्तारी से बच जाती है। शर्दियों में भी लतीफ का मन बिरहा की आग में जलने लगता है। वह रहमत को ढूंढने निकल पड़ता है। जैसे-तैसे ढूंढता है और देखता है कि रहमत का परिवार बेहद बुरे हालात में है तो अपनी पहचान छुपाकर दूसरों के मार्फ़त उसकी हर संभव मदद करने की कोशिश करता है। अपनी कुल जमा पूंजी उसके लिए भिजवा देता है।
उसका अपाहिज स्वाभिमानी बाप उसे लेने से इनकार कर देता है। उसी रात उस आदमी के साथ कोई हादसा हो जाता है, जिसके द्वारा मदद पहुंचाई गई थी। वह आदमी लतीफ का पैसा लेकर अफ़ग़ानिस्तान चला जाता है। वह एक कागज का पुर्जा छोड़ जाता है, जिस पर लिखा होता है कि हसन रजा अलैहिस्सलाम की कसम खाता हूं कि मैं लौटूंगा और सारे पैसे वापस कर दूंगा। इससे यह भी पता चलता है कि वहां ज्यादातर काम करने वाले शिया मुसलमान हैं।
रहमत अफ़ग़ानिस्तान के जिस शहर बामियान की रहने वाली है, उस पर तालिबानियों का कब्जा हो गया है। उसका चाचा शहीद (हो सकता है कि वह आतंकवादी संगठन में काम करता हो) हो गया है। रहमत के अपने लोगों को मदद की जरूरत है। सब परेशान हैं। रहमत का पिता उस ठेकेदार नेमार के पास पैसा मांगने जाता है, जो देने से इनकार कर देता है। लतीफ के पास कुछ नहीं बचा मदद करने को। वह दलालों के पास जाता है और अपना पहचान पत्र बेच देता है। हालात कुछ ऐसे हैं कि अपनी पहचान बेचना, खुद को बेचने जैसा है। इससे मिला पैसा लेकर लतीफ रहमत के घर जाता है और कहता है कि यह पैसा नेमार ने भेजा है। रहमत का पिता नेमार को खूब दुआएं देता है। लतीफ को जब पता चलता है कि रहमत का परिवार अफ़ग़ानिस्तान जा रहा है तो लतीफ का दिल जिस्म छोड़कर उस रास्ते पर जा गिरता है, जहां अगली सुबह रहमत को ले जाने वाली गाड़ी खड़ी है। इस पूरी फिल्म में लड़की का एक भी संवाद नहीं है।
फिल्म का एक सीन है कि बारिश हो रही है और लड़की परिवार के साथ अपने मुल्क वापस लौट रही है। वह गाड़ी में बैठ रही है। लतीफ देख रहा है। रहमत नज़र उठाकर लतीफ को देखती है, जैसे भरोसा दे रही हो कि मैं आऊंगी। मेरा इंतज़ार करना।
ऐसा जान पड़ता है, जैसे लतीफ अब भी वहीं खड़ा है। वह रहमत के इंतज़ार में भीग रहा है। क्या रहमत सच में चली गई है। क्या रहमत लौट आती है, यह आप खुद देखें तो बेहतर है।
एक बनती कहानी के दरमियां कौन आ गया
भारत समेत दुनिया के कुछ देश दूसरे विश्व युद्ध के बाद आज़ाद हुए थे, लेकिन अफ़ग़ानिस्तान पहले विश्व युद्ध के बाद ही 1919 में अंग्रेजों की ग़ुलामी से आज़ाद हो गया था। बस फर्क इतना है कि आज़ादी के बाद भारत एक रिपब्लिक स्टेट बना और अफ़ग़ानिस्तान में राजशाही आई। अगर अफ़ग़ानिस्तान भी दूसरे विश्व युद्ध के बाद आज़ाद हुआ होता, तो इस बात की पूरी संभावना थी कि वह भी एक डेमोक्रेटिक मुल्क बनता।
अगर ऐसा होता तो शायद वहां के लोगों को तालिबानी आतंक के साये में न जीना पड़ता। कोई अमेरिका और कोई लादेन अपने मंसूबों को अंजाम न दे पाता। एक मुख़्तसर सी कहानी ये है कि 1933 से 1973 के बीच ज़ाहिर शाह की हुकूमत में देश सबसे ज्यादा खुशहाल था। राजशाही के बावजूद इस दौरान देश आधुनिकता की ओर बढ़ा। औरतों की शिक्षा पर काम शुरू हुआ। जाहिर शाह जब इटली गए हुए थे, 1973 में उनके चचरे भाई मोहम्मद दाऊद खान ने अफ़ग़ानिस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ अफ़ग़ानिस्तान (पीडीपीए) के साथ मिलकर तख्ता पलट कर दिया।
राजशाही खत्म हुई और दाऊद खान प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दोनों बन गए। पीडीपीए को ताकत मिली तो 1979 में सोवियत संघ भी अफ़गानिस्तान में आ गया। सोवियत आया तो अमेरिका को आना ही था। अमेरिका ने पाकिस्तान के मार्फत अफ़ग़ानिस्तान में पैसा भेजना शुरू किया। इस पैसे ने यहां तालिबान पैदा किए, जिन्होंने 1989 में सोवियत को तो खदेड़ दिया, लेकिन इसका अंजाम जो होना था, वही हुआ। देश बदहाल होता गया। कट्टरपंथ और आतंकवाद बढ़ता गया। सोवियत के जाते ही अमेरिका ने यहां अपनी फौज भेज दी, जो आज तक जमी हुई है। अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान में पैसों की नदियां बहा दीं। ये पैसा आम अफ़ग़ानी की तरक्की के लिए नहीं था, बल्कि आतंकवाद के लिए था। दुनिया की करीब 90 फीसदी हेरोइन अफ़ग़ानिस्तान में पैदा होती है। इस पर सबकी नज़र थी।
सऊदी अरब के एक बड़े बिजनेस घराने के लड़के को इसमें बड़ा करियर दिखा और उसने एक संगठन बनाया अल-क़ायदा। जी हां, ओसामा बिन लादेन को पैदा करने वाला अमेरिका था, जो बाद में नाइन इलेवन हमले के रूप में उसी के सिर पर गिरा। तालिबान, आतंक और बदहाली से तंग आकर तमाम लोगों को अपना मुल्क छोड़ना पड़ा। पाकिस्तान में जो ज्यादातर पश्तून हैं, वे अफ़ग़ानी ही हैं। ईरान में बड़ी तादाद में अफ़गानियों ने शरण ली है। रेकॉर्ड के मुताबिक करीब 10 लाख अफ़ग़ानी ईरान में हैं, लेकिन हकीकत में यहां करीब 40 लाख अफ़ग़ानी रहते हैं।

माजिद मजीदी की नायिका और उसका परिवार उन 30 लाख लोगों में शुमार है, जो अवैध रूप से यहां रह रहे हैं और जिन पर आए दिन यहां छापा पड़ता रहता है। आए दिन जिन्हें यहां से खदेड़ दिया जाता है या नदी में फेंक दिया जाता है। ठीक एक साल पहले मई 2020 में ईरानी सीमा सुरक्षा बल के जवानों ने 70 अफ़ग़ानियों को नदी में फेंक दिया था, जिनमें से ज्यादातर डूबकर मर गए थे। ये डूबे हुए लोग ही बारां की अधूरी दास्तान हैं।

(शीर्षक ग़ालिब के एक शेर का मिसरा है और तसवीरें गूगल से ली गयी हैं)

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