इस कहानी में दूर-दूर तक अमेरिका नहीं है, सोवियत संघ भी नहीं है, तालिबान भी नहीं है, अल-क़ायदा और ओसामा बिन लादेन भी नहीं है। …लेकिन किसी बारां को अपने मुल्क, अपने गांव से दूर किसी गैर मुल्क की नदी से पत्थर उठाने पड़ते हैं तो उसके लिए ये सभी जिम्मेदार हैं।
‘बारां’ एक पर्सियन फिल्म है। यह इस फिल्म की नायिका का नाम भी है, लेकिन उसके इस नाम का जिक्र फिल्म में सिर्फ एक बार आता है। बाकी पूरे समय वह रहमत नाम से जानी जाती है। पर्सियन जुबान में बारिश को भी बारां कहते हैं। तो यह कहानी बारां यानी रहमत और लतीफ की है। यह फिल्म आपको सराबोर कर देगी।
यह कहानी तालिबानियों के आतंक के दौरान अफ़ग़ानिस्तान से अपने परिवार के साथ तेहरान पहुंची एक 14 साल की लड़की रहमत और वहीं मजदूरी करने वाले 17 साल के लड़के लतीफ की है। सर्दियों के दिन हैं। एक इमारत बनाई जा रही है, वहीं ये दोनों काम करते हैं। हुआ यूं कि एक रोज एक बूढ़ा मजदूर घायल हो जाता है। उसका पैर कट जाता है, तो अगले रोज उसके स्थान पर काम करने उसका 14 साल का बेटा रहमत आता है।
भारत समेत दुनिया के कुछ देश दूसरे विश्व युद्ध के बाद आज़ाद हुए थे, लेकिन अफ़ग़ानिस्तान पहले विश्व युद्ध के बाद ही 1919 में अंग्रेजों की ग़ुलामी से आज़ाद हो गया था। बस फर्क इतना है कि आज़ादी के बाद भारत एक रिपब्लिक स्टेट बना और अफ़ग़ानिस्तान में राजशाही आई। अगर अफ़ग़ानिस्तान भी दूसरे विश्व युद्ध के बाद आज़ाद हुआ होता, तो इस बात की पूरी संभावना थी कि वह भी एक डेमोक्रेटिक मुल्क बनता।
माजिद मजीदी की नायिका और उसका परिवार उन 30 लाख लोगों में शुमार है, जो अवैध रूप से यहां रह रहे हैं और जिन पर आए दिन यहां छापा पड़ता रहता है। आए दिन जिन्हें यहां से खदेड़ दिया जाता है या नदी में फेंक दिया जाता है। ठीक एक साल पहले मई 2020 में ईरानी सीमा सुरक्षा बल के जवानों ने 70 अफ़ग़ानियों को नदी में फेंक दिया था, जिनमें से ज्यादातर डूबकर मर गए थे। ये डूबे हुए लोग ही बारां की अधूरी दास्तान हैं।
(शीर्षक ग़ालिब के एक शेर का मिसरा है और तसवीरें गूगल से ली गयी हैं)