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 किन्नर समुदाय: प्रचलित धारणाएँ और यथार्थ

रविवार 16 अगस्त 2020 को कोरस के फेसबुक लाइव ‘स्त्री संघर्ष का कोरस’ में ‘वर्तमान भारतीय संदर्भ में किन्नर समुदाय’ विषय पर  परिचर्चा की गई । यह परिचर्चा तृतीय लिंगी समुदाय की सम्पूर्ण जीवन पद्धति, उनकी सामाजिक, आर्थिक स्थिति और उनके बारे में सामाजिक मान्यताओं की पड़ताल से शुरु हुई । इस बातचीत में पटना से ट्रांसजेंडर एक्टिविस्ट व दोस्ताना सफर (बिहार) संस्था की संस्थापक सचिव रेशमा प्रसाद तथा जे.एन.यू. की शोधार्थी हर्षिता द्विवेदी शामिल हुईं | कार्यक्रम का संचालन कोरस की साथी दिव्या गौतम ने किया।  इस पूरी बातचीत को तीन-चार पक्षों या संदर्भों के आलोक में देखा-समझा जा सकता है  |

इस समुदाय की सामाजिक स्वीकृति  पर बात करते हुए रेशमा कहती हैं कि समाज चाहे जिस तरह से विकास कर गया हो लेकिन वह अपने भीतर, अपने संस्कारों के भीतर या अपने व्यवहारों के भीतर किन्नर समुदाय को कुछ खास संज्ञा से ही संबोधित करता है जैसे ‘हिजड़ा’ ,’खुसरा’, ‘मुखन्नस’, ‘रावनी’, ‘किन्नर’, ‘मौगा’ आदि। वह कहती हैं कि हम भी इसी समाज का हिस्सा हैं लेकिन समाज हमारे प्रति कतई संवेदनशील नहीं है। राह चलते पब्लिक प्लेस पर हमारे कम्युनिटी के लोगों को सेक्सुअलिटी और जेंडर को लेकर भद्दे कमेंट और ताने सुनने पड़ते हैं। जो किन्नर ट्रेडिशन को फॉलो करते हैं उन्हें लोग आशीर्वाद के लिए खुले मन से बुलाते हैं लेकिन वही लोग ये नहीं समझते कि जब उनके आस-पास कोई ऐसा बच्चा होता है और किशोरावस्था में आते-आते उसके व्यवहार में परिवर्तन होने लगता है तो सब से पहले समाज ही उन्हें ताना देने लगता है।  अपनी बात को आगे बढ़ाती हुई रेशमा कहती हैं कि हम थर्ड जेंडर किसी शादी- समारोह में जब भी शामिल होंगी तो ढोल लेकर ही शामिल होंगी? एक सामान्य मनुष्य की तरह हमें किसी समारोह में कभी नहीं बुलाया जाता। समाज के एक बड़े हिस्से को हमने अपने सार्वजनिक जीवन से बाहर कर रखा है। इन बातों के परिप्रेक्ष्य में  रेशमा जी के जो सवाल है वह आज महज थर्ड जेंडर की अपनी आजादी या अपने अस्तित्व की रक्षा या सामाजिक स्वीकृति  की बात नहीं है बल्कि अपने अस्तित्व को सामाजिक व्यवहारों में शामिल कर लिए जाने की एक सैद्धांतिक बहस है और यह तृतीय लिंगी समुदाय के लिए एक महत्वपूर्ण बात है।

 स्त्री, स्त्रीत्व, प्रेम–  थर्ड जेंडर समुदाय के व्यक्तिगत जीवन पद्धति पर  बातचीत करती हुई रेशमा प्रसाद ने कहा कि यहाँ आधी -अधूरी औरत पूरी औरत होना चाहती है, और यह जो पूरी औरत होने की यात्रा है वह किसी प्रचलित लिंग में आने के बाद की यात्रा नहीं है बल्कि जिस में  वह जीवन जी रही हैं उसी लिंग में पूर्णता प्राप्त करने की बात है। रेशमा  आगे कहती हैं  कि प्रेम कोई भी और किसी से भी कर सकता है, प्रेम के लिए स्त्री या पुरुष में किसी विशेष अंग का होना जरूरी नहीं है। यह गौर करने वाली बात है कि क्या प्रेम स्त्री या पुरुष में किसी विशेष अंगों के होने के बाद ही सृजित होता है? यदि किसी स्त्री या पुरुष में विशेष अंग नहीं है तो वह प्रेम नहीं कर सकते? प्रेम का संबंध लिंग से नहीं है, प्रेम एक सार्वभौम सत्य है। प्रेम के लिए किसी लिंग में होना या किसी विशिष्ट लिंग का होना आवश्यक नहीं है | यह जो मुक्ति की बात है यह रेशमा प्रसाद की उस मूल बात से जा मिलती है जब वह कहती हैं कि एक अधूरी औरत एक मुकम्मल औरत बनना चाहती है यह उसकी यात्रा है। एक पक्ष तो प्रेम के संदर्भ का है प्रेम के इन्हीं शाश्वत प्रश्नों पर बहुत पहले ही एक दार्शनिक एरिक फ्रॉम ने विस्तार से अपनी पुस्तक ‘द आर्ट ऑफ लविंग’ (प्रेम का वास्तविक अर्थ और सिद्धांत) में लिखा है। थर्ड जेंडर के संदर्भ से जो बातचीत है इसकी एक धूरी तो यह है।

बातचीत की तीसरी धुरी यह मानी जा सकती है जिसमें कि देश की या किसी राज्य की जो आर्थिक आजादी है या आर्थिक उपलब्धि है उसमें इस समुदाय का प्रतिनिधित्व कहाँ तक है। रेशमा किन्नर समुदाय को सामाजिक रूप से मुख्य धारा में जोड़ने के लिए सरकार द्वारा समुचित प्रबंध करने और शिक्षा एवं नौकरियों में आरक्षण की बात करती हैं। वह बड़े पैमाने पर वर्तमान समय के कोरोना संकट में गरीबों के लिए सरकार द्वारा की जा रही मदद के संदर्भ से हवाला देती हैं कि ये मदद भी जहां वह रह रहीं हैं उनके समुदाय तक नहीं  पहुंच रही थी जिसके  लिए  पटना में इन लोगों ने कई संघर्ष किये  जिससे कि सरकारी योजनाओं में इस समुदाय को भी शामिल किया जाए क्योंकि इनके भी रोजगार छिने हैं।

इसी से जुड़ते हुए संदर्भ से इस बात का भी इस चर्चा में उल्लेख होता है कि तमिलनाडु और केरल सरकार में थर्ड जेंडर को नौकरियों में जगहें मिली और सामाजिक मान्यता भी प्राप्त हुई है और सरकारी योजनाओं में भी लाभ मिलने की प्रक्रिया इन दो राज्यों में बड़े पैमाने पर शुरू हुई है, यहीं पर वह बताती है कि किस तरह केरल सरकार में 24 से 25 थर्ड जेंडर लोगों की नियुक्ति की गई । शोधार्थी हर्षिता द्विवेदी एक महत्वपूर्ण बात यहां पर हस्तक्षेप करते हुए कहती हैं कि नौकरी करते हुए कई थर्ड जेंडर लोगों ने आगे जा कर नौकरी छोड़ दी। उन्होंने कहा कि आर्थिक उपलब्धि या आर्थिक मोर्चे पर थर्ड जेंडर के लिए सफलता प्राप्त कर लेना ही मूल लक्ष्य नहीं होना चाहिए बल्कि इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि किन कारणों से नौकरी में आने के बाद भी वह नौकरी छोड़ देते हैं । इसका कारण कार्य स्थल पर उनका उत्पीड़न है, जो कि मानसिक तथा शारीरिक दोनों प्रकार का है। इस उत्पीड़न से आजिज आकर वे अपनी नौकरियां छोड़ रही हैं। हर्षिता कहती हैं कि सोशल सिक्योरिटी थर्ड जेंडर के लिए बहुत जरूरी है ।जब तक उन्हें सोशल सिक्योरिटी नहीं मिलेगी तब तक आर्थिक रूप से सक्षम हो जाने के बाद भी बहुत कुछ हासिल नहीं कर सकती हैं।

हर्षिता अपनी बातचीत में इस बात का भी उल्लेख करती हैं कि वह स्वयं भी अपने शुरुआती समय में थर्ड जेंडर को लेकर कितनी सशंकित थीं और यह जो शंका उनकी थी वह सामाजिक और पारिवारिक परिस्थितियों से उपजती है। जब वे इस क्षेत्र में शोध करने के लिए निकलती है और कुछ हकीकतों से उनका वास्ता पड़ता है तब उन्हें इस बात का एहसास होता है कि किन्नर समुदाय के बारे में जो सामाजिक और पारिवारिक मान्यताएं हैं वह कितनी खराब और समाज को गलत दिशा में ले जाने वाली है। उसमें एक नासमझ किस्म की समझ लोगों के बीच मे गहरे से जड़ें जमा चुकी हैं।

रेशमा प्रसाद बातचीत के दौरान ट्रांस जेंडर और थर्ड जेंडर के अंतर को बताते हुए कहती हैं कि- ट्रांस जेंडर में जो बायोलॉजिकल बर्थ सेक्सुअलिटी होती है उसके विपरीत अपनी पहचान को इंगित करते हैं और थर्ड जेंडर सुप्रीम कोर्ट के द्वारा 2014 में दी हुई आईडेंटिटी है। अपनी बात रखते हुए ट्रांसजेंडर या ये कहें कि ट्रांसमैन या ट्रांसवूमेन के संदर्भ में कहती हैं कि वह मानसिक रूप से स्वयं को जो मानते हैं और उसी रूप में समाज के सामने पहचाने जाने की मांग करते हैं पर उन्हें उनके पुराने पहचान के आधार पर ही ट्रीट किया जाता है। उनकी आईडेंटिटी जिसे बहुत संघर्षों और बहुत हिम्मत के बाद उन्होंने डिस्क्लोज किया है उससे नहीं पहचाना जाता, इनके लिए आइडेंटिटी और प्रोनाउंसिएशन का मुद्दा बड़ा मुद्दा है।

समाज में प्रचलित किन्नरों के लिए जो अलग – अलग शब्दावली है उन सारे शब्दों के हवाले से भी रेशमा प्रसाद अपनी बात रखती हैं और कहती हैं कि कैसे उनके लिए बुलाए जाने वाले ‘हिंजड़ा’ या ‘छक्का’ इन सारे शब्दों का इस्तेमाल सामान्य जीवन में लोगों को नीचा दिखाने के लिए किया जाता है मतलब किसी को भी गाली देनी है तो उसे ‘छक्का’ या ‘हिजड़ा’ कह दिया जाता है… इन शब्दों का इस्तेमाल केवल पुरुष ही एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए नहीं करते हैं बल्कि औरतें भी दूसरी औरतों को जिनके बच्चे नहीं होते हैं उन को नीचा दिखाने के लिए करती हैं। इसके साथ ही तृतीय लिंगी समुदाय के रहने की जो स्थितियाँ हैं उस पर बात करती हुई वह कहती हैं कि उनके रहने के लिए कोई साफ जगह नहीं मिली है छोटी-छोटी सकरी गलियों और छोटे-छोटे कमरों में रहने के लिए वह सब मजबूर हैं और सरकारी योजनाओं से बहुत दूर है, यहीं पर वह बताती हैं कि छत्तीसगढ़ सरकार की ओर से उन सब के रहने का प्रबंध मेनस्ट्रीम के लोगों के साथ किया गया है।

दिव्या द्वारा यह पूछे जाने पर कि इस समुदाय को लेकर क्या कुछ लिखा गया है, इस संदर्भ में रेशमा जी कहती हैं कि आजतक जो भी लिखा गया है उसमें इस समुदाय  के बारे में मनगढ़ंत तरीके से अपनी बात रखी गयी है। अकादमिक संस्थानों या किसी भी लेखक के द्वारा जो भी लिखा गया है इस समुदाय के संदर्भ में या जो भी चीजें उपलब्ध है वह बेकार हैं ।यहीं पर वे भारत के रिसर्च संस्थानों को लेकर भी कटाक्ष करती हैं कि  आई. सी.सी.आर. एवं यू.जी.सी. वगैरह जो संस्थाएं रिसर्च कराती हैं वह किस तरह से केवल झूठ के कागजों का पुलिंदा है। जिसमें वास्तविक जीवन की समस्यायें नहीं आ पाती।  कोई भी संस्थान या उससे जुड़े हुए लोग जो इस समुदाय के बारे में लिखने या शोध करने का दावा करते हैं वो मात्रा नाम के लिए है सच्चाई नहीं।  इस बात पर आपत्ति करते हुए शोधार्थी हर्षिता कहती हैं कि ऐसा नहीं है बहुत से लोग हैं जो रिसर्च के बाद भी इस समुदाय के बारे में अपने स्तर पर प्रयास कर रहें हैं, हालांकि वह भी इस बात से सहमत नजर आती हैं कि साहित्य और इतिहास में इनको लेकर बहुत कुछ नहीं लिखा गया है जितना कि होना चाहिए।

अपने शोध की शुरुआती पृष्ठभूमि की चर्चा करते हुए हर्षिता बताती हैं कि इतिहास में इनकी उपस्थिति का जो प्रमाण मिलता है वह महाभारत में है जिसे मिथक ही माना जाता है। जिसमें वह महाभारत के बृहन्नला और शिखंडी की तरफ जाती हैं लेकिन वह यह कहती हैं कि साहित्य की छात्रा होने के नाते उन्हें साहित्य में बहुत पहले से कुछ नहीं मिलता है।  इतिहास में देखें तो कई ऐसे चरित्र हमें मिलते हैं जैसे -अलाउद्दीन खिलजी के साथ रहने वाले मलिक काफूर के बारे में कहा जाता है कि वह भी एक हिजड़ा था। भारतीय इतिहास में खासकर मध्यकालीन इतिहास में कई जगह पर कुछ प्रमाणों के साथ कुछ बिना प्रमाणों के साथ इस बात का उल्लेख मिलता है कि राज दरबारों में जो हिंजड़ा या जिसे तृतीय लिंगी कहा जाता है यह लोग ज्यादा संख्या में हुआ करते थे और यह भी उल्लेख मिलता है कि राजा अपने रनिवासों में अपनी रानियों की सुरक्षा के लिए जो सुरक्षा प्रहरी नियुक्त करते थे उन सुरक्षाकर्मी के रूप में वह पुरुषों को ना रख कर इस इस तरह के मजबूत हिजड़ों को रखते थे इस तरह की कई कथाएं कई उपकथाएं या कुछ प्रमाण पुष्ट और कुछ अपुष्ट तरह से इतिहास में मिलता है।

साहित्य की बात खासतौर पर हिंदी साहित्य के बात पर शोधार्थी हर्षिता द्विवेदी कहती हैं कि साहित्य में बहुत पहले से कुछ नहीं मिलता है आगे चलकर 1980 में ‘दरमियां’ नामक कहानी जो उस समय ‘सारिका’ में प्रकाशित हुई थी उस कहानी में इसका उल्लेख मिलता है इसके बाद धीरे-धीरे इस समुदाय को लेकर साहित्य में थोड़ी बहुत बातें आती हैं जिनमें आगे चलकर ‘गुलाम मंडी’, ‘यमद्वीप’, ‘पोस्ट बॉक्स न. 203 नाला सोपारा’ तक को देखा जा सकता है लेकिन साहित्य में थर्ड जेंडर का जो आना है वह सेक्सुअलिटी के लिहाज से आना है इस बात को भी इंगित करती है।

साहित्य पर बात करते हुए रेशमा प्रसाद कहती हैं कि थर्ड जेंडर को उसकी सेक्सुअलिटी को ही लेकर जानने -परखने की जो पद्धति अकादमिक जगत में विकसित हुई है चाहे या अनचाहे वह एक ठीक बात नहीं है इससे उसको मुक्त होना जरूरी है। दरअसल रेशमा प्रसाद बिना नाम लिए भी अप्रत्यक्ष रूप से इस दशक में लिखे गए उपन्यास ‘नाला सोपारा’ की भी चर्चा करती हैं जिसे  साहित्य अकादमी सम्मान दिया गया। वो कहती है कि इस समुदाय पर पुस्तक लिख कर और उन कृतियों पर सरकार द्वारा पुरस्कार भी दे दिया जाता है लेकिन ये सभी कृतियाँ हमारे वास्तविक जीवन से कोसों दूर हुआ करती हैं। इस तरह उन्होंने अकादमिक दुनिया और लेखक समुदाय द्वारा उस समुदाय के बारे में बरते जाने वाले व्यवहार पर तीखी टिप्पणी करती हैं।

बातचीत के अंत मे रेशमा जी ने अपनी कुछ कविताएं भी पढ़ी।

 

प्रस्तुति-  दीप्ति मिश्रा

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