लखनऊ, 01 जुलाई। प्रसिद्ध दलित चिन्तक प्रो तुलसी राम की जयन्ती के अवसर पर लखनऊ के कैफी आजमी एकेडमी में ‘प्रो तलसी राम का चिन्तन: वामपंथ और अम्बेडकरवाद’ के बीच संवाद’ विषय पर परिसंवाद/व्याख्यानमाला का आयोजन किया गया। जन संस्कृति मंच और प्रो तुलसीराम स्मृति संवाद श्रृंखला द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम की अध्यक्षता जाने माने कथाकार शिवमूर्ति ने तथा संचालन युवा लेखक रामनेरश राम ने किया।
ज्ञात हो कि प्रो तुलसीराम के साहित्यिक व सांस्कृतिक योगदान को रेखांकित करने और उनके सरोकारों से लोगों को परिचित कराने के लिए 2015 में ‘ प्रो.तुलसीराम स्मृति संवाद श्रृंखला ’ का गठन किया गया। इसके अंतर्गत इसके पहले देश के विभिन्न शहरों में चार आयोजन हो चुके हैं। इस बार यह पाँचवां आयोजन था।
जसम लखनऊ के संयोजक के स्वागत से कार्यक्रम की शुरुआत हुई। प्रो तुलसी राम के चिन्तन पर बात करते हुए आलोचक वीरेन्द्र यादव ने कहा कि वे जमीनी बुुद्धिजीवी थे। उनका चिन्तन अपनी जड़ों की तरफ वापसी की ओर था। उन्होंने जहां मार्क्सवाद के रास्ते दलित आंदोलन का क्रिटिक रचा, वहीं उन्होंने वामपंथ के अन्दर मौजूद जातिवादी प्रवृतियों का भी विरोध किया। जब भी ऐसे मौके आये जब उनको लगा कि एक अच्छे कामरेड, एक अच्छे संगठनकर्ता होने के बाद भी उनको वह जगह और महत्त्व प्राप्त नहीं हुई तब उन्होंने अपने आप को दलित महसूस किया। उनका मार्क्सवाद से उस तरह का कभी मोहभंग नहीं हुआ जिस तरह एक ज़माने में मीनू मसानी का हुआ था या अंतराष्ट्रीय स्तर पर दूसरे नेताओं का मोहभंग हुआ। वामपंथ से उनका जुड़ाव अंत तक कायम रहा।
वीरेन्द्र यादव ने आगे कहा कि उन्होंने जब अम्बेडकर का अध्ययन किया तो कम्युनिस्ट नेताओं और अम्बेडकर के बीच के मतभेद के कारणों को जाना। अरुण शौरी ने तो अम्बेडकर के खिलाफ वॉरशिपिंग ऑफ फॉल्स गॉड जैसी किताब लिखी लेकिन कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों ने जब स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास लिखा तो उसमें भी अम्बेडकर के बारे में कोई अच्छा नहीं लिखा। तुलसीराम जी जब इन चीजों का विरोध करते थे तो कम्युनिस्ट विरोध की जमीन से नहीं करते थे। बल्कि भूल सुधार के नज़रिए से ही करते थे। जहाँ वे वामपंथ की अनुपस्थियाँ जानते थे वहीं वे दलित आंदोलन की भी अनुपस्थियाँ जानते थे। दोनों के प्रति आलोचनात्मक नजरिया अपनाते थे। आज जिस तरह हिन्दुत्ववादी शक्तियां आक्रामक हैं, तुलसी राम के विचार मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद के बीच पुल का काम करते हैं। इन दोनों को आज साथ होना ही चाहिए।
वीरेन्द्र यादव ने आगे कहा कि उन्होंने जब अम्बेडकर का अध्ययन किया तो कम्युनिस्ट नेताओं और अम्बेडकर के बीच के मतभेद के कारणों को जाना। अरुण शौरी ने तो अम्बेडकर के खिलाफ वॉरशिपिंग ऑफ फॉल्स गॉड जैसी किताब लिखी लेकिन कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों ने जब स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास लिखा तो उसमें भी अम्बेडकर के बारे में कोई अच्छा नहीं लिखा। तुलसीराम जी जब इन चीजों का विरोध करते थे तो कम्युनिस्ट विरोध की जमीन से नहीं करते थे। बल्कि भूल सुधार के नज़रिए से ही करते थे। जहाँ वे वामपंथ की अनुपस्थियाँ जानते थे वहीं वे दलित आंदोलन की भी अनुपस्थियाँ जानते थे। दोनों के प्रति आलोचनात्मक नजरिया अपनाते थे। आज जिस तरह हिन्दुत्ववादी शक्तियां आक्रामक हैं, तुलसी राम के विचार मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद के बीच पुल का काम करते हैं। इन दोनों को आज साथ होना ही चाहिए।
बीज वक्तव्य युवा आलोचक व जसम उत्तर प्रदेश के सचिव रामायण राम ने दिया। उनका कहना था कि वामपंथी आंदोलन और दलित आंदोलन के बीच संवाद के लिए प्रो तुलसी राम सबसे उपयुक्त व्यक्ति हैं। उनकी वैचरिक यात्रा बुद्ध, अम्बेडकर और मार्क्सवाद से होकर गुजरती है। आज जहां स्थापित दलित आंदोलन में वामपंथ विरोध है। उनके मन में वामपंथ को लेकर सवाल शंकाएं हैं, वहीं दलित आंदोलन का नया परिप्रेक्ष्य जो उना, कोरे भीमागांव, रोहत वेमुला, सहारनपुर आदि की घटनाओं से उभरा है वह अपना स्वाभाविक मित्र तलाश रहा है। उसने वामपंथ से एकता स्थपित की है। वहीं, वामपंथी आंदोलन भी उनसे संवाद व एकता में है। वामपंथ ने भी अम्बेडकर के विचारों से तादात्म्य स्थापित किया है। तुलसीराम का चिन्तन इस बहस में कारगर है। फासीवाद के इस दौर में उनका चिन्तन विमर्श को अंधी गली से निकालता है। वामपंथ व अम्बेडकरवाद के बीच एकता व संवाद हो यह भारत के जनवादी आंदोलन की जरूरत है।
वन्दना मिश्र का कहना था कि प्रो तुलसी राम एकेडेमिक एक्टिविस्ट थे। उनके ऊपर बुद्ध और अम्बेडकर का असर था। लम्बे समय तक वामपंथियोंने ने अम्बेडकर के महत्व को नकारा। प्रो तुलसीराम जैसे चिन्तकों ने वैचारिक जमीन तैयार की है। प्रो सूरज बहादुर थापा ने कहा कि आज फासीवाद जिस तरह सामाजिक ताने-बाने को तोड़ रहा है ऐसे में वाम और दलित को साथ आना जरूरी है। इसकी आशा प्रो तुलसी राम जगाते हैं। उनमें तार्किक नूकीलापन दिखता है। गौरतलब है कि भारत में जैसा भी नवजागरण आया, वह दलितों के लिए नहीं था। तुलसीराम का चिन्तन सांस्कृति व सामाजिक प्रश्नों इटली के ग्राम्शी से मिलता है। वे न सिर्फ दलितों के अन्दर के जातिवाद के विरूद्ध थे बल्कि वैचारिक एकता में उनके यहां सवर्ण व दलित जैसा कोई बंटवारा नहीं है। गोरख पाण्डेय के साथ की उनकी दोस्ती इसका सबल उदाहरण है।
सामाजिक चिन्तक एस आर दारापुरी का कहना था कि मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। ये दोनों शोषण को खत्म करना चाहते हैं। अम्बेडकर ने लेबर पार्टी बनाई। उसका झण्डा लाल था। उनका कई प्रश्नों पर कम्युनिस्टों से मतभेद जरूर था पर उन्हें उम्मीद भी इन्हीं से थी। उन्होंने स्थापित दलित आंदोलन की आलोचना करते हुए कहा कि यह मुद्दा आधारित राजनीति नहीं करता है। इसने संघर्ष छोड़ अस्मिता का रास्ता अपनाया है। तुलसीराम ने इस अस्मिता की राजनीति का विरोध किया। उनकी समझ थी कि यह राजनीति हिन्दुत्व को मजबूत करती है। आज जहां वामपंथियों में सुधार आया है, वहीं दलित आंदोलन अवसरवाद का शिकार हुआ है। राज्य के खात्मे को लेकर अम्बेडकर का मार्क्स से मतभेद था। इस अवसर पर रमेश दीक्षित, नाइश हसन, लाल बहादुर सिंह आदि ने भी संक्षिप्त टिप्पणियां की।
सभी का धन्यवाद ज्ञापन किया कवि भगवान स्वरूप कटियार ने। इस मौके पर कौशल किशोर, सुभाष चन्द्र कुशवाहा, अवधेश कुमार सिंह, श्याम अंकुरम, विमल किशोर, के के चतुर्वेदी, के के वत्स, राजा सिंह, रमेंश सिंह सेंगर, जितेन्द्र, सुनीता, मीना सिंह, अफरोज आलम, आर के सिन्हा, राजीव यादव, सुशीला गुडि़या, ब्रज किशोर, शिल्पी चौधरी, नीतीन, शिवा, आशु अद्वैत, मधुसूदन मगन, अनिल कुमार, मंसा राम सहित बड़ी संख्या में लखनऊ शहर के बुद्धिजीवी, शोधार्थी, और सामाजिक व सांस्कृतिक कार्यकर्ता शामिल हुए।