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चिंताएँ और सरोकार एक से हों तो मिलकर रचते हैं बड़ा कैनवास

मई दिवस के अवसर पर समकालीन जनमत के फेसबुक पेज द्वारा आयोजित लाइव कार्यक्रमों की तीसरी कड़ी में 1 मई मजदूर दिवस शाम 7 बजे आलोचक हिमांशु पांड्या अपनी अनूठी शैली में हिंदी के तीन बड़े गद्यकारों और एक राजनीतिज्ञ के कोलाज के साथ लाइव हुए | हिमांशु को सुनते हुए लगा कि यदि चिंताएं और सरोकार एक से हों और अलग-अलग विधाओं में व्यक्त हो रहे हों तो मिलकर एक बड़ा कैनवास रच देते हैं. हिमांशु ने कामगार जीवन को चित्रित करने वाले बड़े कहानीकार शेखर जोशी की कहानी ‘सीढ़ियाँ’ स्वयं प्रकाश के फैक्ट्री जीवन के संस्मरण तथा रांगेय राघव के रिपोतार्ज ‘तूफानों के बीच’ को मिलाकर जो कैनवास निर्मित किया वह मजदूर जीवन की एक मुकम्मल तस्वीर पेश करता है जिसमें मजदूरों के दुःख- संघर्ष मोटी रेखाओं में उभर कर सामने आते हैं.

बातचीत की शुरुआत में ही हिमांशु ने कहा कि मैं आप लोगों से अपील करना चाहता हूँ कि शेखर जोशी की कहानियाँ ढूँढ़ कर पढ़िये. वे हिन्दी के ऐसे कहानीकार हैं जिन्होंने मजदूरों के जीवन से जुडी हुई जितनी कहानियाँ लिखी हैं उतनी किसी और ने नहीं लिखीं. उनके कहानी-संग्रह ‘डांगरी वाले’ का विशेष जिक्र करते हुए कहा कि हिन्दी के पाठकों को इसे ढूँढ़ कर पढ़ना चाहिए. शेखर जोशी की कहानियों में वर्ग चेतना जिस तरह से मुखर होती है वह हिंदी कहानी में दुर्लभ है. उस्ताद, नौरंगी बीमार है, मेंटल, बदबू जैसी कहानियों का जिक्र करते हुए हिमांशु ने बदबू कहानी के एक अंश का पाठ किया जिसका प्रसंग कुछ यूँ है कि कहानी का नायक जो एक विद्रोही स्वभाव का व्यक्ति है, उसका सबसे बड़ा डर यह है कि एक दिन उसे फैक्ट्री की समस्त गतिविधियों की आदत हो जाएगी. विजय मोहन सिंह इस कहानी के बारे में कहते हैं कि यह कहानी कार्ल मार्क्स के कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो को सबसे आसान तरीके से समझा देती है. दुनिया के मजदूरों को एक होना है क्योंकि सबके हाथों से वही बदबू आ रही है.

हिमांशु वर्तमान महामारी से उत्पन्न मजदूरों की हालत को बयाँ करते हुए बताते हैं कि आज आजादी के बाद का सबसे बड़ा विस्थापन हम देख रहे हैं, जिसके केंद्र में मजदूर हैं. हालात इतने बुरे हैं कि वे सड़क पर चलते–चलते मर जा रहे हैं और सरकारें उनका साथ नहीं दे रही हैं, और जो मध्वर्गीय अहमन्यता है वह मजदूरों को कोरोना प्रसार का अपराधी ठहरा रही है. किसी को मजदूरों की कोई परवाह नहीं, वे हमारी समस्त योजनाओं से बाहर हैं. बिल्कुल वैसे ही जैसा कि कवि गोरख पाण्डेय ने अपनी कविता ‘स्वर्ग से विदाई’ में चित्रित किया है.

हिमांशु, शेखर जोशी की एक कहानी सीढ़ियाँ और स्वयंप्रकाश के संस्मरण को एक साथ रखकर बताते हैं कि कैसे एक व्यक्ति की कहानी और दूसरे का निजी अनुभव एकमेक हो जाते हैं. पहले वे स्वयंप्रकाश के संस्मरण ‘धूप में नंगे पाँव’ का एक हिस्सा पढ़ते हैं जिसमें हिन्दुस्तान जिंक लिमिटेड (अब बिक चुकी) में पानी की सप्लाई हेतु बनाए गए बाँध के दायरे में आई काश्तकारों की जमीन का मामला है. कोर्ट के आदेश के बाद भी कंपनी काश्तकारों के मुआवजे का भुगतान नहीं करती और जब वे इसके लिए आन्दोलन करते हैं तो कंपनी अपने उन छोटे अधिकारियों को लाकर आन्दोलनकारियों के सामने खड़ा कर देती है जो अपनी चेतना से उन किसान-मजदूरों के साथ खड़े होते हैं. इसी तरह शेखर जोशी की कहानी ‘सीढ़ियाँ’ में जो कंपनी का सुपरवाइजर है वह मजदूरों से घुलना-मिलना चाहता है.  दरअसल अपनी भौतिक स्थिति और चेतना के स्तर पर वह मजदूरों के साथ है लेकिन कंपनी के मालिकान द्वारा लिए गए निर्णयों को लागू करवाना उसकी जिम्मेदारी है जिसके चलते वह और मजदूर एक दूसरे के आमने–सामने हैं. कहानीकार एक बहुत ही मार्मिक सीन चित्रित करता है जिसमें सुपरवाइजर ऊपर अपनी केबिन के सामने खड़ा नीचे मजदूरों तक जाने वाली सीढ़ियों को गिनता है अपनी कल्पना में उनसे गले मिलता है, हाथ मिलाता है लेकिन हकीक़त में वह सीढ़ियों को पार नहीं कर पाता क्योंकि यह मालिकान द्वारा निर्मित सीढियां हैं जो कभी न पार किये जाने के लिए ही बनाई गईं हैं. ये दोनों उदाहरण बताते हैं कि कैसे व्यवस्था हमें एक दूसरे के खिलाफ खड़ा कर देती है और यह मजदूर और नागरिक दोनों रूपों में होता है जैसे कि इस कोरोना काल में हम देख रहे हैं. थाली पीटने वाले, दिया जलाने वाले एक तरफ, ऐसा न करने वाले दूसरी तरफ. जिस दिन मजदूर या नागरिक सत्ता के इस सच को समझ जायेंगे स्थितियां बदल जायेंगी.

मजदूरों के हित एक हैं, इस बात को साबित करने के लिए हिमांशु सन 42-43 में बंगाल में पड़े भयानक अकाल पर लिखे गए रांगेय राघव के क्लासिकल रिपोर्ताज ‘तूफानों के बीच’ के एक अंश का पाठ करते हैं. किस्सा कुछ यूँ है कि एक तरफ जनता मुट्ठी भर चावल के लिए बेहाल है तो दूसरी तरफ साहूकार का गोदाम हजारों मन अनाज से भरा हुआ है. जब जनता इस जमाखोरी का पर्दाफाश करती है तो दरोगा साहूकार के पक्ष में खड़ा होकर भूखी जनता को धमकाता है. इस घटना में साहूकार इलाके का सम्मानित हिन्दू है और दारोगा मुसलमान और जो भूखे हैं उनमें भी हिन्दू और मुसलमान दोनों हैं. जो नौजवान लेखक से इस घटना का जिक्र कर रहा था उसका वक्तव्य बहुत ही मानीखेज है ‘…उस दिन हमने देखा कि हम हिन्दू-मुस्लमान नहीं थे हम भूखे थे, त्रस्त थे और शोषित थे. जब वह दोनों हिन्दू-मुसलमान होकर भी हमारा रक्त चूसने के लिए एक हो सकते थे तो क्या हम अपने रक्त को बचाने के लिए अपने जीवन की रक्षा के लिये एक नहीं हो सकते थे. उस दिन हिन्दू, हिन्दू नहीं था न मुसलमान, मुसलमान | उस दिन दो वर्ग थे -लूटेरे और भूखे. वालंटियर्स ने निकलने से इंकार कर दिया हजारों भूखे इकट्ठे हो गए थे उनकी जलती आँखों में से जैसे बंगाल की सदियों की दारुण यातना अंगारों की तरह दहक रही थी. भीड़ ने चिल्ला कर मांग की चावल की, हम लेंगे चावल, देना होगा हमें चावल तुम कब्ज़ा करो वरना हम देंगे अपनी भूख पर अधिकार है हमें, लगता था दंगा हो जायेगा. पुलिस तो यह चाहती ही थी मगर इसी समय दो युवक सामने आये एक हिन्दू एक मुसलमान उन्होंने भीड़ को शांत किया और एसडीओ के यहाँ गए वहां से हुक्म लाये. टेक दिए घुटने नौकरशाही ने झुका दिया सर जन-बल के सामने. कौन है जो हमें झुका सकेगा. हम बंगाली कभी भी साम्राज्यवाद की तड़क-भड़क के रौब में नहीं आये. हमें गर्व है बाबू हम भूखे रहकर भी अभी मरे नहीं हैं |’ शेखर जोशी और स्वयंप्रकाश के यहाँ विकसित वर्ग चेतना रांगेय राघव के इस रिपोतार्ज में एक मुकाम हासिल करती हुई दीख पड़ती है इन तीनों को मिलाकर जो तस्वीर बनती है उसमें मजदूरों का ‘संघर्ष और हासिल’ समग्रता में मौजूद हैं.

बातचीत के अंतिम चरण में हिमांशु ने भाकपा माले के महासचिव कॉमरेड दीपांकर भट्टाचार्य के मई दिवस पर छपे लेख ( वैश्विक महामारी के दौर में अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस) के हिस्से को समाहार के रूप में प्रस्तुत किया जो कि यहाँ अविकल प्रस्तुत है –

‘कोविड -19 प्रकृति को बचाने और कॉर्पोरेट लालच में लूट के शिकंजे से लोगों को मुक्त कराने की चेतावनी है . यह नई और न्यायपूर्ण दुनिया की स्थापना का वक्त है. अम्बेडकर ने कहा था कि जाति श्रम का नहीं श्रमिकों का विभाजन है. मई दिवस में इन्हीं श्रमिकों की एकता का दिन है, यह पूरी दुनिया के मजदूरों और उत्पीड़ितों की एकता का दिन है. पूरी दुनिया में कामगारों पर कोविड -19 की सबसे बुरी मार पड़ी है जिसके लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण और उनका व्यवस्थित विनाश मुख्य रूप से जिम्मेदार है साथ ही ज्यादातर सरकारों ने इस महामारी से निपटने में बहुत ही क्रूर और संवेदनहीन रुख अपनाया है. सरकारें महामारी के समय में मजदूरों को दोषी ठहराने और उन्हें बांटने में लगी हुई हैं और अपनी जिम्मेदारी से मुंह चुरा रहीं हैं. आज इस विभाजनकारी राजनीति को चुनौती देने की सबसे ज्यादा जरूरत है. आज जब वैश्विक पूंजीवाद और मानवजाति के अस्तित्व के बीच का विरोध इतना साफ हो गया है तो एक नई और बेहतर दुनिया बनाना न केवल जरूरी है बल्कि तुरंत बनाना बहुत जरूरी है. हमारे पास सच में एक नई दुनिया बनाने और जीतने का अवसर है . एकता बद्ध जनता अजेय है .’

इस पूरी बातचीत को समकालीन जनमत के पेज पर जाकर अथवा नीचे दिए गए लिंक पर जाकर देखा सुना जा सकता है.

Gepostet von Samkaleen Janmat am Freitag, 1. Mai 2020

 

दीपांकर भट्टाचार्य का मजदूर दिवस पर लेख यहाँ पढ़ सकते हैं-

वैश्विक महामारी के दौर में अंतरराष्‍ट्रीय मजदूर दिवस:दीपांकर भट्टाचार्य

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