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नागेन्द्र सकला
इतिहास

टिहरी रियासत के ताबूत में अंतिम कील थी कामरेड नागेंद्र सकलानी और मोलू भरदारी की शहादत

11 जनवरी 1948 को कीर्तिनगर में कामरेड नागेन्द्र सकलानी और कामरेड मोलू भरदारी की शहादत, टिहरी में राजशाही के खात्मे के परवाने पर निर्णायक दस्तखत सिद्ध हुई. यह वही राजशाही थी,जो 30 मई 1930 को तिलाड़ी में सैकड़ों किसानों का खून बहा चुकी थी. यही राजशाही थी,जिसने श्रीदेव सुमन के उत्तरदाई शासन की मांग पर गौर करने के बजाय उन्हें मौत के मुंह में धकेलने का विकल्प चुना. जेल में 84 दिन की भूख हड़ताल के दौरान सुमन इतनी ही मांग कर रहे थे कि टिहरी में उत्तरदाई शासन स्थापित हो और उन(सुमन)के मुकदमे की सुनवाई स्वयं महाराजा करें. राजशाही ने इतना ही किया कि भूख हड़ताल के बाद सुमन के शरीर को बोरे में बंद करके भिलंगना नदी में बहा दिया.

श्रीदेव सुमन की शहादत के बाद राजशाही के खिलाफ लड़ाई थोड़ा कमजोर पड़ गयी थी. लड़ाई की अगुवाई करने वाला प्रजामंडल पस्त और बिखरा हुआ था. यह नागेंद्र सकलानी ही थे,जो राजशाही के इस क्रूर दमन को चुपचाप बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे.

देहारादून में पढ़ते हुए 1942 के आसपास नागेंद्र सकलानी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो चुके थे. कम्युनिस्ट पार्टी के संगठक कॉमरेड ब्रिजेन्द्र कुमार के साथ मिल कर देहारादून में जनता की नित्य उपयोग की वस्तुओं जैसे केरोसीन,नमक तेल,राशन आदि की उपलबद्धता के लिए नागेंद्र ने आंदोलन संगठित किया.

पर उनके दिमाग में टिहरी राजशाही के खिलाफ लड़ने और उसे उखाड़ फेंकने का ख्याल निरंतर धधकता रहा. श्रीदेव सुमन के पहले शहादत दिवस पर 25 जुलाई 1945 को देहारादून में कम्युनिस्ट पार्टी ने कार्यक्रम आयोजित किया. इस आयोजन में कामरेड नागेंद्र सकलानी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. इस आयोजन में उन्होंने ऐसे लोगों को भी जोड़ा,जो अन्यथा कम्युनिस्ट पार्टी के घनघोर विरोधी थे. टिहरी से कम्युनिस्ट पार्टी से विधायक रहे कामरेड गोविंद सिंह नेगी ने नागेंद्र सकलानी पर लिखे अपने संस्मरण में इस बात का उल्लेख किया है कि वे(नेगी) तो घनघोर कम्युनिस्ट विरोधी थे. लेकिन एक बार मुलाक़ात होने के बाद नागेंद्र सकलानी ने उनसे निरंतर संवाद बनाए रखा. श्रीदेव सुमन के पहले शहादत दिवस के आयोजन की तैयारियों में गोविंद सिंह नेगी को नागेंद्र सकलानी ने कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति उनके मतभेदों के बावजूद लगा दिया. कामरेड गोविंद सिंह नेगी ने लिखा है कि नागेंद्र सकलानी के साथ उनकी पहली मुलाक़ात बमुश्किल दस मिनट की थी. गोविंद सिंह नेगी कहते हैं कि “उस समय क्या मालूम था कि यह छोटी से भेंट, यह मामूली सी मुलाक़ात मेरी जिंदगी की पूरी धारा को ही बदल देगी.”

25 जुलाई 1945 को श्रीदेव सुमन के पहले शहादत दिवस पर आयोजित कार्यक्रम के संदर्भ में कामरेड गोविंद सिंह नेगी ने लिखा, “कम्युनिस्ट विरोध के उस सैलाब में टिहरी के राजनीतिक कार्यकर्ताओं,प्रजामंडल के साथियों और मुझ सरीखे जोशीले कम्युनिस्ट विरोधी नौजवानों के बीच टिहरी की मुक्ति के लिए एकता की यह पहली सुनहरी कड़ी थी. मेरे लिए नयी जिंदगी की यह एक शुरुआत थी.”

जिस राजशाही के चंगुल से टिहरी की जनता को मुक्त कराने के लिए नागेंद्र सकलानी और उनके साथी प्राणपण से लगे हुए थे,वह राजशाही किस कदर क्रूर थी,इसका अंदाजा कामरेड ब्रिजेन्द्र कुमार द्वारा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र- मुक्तिसंघर्ष में नागेंद्र सकलानी पर लिखे संस्मरण से होता है. जनवरी 1976 के मुक्ति संघर्ष के नागेंद्र सकलानी की स्मृति में प्रकाशित अंक में कामरेड ब्रिजेन्द्र कुमार ने विस्तार से कामरेड नागेंद्र सकलानी की राजनीतिक यात्रा का ब्यौरा दिया है. टिहरी में राजशाही के खिलाफ आंदोलन में कामरेड ब्रिजेन्द्र कुमार और कामरेड नागेंद्र सकलानी इस तरह से मोर्चा संभाले हुए थे कि पहले-पहल राजशाही ने समझा कि नागेंद्र सकलानी और ब्रजेन्द्र कुमार एक ही व्यक्ति हैं. इसलिए जब राजा के दरबार से उनके खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट निकला,उस पर नाम लिखा था-नागेंद्र सकलानी उर्फ ब्रजेन्द्र कुमार.

यही ब्रजेन्द्र कुमार टिहरी में राजा के अत्याचारों के बारे में लिखते हैं कि टिहरी में इतने कर लगे हुए थे कि उनके बारे में कहा जाता था-20 कलम,36 रकम. कोई बाहर से आता था तो उसके हर सामान पर पौन टोटी कर लगता था. जमीन का लगान चार-पाँच गुना बढ़ा दिया गया था. सेटेलमेंट आफिसर जगह-जगह कैंप लगा कर लोगों को पेशी पर बुलाता था. कैंप का सारा खर्च गरीब किसानों को वहन करना पड़ता था. न देने पर मारपीट और जेल हो जाती थी.

बोलने पर कितना कड़ा पहरा था,इसका भी उदाहरण कामरेड ब्रजेन्द्र कुमार के लेख में मिलता है. वे कहते हैं, “पंडित दौलतराम के भाई ने कथा करते हुए तुलसी दास की चौपाई दोहराई :

जासूराज प्रिय प्रजा दुखारी

सो नृप अवस नरक अधिकारी

इसकी खबर राजा के अफसरों को लगी और उन्होंने पंडित दौलत राम के भाई को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया.”

आजाद हिन्द फौज के सिपाही टिहरी लौट कर आए. उनमें जयहिंद का नारा प्रचलित था. पर टिहरी राजा के राज में जयहिंद का नारा लगाने वाले और गांधी टोपी लगाने वाले जेल भेज दिये जाते थे.

टिहरी के राजा के ऐसी अन्यायकारी राज के खिलाफ लाल झण्डा थामे,नागेंद्र सकलानी लड़ाई में उतर पड़े. हालांकि वे राजशाही के खिलाफ संघर्ष को व्यापक बनाने के लिए ही लड़ाई के संयुक्त मंच-टिहरी राज्य प्रजामंडल के अंदर ही काम करते थे. नागेंद्र सकलानी एक जन नेता और संगठक थे. दादा दौलत राम के साथ मिलकर उन्होंने किसान आंदोलन संगठित किया. डांगचौरा के किसान आंदोलन के बाद राजा की पुलिस द्वारा उनकी गिरफ्तारी की तमाम कोशिशें नाकाम रही. लेकिन जब राज दमन के चलते जेल में बंद प्रजामंडल के लोग माफी मांग कर बाहर आने लगे तो कम्युनिस्ट पार्टी ने तय किया कि जेल में बंद आंदोलनकारियों का मनोबल बढ़ाने के लिए नागेंद्र को जेल जाना चाहिए. पार्टी के निर्णय के अनुसार ही नागेंद्र सकलानी गिरफ्तार हुए. उन्हें 11 बरस की सजा हुई. जेल में राजा के दमन के खिलाफ उन्होंने लंबी भूख हड़ताल की. देश में तेजी से बदलते राजनीतिक हालात के बीच नागेंद्र सकलानी और अन्य राजनीतिक बंदियों की रिहाई हुई. जेल से रिहा हो कर नागेंद्र सकलानी सकलाना के आंदोलन में कूद पड़े और वहाँ आजाद पंचायत का गठन हुआ.

इस बीच देश अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हो चुका था. लेकिन राजशाही की बेड़ियाँ अभी कायम थी. इन जंजीरों को काटने में लगे नागेन्द्र सकलानी 10 जनवरी 1948 को कीर्तिनगर पहुंचे. वहाँ सभा के बाद राजा के न्यायालय पर जनता ने तिरंगा झण्डा फहरा दिया और आजाद पंचायत की स्थापना की घोषणा कर दी. 11 जनवरी को राजा की फौज ने न्यायालय पर कब्जा करने की कोशिश की. आँसू गैस के गोले छोड़े गए. जनता उग्र हो गयी. राजा के कारकुनों ने गोली चला दी.एक गोली मोलू भरदारी को लगी और वे शहीद हो गए. नागेंद्र सकलानी गोली मारने वाले अफसर की ओर लपके और उन्होंने उसका पैर पकड़ लिया. उस अफसर ने नागेंद्र सकलानी पर भी गोली चला दी और वे भी शहीद हो गए. मोलू भरदारी और नागेंद्र सकलानी की शहादत ने राजशाही के ताबूत में अंतिम कील का काम किया. अगले दिन पेशावर विद्रोह के नायक कामरेड चंद्र सिंह गढ़वाली की अगुवाई में इन दो शहीदों का जनाज़ा टिहरी की तरफ हजारों लोगों के काँधों पर पैदल ही बढ़ चला. कामरेड ब्रिजेन्द्र कुमार ने लिखा “शहीदों का जनाज़ा जहां हजारों नागरिकों के कंधों पर हो कर सम्मान से चल रहा था,वहीं राजतंत्र का जनाजा उनके पैरों तले रौंदा जा कर भू-लुंठित हो रहा था.”

1949 को टिहरी रियासत का भारत में विलय हुआ.

इन शहादतों और टिहरी के भारत में विलय को सात दशक से अधिक बीत चुके हैं. इसलिए इस घटनाक्रम से जुड़े पात्रों या उनके वंशजों की स्थिति पर भी गौर कर लिया जाये. नागेंद्र सकलानी के साथ शहीद होने वाले मोलू भरदारी की दशा का वर्णन प्रख्यात साहित्यकार विद्यासागर नौटियाल की पुस्तक-भीम अकेला-में मिलता है. कामरेड विद्यासागर नौटियाल देवप्रयाग विधानसभा क्षेत्र से उत्तर प्रदेश में कम्युनिस्ट पार्टी से विधायक रहे. भीम अकेला-विधायक रहने के दौरान के नौटियाल जी के संस्मरणों की पुस्तक हैं.

विद्यासागर नौटियाल लिखते हैं कि मोलू भरदारी की पत्नी सुरमा 14 साल की उम्र में विधवा हो गयी. देश की आजादी के 25 वर्ष बाद सुरमा भरदारी को पंद्रह रुपया महीना पेंशन उत्तर प्रदेश सरकार ने स्वीकृत की. लेकिन किसी के द्वारा अनाम शिकायत पर यह पेंशन बंद कर दी गयी. अज्ञात शिकायत में कहा गया कि सुरमा भरदारी ने अपने देवर से विवाह कर लिया,इसलिए वह पेंशन की हकदार नहीं है. उत्तर प्रदेश सरकार ने वह मामूली पेंशन तत्काल बंद कर दी.  पेंशन के रूप में भुगतान की गयी राशि को वापस करने को कहा गया ! विद्यासागर नौटियाल प्रश्न उठाते हैं कि यदि सुरमा भरदारी शहीद हुई होती और मोलू भरदारी को इस कारण पेंशन मिलती तो क्या उसके पुनर्विवाह करने पर पेंशन बंद की जाती ?

इस पुस्तक के पहले पन्ने पर 21 अप्रैल 1992 का सुरमा भरदारी का पत्र प्रकाशित है. उत्तर प्रदेश के शिक्षा मंत्री को लिखे, इस पत्र में सुरमा भरदारी ने मांग की है कि राजकीय इंटर कॉलेज,क्वीलखाल का नाम अमर शहीद मोलू भरदारी के नाम पर रखा जाये. साथ ही वे बताती हैं कि सरकार द्वारा उनको जो दो हजार रुपया नकद आर्थिक अनुदान दिया गया था,वह धनराशि उन्होंने(सुरमा भरदारी ने)जूनियर हाई स्कूल, क्वीलखाल के निर्माण के लिए दान कर दी थी. यह शहीदों के परिजनों के त्याग की भावना थी,जो स्वयं के पास कुछ न होने के बावजूद अपने समाज के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने को तैयार थे.

दूसरी तरफ क्रूर तानाशाही के लिए कुख्यात राजपरिवार था. उसके वारिस हिंदुस्तान की पहली लोकसभा से अब तक केवल बीस वर्ष के अंतराल को छोड़ कर,निरंतर ही संसद पहुँचते रहे. कैसा विद्रूप है कि जिस राजा के राज में रामचरित मानस की चौपाई पढ़ने और जय हिन्द का नारा लगाने पर जेल हुई, उसी राजपरिवार की बहू चरम हिंदूवादियों और राष्ट्रभक्ति का प्रमाणपत्र बांटने वालों के टिकट पर संसद में है ! लोकतंत्र के कंधे पर चढ़ कर राजशाही, संसद की “माननीय सदस्य” है. यह लोकतंत्र नहीं लोकतंत्र का मखौल उड़ाना है.

परंतु यह भी गौरतलब है कि जिन्होंने राजाओं-रानियों को सत्ता में पहुंचाया, वे भी जब मेला करते हैं तो नागेंद्र सकलानी और मोलू भरदारी की याद में ही करना पड़ता है.ताउम्र राजा रहने और जीवन का बड़ा हिस्सा संसद सदस्य हो कर गुजारने के बावजूद तिलाड़ी, श्रीदेव सुमन और नागेंद्र सकलानी-मोलू भरदारी के खून से सने हाथों वाले राजपरिवार के वारिसों का दुनिया से जाने के बाद एक नामलेवा नहीं होता.  नागेंद्र सकलानी और मोलू भरदारी जैसे साधारण युवा,अपने असाधारण बलिदान के लिए सात दशकों के बाद भी निरंतर याद किए जाते हैं. यही उनकी शहादत की ताकत है,यही प्रेरणा है.

कामरेड नागेंद्र सकलानी और मोलू भरदारी की शहादत को इंकलाबी सलाम.

फुटनोट : इस लेख हेतु संदर्भ सामग्री उपलब्ध करवाने के लिए यह लेखक, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उत्तराखंड सचिव कामरेड समर भण्डारी,कामरेड चित्र गुप्ता(जो कामरेड ब्रिजेन्द्र कुमार की आत्मजा हैं) और भाकपा के वरिष्ठ नेता कामरेड डाक्टर गिरधर पंडित का आभारी है.

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