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December 8, 2023
समकालीन जनमत
चित्रकला

जीवन का संकट और सुधीर सिंह की रचनाशीलता

कोविड – 19 महामारी के प्रसार ने , मानव व प्रकृति के संम्बंध को लेकर नये सिरे से चिंतित किया है. आदमी ने क्षुद्र स्वार्थ व लोभ लालच में प्राकृति को भरपूर नुकसान पहुँचाया है जिसके दुष्परिणाम से विभिन्न तरह के प्राकृतिक संकट उत्पन्न होते रहे हैं . प्राकृतिक संरक्षण को लेकर कई संगठन व संस्थान काम कर रहे हैं. पौधारोपण , प्रदुषण नियंत्रण व जागरुकता को लेकर तरह तरह के कार्यक्रम आयोजित किये जाते रहें हैं. इसी क्रम में स्कूल-कॉलेज या विभिन्न संस्थानों के द्वारा बच्चों / छात्रों के लिए आयोजित होने वाले चित्र प्रतियोगिता के कुछ चर्चित विषयों में एक पार्यावरण संरंक्षण से सम्बंधित जरुर होता है.

चित्रकारों में वैसे भी प्रकृति प्रेम कुछ खास होता है. चित्रकारी का एक महत्वपूर्ण तत्व है वर्ण योजना . वर्णयोजना की समझ कलाकार प्रकृति से ही ग्रहण करता है. कला अध्ययन के दौरान दृश्य चित्रण के अभ्यास में रंगो के मिश्रण से विभिन्न छटाओं को तैयार करने की प्रेरणा प्रकृति से ही मिलती है. कलाकार हर मौसम के मनोरम छटा को बहुत गहराई से देखता समझता व महसूस करता है. बगैर प्रकृति से प्रेम के कलाकारी ( खासकर चित्रकला ) कैसे संभव है  ?

उतर प्रदेश के गाजीपुर जिले के रहने वाले चित्रकार सुधीर सिंह आजकल इस विषय को लेकर गंभीरता से चित्रण कर रहें हैं. मुनाफे की मकड़जाल ने पर्यावरण को बहुत क्षति पहुंचाई है. इससे सुधीर का कलाकार मन व्यथित है जिसकी गंभीर अभिव्यक्ति उनके चित्रों में देखने को मिलती है. इसको लेकर उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण चित्र बनाए हैं जिसे रेखांकित किये जाने की जरुरत है .

सुधीर सिंह का जन्‍म 15 जुलाई 1986 को हुआ था. पिता विश्वामित्र सिंह सेना में थे और माता लीलावती देवी एक गृहणी . तीन भाई और एक बहन में सुधीर सबसे छोटे हैं. जैसा कि कलाकरों के साथ आम तौर पर होता है , पढाई में रुचि घटती गई और कलाकारी में रुचि बढ़ती गई . इन्टर की पढ़ाई पूरी करते-करते सुधीर यह सोचने लगे कि आगे क्या करें . किसी मित्र से यह जानकारी मिली कि कला में भी पढा़ई ( बी एफ ए , एम एफ ए ) होती है , और इस बारे में कला शिक्षक राजकुमार सिंह विधिवत बता सकते हैं . फिर क्या था सुधीर राजकुमार सिंह के पास मुहम्दाबाद पहुँचे. उनके निर्देशन में आर्ट कॉलेज की प्रवेश परीक्षा की तैयारी शुरु कर दी .

महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ के कला संकाय की प्रवेश परीक्षा में वे सफल हुए और बीएफए के लिए नमांकन करा लिया . कला अध्ययन के विभिन्न आयाम से गुजरते हुए सुधीर ने परिश्रम से तकनीकी पहलूओ को सीखा समझा. तकनीकी दक्षता व रचनात्मक कौशल के साथ वैचारिक परिपक्वता भी हासिल की. कला महाविद्यालयों के शिक्षण पद्धति की एक उबाऊ सीमा होती है और कला छात्रों की अपार ऊर्जा . यहां दरअसल शिक्षकों और छात्रों के बीच के पी पीढ़ीगत फासले भी एक ऊब पैदा करते हैं. 2008 में विद्यापीठ से बीएफए करने के बाद विभिन्न कारणों से वे एम एफ ए नहीं कर पाये. उन्होंने दिल्ली की राह पकड़ी. वहां इंटर्न ग्राफिक , मोशन ग्राफिक , एनिमेशन आदि तरह तरह के काम करते हुए महुआ में काम किया . वर्ष 2014 में ग्वालियर से उन्होंने एम एफ ए किया. वे फिलहाल दिल्ली में रहते हैं.

वैसे तो कला की दुनिया में बने बनाए रास्ते होते नहीं , सभी को अपने रास्ते खुद बनाने होते हैं | सुधीर का संघर्ष से नाता कुछ ज्यादा ही गहरा है . गहरा इस अर्थ में कि कलात्‍मक दक्षता व लंबे संघर्ष के बावजूद सूधीर को अभी अपनी कलात्‍मक पहचान बनानी है.

जमाने की मुश्‍किलें और कला की दुनिया

कला की दुनिया बड़ी एकांगी और बहुत सिमटी हुई है. बस कुछ शहर , अकादमी व दीर्घा तक . जहां एक ऐसी दरबारी परिपाटी स्थापित है जिसे समकालीन कला के नाम से जाना तो जाता है मगर किसी नए नावाचार की या प्रगतिशील जनपक्षीय रचनाधर्मिता की कोई गुंजाइश नहीं है. दावे बड़े-बड़े किये जाते हैं मगर हकीकत यही है कि यह कुछ मेट्रोपोलिटन सिटी या राजधानियों तक ही यह सिमट कर रह गयी हैं. जो भी थोडे़ बहुत नकाफी फंड होते हैं , उसमें लूट खसोट के बाद जो थोडा़ सा हिस्सा बचता है उससे दरबारी संस्कृति को पोषित करने की होड़ मचती है. गिने-चुने कला दीर्घा का किराया इतना अधिक होता है कि कोई कलाकार स्वतंत्र रुप से प्रदर्शनी न कर पाए. उस पर भी लंबी प्रतीक्षा सूची. इसके लिए यह बहुत आवश्यक है कि अलग-अलग संगठन व संस्थान बनाया जाए.

 

सुधीर सिंह को भी इसकी जरुरत महसूस हुई. फलतः संभावना कला मंच की स्थापना में उन्होंने महती भुमिका निभाई. कला प्रदर्शनी व कार्यशाला का सिलसिला शुरु हुआ . देश के अनेक हिस्सो की प्रतिष्ठित प्रदर्शनी में उनके काम को प्रशंसा मिली. अपनी रचनात्मक कौशल के लिए उन्होंने अनेक सम्मान भी हासिल किया. सुधीर ने रचनात्मक कौशल , तकनीकी दक्षता व वैचारिक परिपक्वता हासिल करने के लिए कठोर मेहनत की. बीएफए करने के बाद समस्या थी अब करें क्या ? कला बाजार था नहीं सो उन्होंने ग्राफिक की तरफ रुख किया . कठिनाई तो हुई मगर एक आसरा बना. अब उन्होंने नये सिरे से अपनी रचनाशीलता को गति दी है. जमाने की मुश्‍किलें भी कम नहीं है और कला की दुनिया भी बिडंम्बनाओं से भरी हुई है . जमाने के जो दर्द हैं , सुधीर के दर्द हैं . इस दर्द की गहन पीडा़ है , इस पीडा़ से निजात पाने की जुगत है , इस दर्द की दवा की खोज है . यहां हकीकत भी है, कल्‍पनाशीलता भी है और इस पूरी प्रक्रिया की अभिव्यक्ति से जो रचना संसार बनता है , वह सुधीर सिंह का रचना संसार है .

जमाने की जटिलता और सुधीर की रचनाशीलता

जमाने की खुशी और गम से सुधीर का जीवन इतर नहीं है. अगर कहा जाए दुनिया पर संकट है तो सुधीर पर भी संकट है. दुनिया में खुशी की वजह है तो सुधीर के लिए भी उल्लास के अवसर हैं. कहने का तात्पर्य यह है कि सुधीर की रचनाशीलता जमाने के साथ गहन रुप से जूडी़ हुई है. उनके चित्र जटिल भी हैं और सरल भी हैं.  वे मूर्त भी हैं व अमूर्त भी. आकृतियां हैं मगर कुछ स्पष्ट , कुछ अस्पष्ट ,पृष्ठभूमि में घुली मिली हुई. जिस तरह की सरलता और जटिलता जीवन संघर्ष में है ठीक उसी तरह की सरलता और जटिलता एक साथ सुधीर के चित्रों में है.

पृष्ठभूमि कलात्‍मक दक्षता की परिचायक तो आकृतियां सरलता व सहजता की . एक अजीब दृश्यात्मक द्वंद सुधीर सिंह के चित्रों में है. यह द्वंद भौतिकवादी भी है और भाववादी भी. सच कहें तो हम सभी का जीवन या यह कहें पुरी दुनिया की यह गति इसी द्वंद पर ही तो आधारित है. यह द्वंद ही तो गति का कारक है. इस स्तर से भी देखे तो सुधीर के चित्र बड़े स्वभाविक रुप से इसे संप्रेषित करते हैं. ये चित्र प्रेक्षक को कई प्लेटफार्म उपलब्ध कराते हैं. पेंटिग में तकनीकी स्तर पर अनेक ‘ लेयर ‘ होना एक समान्य बात है. पहली दृष्टि में वह बहुत स्पष्ट न भी हो तो वह होता है. सुधीर के चित्रों की खासियत है कि वे दर्शकों के लिए भी लेयर पैदा कर देती हैं.

प्रस्तुत चित्र मुख्यतः पार्यावरण संरक्षण से जुड़े हुए हैं. स्कूली चित्र प्रतियोगीता वाले इस पॉपुलर विषय को लेकर गंभीर काम करना किसी चित्रकार के लिए बडा़ कठिन है. क्योंकि इससे जुड़े कुछ जरुरी रुपाकार जन जन में कुछ इस तरह से रचे बसे हैं कि इससे इतर कोई सोच ही नहीं पाता. जैसे कटे हुए पेड़-पौधे , सूख रहे पेड़-पौधे , बंजर धरती , कूडे़ का अंबार, प्रदुषण, सूखे हुए नदी-नाले आदि. ऐसे रुपाकार में रचनात्मक संभावना तलाशना मेहनत का काम होता है. सुधीर ने इसे इसलिए स्वीकार किया क्योंकि पर्यावरण की क्षति ने उन्हें गहरे स्तर पर व्यथित किया. सुधीर की चिंता बहुत स्वभाविक है. कोविड -9 महामारी के समक्ष मानवीय लाचारी व विवशता के समय में दुनिया भर में पार्यावरण को लेकर नये सिरे से चिंता उठी है|  इसके अलावे आस्ट्रेलिया और अमेजन की जंगलो की भयंकर आग ने भी इस चिंता को बढाया है.  इसी चिंता की अभिव्यंजना सुधीर के प्रस्तुत चित्रों में झलकती है.

सुधीर ऐक्रेलिक , आयल , वाटर , डिजिटल सहित अनेक माध्यम में काम करते हैं. ऐक्रेलिक और डिजिटल माध्यम के उनके काम में खास निखार आता है.

ऐक्रेलिक माध्यम में बने प्रस्तुत चित्रों में तकनीक के लिहाज से परिपक्वता परिलक्षित होती है.  वर्णयोजना अर्थपूर्ण व आकर्षक है. दृष्टिक्रम का बहुत उम्दा इस्तेमाल किया गया है. सुधीर की वर्णयोजना खास तौर पर ध्यान खींचने वाली है. एक से दूसरे रंग के बीच की रंगत बड़ी सुरुचि पूर्ण लगती है. लय व तान बिल्कुल संतुलित है . छाया प्रकाश के अति कलात्‍मक प्रभाव से कहीं – कहीं डिजिटल इफेक्ट का भ्रम उत्पन्न होने लगता है जो शायद कंप्यूटर पर अधिक काम करने के कारण अनयास परिलक्षित होता है.

सुधीर के चित्रों में अनेक धरातल के दर्शन मिलते हैं , जैसे धरती सीधे आसमान से नहीं मिलती बीच में भी कई पडा़व आते हैं. जिसमें कभी कुछ आकृतियां होती है कभी केवल रंगो का अलग ‘ लेयर ‘ होता है . कटे हुए पेड़-पौधे बहुमंजिली इमारत अपनी जगह तलाशती पशु पक्षी की आकृतियां. जैसे वे आदमी से पूछ रहे हों हमारे हिस्से की धरती , पेड़-पौधे , नदी-पोखर कहां गए. पशु पक्षियों की ये आकृतियां मानवीय लोभ-लालच से लगातार खत्म हो रहे वे अपने अस्तित्व की आवाज की तरह हैं . पृष्ठभूमि के काम में कलात्‍मक दक्षता झलकती हैं तो कुछ चित्रों की आकृतियों मे लोक कला सी सहजता आती है . बल्कि कुछ आकृतियों में तो रेखाएं भी दिखती हैं. ऐसा लगता है जैसे कलाकार को लोक कला से अनुराग है तो समकालीनता की संभावना भी उसे अपनी तरफ मजबूती से खींचती है. सुधीर की चित्रण शैली में विविध तरह की प्रयोगधर्मिता दिखाई पड़ती है .

 

सुधीर सिंह और संभावना कला मंच

चित्रकार सुधीर सिंह संभावना कला मंच के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं. चित्रकार राज कुमार सिंह ने केवल चित्र बनाना ही नहीं सिखाया , कला की दुनिया में मजबूती से खड़ा रहना भी सिखाया . सुधीर सिंह, राजीव गुप्ता, श्वेता राय,  या फिर ढेर सारे चित्रकार / मूर्तिकार , वे जितने तकनीकी रुप से दक्ष हैं उतने ही वैचारिक रुप से परिपक्व भी. शायद इसका महत्वपूर्ण कारण है संभावना कला मंच की कलात्‍मक गतिविधियों ( प्रदर्शनी, कार्यशाला व विचार विमर्श ) में भागीदारी की निरंतर परम्परा.

लगातार चलने वाला यह विमर्श ही उन्हें हर स्तर की दक्षता प्रदान करता है . संभावना कला मंच को बनाने में इनकी जितनी भागीदारी रही उसी अनुपात में इनको भी बनाने में संभावना कला मंच की भागीदारी रही है . नहीं तो एक छोटे से शहर में जहां कला के कोई संस्थान नहीं है वहाँ से लगातार दर्जनों कलाकर का निकलना कहां संभव होता.

 

सुधीर सिंह ने उस संस्था के बनने में भागीदारी निभाई और उससे निरंतर जुड़े रहे | दिल्ली बंबई वे चाहे जहां भी गये वहाँ से उन्होंने अपनी भूमिका अदा की. भारतीय समकालीन कला जगत में देखा जाए तो दरबारी और बाजारी दोनों से अलग यह उभरता हुआ एक ऐसा कलाकारों का समुह है जो एक नयी जमीन गढ़ रहा है.  सुधीर सिंह उसी जमीन के एक महत्पूर्ण रचनाकार हैं.

जटिल आर्थिक राजनीतिक परिस्थितियों में कला संस्कृति की बड़ी विडंबना पूर्ण स्थिति है. खास कर चित्रकला / मूर्तिकला के लिए तो यह संकटपूर्ण दौर है. ऐसी परिस्थितियों में तरह-तरह के प्रयोग उम्मीद जगाने वाले हैं. सुधीर की रचनाशीलता भी उसमें उनकी उपस्थिति है जिसे देखना सुखद है. सुधीर सिंह जैसे रचनाकार में अपार संभावना मौजूद है.

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