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ग्राउन्ड रिपोर्ट

पंजाब के भूमिहीन दलितों का संघर्ष

जगमेल की हत्या को मुद्दा बनाने और पीड़ित परिवार को न्याय दिलाने के लिए आंदोलन करने में ‘ज़मीन प्राप्ति संघर्ष समिति’ (ZMPC) की भूमिका का उल्लेख पहले (‘संगरूर हत्याकाण्ड’, कथादेश, फरवरी 2020) किया जा चुका है| पंजाब के दलितों पर अत्याचार की एक बड़ी वजह उनका भूमिहीन होना रहा है|

भारत के अन्य राज्यों की तुलना में यहाँ दलितों की आबादी सबसे अधिक है, कुल आबादी का करीब 32%| इनमें से बहुसंख्यक दलित ग्रामीण इलाके में रहते हैं, दलितों की कुल जनसँख्या का 73 फीसद| इतनी संख्या होने के बावजूद उत्पादन के साधनों (जमीन) पर उनका अधिकार नगण्य-सा है, सूबे की कुल काश्त का 6 प्रतिशत और कुल क्षेत्रफल का 3.2%| दलितों के हिस्से में आने वाली जोत (कुल जोत का करीब 85%) आकार में इतनी छोटी है कि उस पर खेती करना घाटे का सौदा है|

यह स्वाभाविक ही है कि इस सूबे में समानता और न्याय के लिए किए गए तमाम संगठित प्रयासों का एक सिरा जमीन के पुनर्वितरण से जुड़ा रहा है| आजादी के लिए संघर्षरत भारत में बनी ‘कृती किसान पार्टी’ (1928-1934) ने अपने अजेंडे पर भूमिहीनता का मुद्दा सबसे ऊपर रखा था| पार्टी की मांग थी कि उत्पादन के सभी साधनों का राष्ट्रीयकरण किया जाए और जमींदारों से जमीन लेकर किसानों में बाँट दी जाए| जमींदारों को कोई मुआवजा न दिया जाए| लगान कम किया जाए| लगान का निर्धारण उपज के आधार पर हो, न कि जमीन के आधार पर| मजदूरों की मजदूरी बढ़ाई जाए| उन्हें आठ घंटे से ज्यादा काम करने पर मजबूर न किया जाए|

किसानों को कर्ज मुहैया कराया जाए| इसके साथ ऐसे विभाग स्थापित किए जाएं जो किसानों को वैज्ञानिक सलाह व सहायता प्रदान करें| इन विभागों के जरिए उन्नत बीज और मशीनें उपलब्ध कराई जाएं| कर निर्धारण का काम ग्राम पंचायतें करें| पंचायत में किसानों और मजदूरों के प्रतिनिधि हों|

कामगार को कृती कहते हैं| कृती किसान पार्टी का दूसरा नाम ‘मजदूर किसान पार्टी’ (वर्कर्स पीजेन्ट्स पार्टी – WPP) भी है| इस संगठन में ग़दर पार्टी (1913-1948) और नौजवान भारत सभा (भगत सिंह द्वारा 1926 में स्थापित) के लोग थे|

जमीन का सवाल परवर्ती आंदोलनों में भी महत्त्वपूर्ण बना रहा| वाम दलों ने इसे प्रमुखता से उठाया| भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (1925), मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (1964), सीपीआइ-एमएल (1969) ने जमीन के पुनर्वितरण को मुख्य सवाल बनाए रखा| 1968 में शुरू हुए नक्सल आंदोलन ने भूमिहीनों को तत्काल जमीन दिलाने का आक्रामक अभियान चलाया| छोटे किसानों को तत्काल जमीन दिलाने का इतिहास लाल पार्टी से आरंभ होता है| सीपीआइ से अलग होकर 1948 में बनी ‘रेड कम्युनिस्ट पार्टी’ ने बड़े भूस्वामियों से जमीन छीनकर लघु-सीमांत किसानों को दिया|

जमीन प्राप्ति संघर्ष समिति के कार्यकर्ताओं ने बताया कि 1946 से ’52 के मध्य पंजाब के 886 गाँवों में जमींदारों से अठारह लाख एकड़ जमीन लेकर छोटे किसानों को दी गई| दलितों को जमीन नहीं मिली| तेलंगाना आंदोलन ने भारत सरकार पर असर डाला और लैंड रिफार्म एक्ट आया| इस दौरान सोवियत संघ सामूहिक खेती (कोआपरेटिव फॉर्मिंग) का मॉडल पेश कर रहा था| इससे प्रभावित जवाहरलाल नेहरू ने कोआपरेटिव खेती इंट्रोड्यूस की| नज़ूल कोआपरेटिव सोसाइटियाँ बनीं| इसमें दलितों को शामिल किया गया| 16 हज़ार परिवारों को जमीन आवंटित हुई| कुछ परिवारों को यह जमीन वास्तव में मिली और शेष को कागजों पर दिखा दिया गया| हरित क्रांति के दौरान नहरें बनीं| सिंचाई के साधन आए तो जमीन उपजाऊ हो गई और उसके भाव बढ़ गए| दलितों को आवंटित जमीन खिसकती हुई पुनः जमींदारों के कब्जे में आ गई|

नज़ूल जमीन (ट्रांसफर) नियम, 1956, पंजाब के अनुसार नज़ूल लैंड उसे कहेंगे जो नगरपालिका (म्युनिसिपल) की सीमा से दो मील दूर स्थित है| राज्य के कब्जे में आई जमीन को अगर राज्य सरकार ने किसी अन्य कार्य अथवा मकसद में इस्तेमाल नहीं किया है तो वह नज़ूल लैंड की परिभाषा में आएगी| बंटवारे के समय जो मुस्लिम परिवार पकिस्तान चले गए उनकी जमीन पकिस्तान से आने वाले सिख और हिंदू परिवारों को दे दी गई| इस आवंटन के बाद जो जमीन बच रही उस ‘नज़ूल लैंड’ को अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़ी जातियों को खेती के लिए देने का प्रावधान किया गया| नज़ूल के बाद पंचायती जमीन आती है जिसे दलितों को भी दिए जाने का प्रावधान है|

1961 के ‘द पंजाब विलेज कॉमन लैंड्स रेगुलेशन एक्ट’ के अनुसार ग्राम पंचायत के पास उपलब्ध कुल खेती योग्य जमीन का तीस प्रतिशत, दस प्रतिशत और दस प्रतिशत क्रमशः अनुसूचित जाति, पिछड़े वर्ग, और शहीद फौजियों के परिवारों को बोली/ नीलामी के द्वारा पट्टे पर दिए जाने का नियम है| नियम का पालन ठीक इस रूप में नहीं होता लेकिन परंपरा यह रही है कि पंचायती जमीन का 33 प्रतिशत हिस्सा दलितों के लिए सुरक्षित रखा जाता रहा है| इस पंचायती जमीन को हथियाने के लिए जमींदार वर्ग डमी दलितों का इस्तेमाल करता रहा है| पिछले कुछ वर्षों में दलितों के जो आंदोलन हुए हैं उनमें ‘डमी कैंडिडेट’ का मुद्दा भी शामिल रहा है|

11 दिसंबर को सबसे पहले मैं सुखविंदर पप्पी की सलाह पर संगरूर के बालद कलां गाँव गया| इस गाँव के दलितों ने लंबी लड़ाई लड़कर जमीन हासिल की है| 1956 में इस गाँव में नज़ूल सोसाइटी बन गई थी| तब से जमीन प्राप्त करने का संघर्ष चल रहा था|

बालद कलां गाँव में नज़ूल जमीन 600 बीघे से अधिक है| पंचायत की जमीन 220 बीघा है जिसका एक तिहाई दलितों को मिलना था| दलित पंचायत जमीन में अपने हिस्से के लिए 1984 से मांग करते आ रहे थे| जमीन प्राप्ति संघर्ष समिति के गठन के बाद जब यह मुद्दा ZPSC के पास आया तो निर्णायक संघर्ष प्रारंभ हुआ| समिति के आह्वान पर दलितों ने भवानीगढ़ बीडीओ के दफ्तर पर धरना दिया| इसके बाद रोड जाम किया| पुलिस ने लाठी चार्ज किया| 175 दलितों पर एफआइआर किया| पुलिस की लाठी से 15 बन्दों को चोटें आयीं| 41 आदमी 59 दिन जेल में रहे|

इनमे गाँव के तत्कालीन सरपंच-पति चरन सिंह भी थे| चरन सिंह की पत्नी 1998 से 2003 तक सरपंच थीं| तब उक्त जमीन बंजर पड़ी थी| पुलिस ने धारा 145 लगा रखी थी| कोर्ट के आदेश से यथास्थिति बनी हुई थी| 2002 में कोर्ट ने बहाल किया| एक दलित को डमी बनाकर जमींदारों ने यह जमीन ले ली| इससे दलित समुदाय क्षुब्ध हुआ| इस क्षोभ को आंदोलन में ढालने में सहायक हुआ ZPSC|

इस आंदोलन ने बालद कलां के दलितों को अपने हक़-हुकूक के लिए संगठित किया| जागरूकता का स्तर ऊँचा किया| सरकारी मशीनरी की बेरुखी और पुलिस की बेरहमी उनके संकल्प को तोड़ नहीं सकी| ZPSC का कार्य जारी रहा| 2016 में फिर आंदोलन तेज किया गया| मेन रोड ब्लॉक किया गया| पुलिस के हमले में 10-12 लोग घायल हुए| कई दलितों की बाहें टूटीं|

सात आंदोलनकारी तीन महीने (नब्बे दिन) जेल में रहे| प्रशासन ने आखिरकार उनकी मांगें मान लीं| 145 दलित परिवारों को 560 बीघे जमीन मिली| इस जमीन पर कोआपरेटिव खेती शुरू की गई| कोआपरेटिव कमेटी को रजिस्टर करा लिया गया है| जमीन मिले चार साल हो गए हैं| कोआपरेटिव खेती सफलतापूर्वक हो रही है| पिंड से पौन किलोमीटर की दूरी पर यह चक (खेत) है| मैं कोआपरेटिव सोसाइटी के सदस्यों के साथ इस चक पर गया| चक के अगले हिस्से में कई पट्टियों में बरसीम लगी हुई थी| बरसीम का हरे चारे के रूप में इस्तेमाल होता है| कई दलितों ने दुधारू पशु पाल रखे हैं|

दलितों की सामूहिक खेती में लगी फसल

वे कोआपरेटिव कमेटी को कुछ अतिरिक्त शुल्क देकर हरे चारे के लिए जमीन ले लेते हैं| बाकी खेतों में अनाज बोया जाता है| काश्त के रख-रखाव के लिए दो स्थायी कर्मचारी रखे गए हैं| बुवाई, कटाई, मड़ाई के वक्त काम करने वालों की संख्या बढ़ा दी जाती है|

खेत पर मेरी मुलाक़ात मदन सिंह (पुत्र जंगीर सिंह, 50 वर्ष) से हुई| वे स्थायी कर्मचारी हैं| पिछले 4 वर्षों से काम कर रहे हैं| वे कोआपरेटिव कमेटी के मेंबर भी हैं| मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि उन्हें समय पर तनख्वाह मिल जाती है| ग्यारह हज़ार रुपये प्रति माह वेतन है| चारे के लिए खेत लेने वालों का कोई रेट तय नहीं है| आपसी बातचीत के आधार पर पैसा लिया जाता है|

कमेटी के प्रधान अवतार सिंह हैं| ZPSC ने उन्हें अपनी तरफ से ग्राम पंचायत में पंच के पद के लिए खड़ा किया था| वे चुनाव जीते भी| इस तरह चुनाव जीतकर कोई दलित पहली बार पंच बना है| कमेटी के सदस्यों ने बताया कि प्राप्त उपज में से हर परिवार को 5-5 कुंतल अनाज देकर शेष अनाज को स्थानीय मंडी में बेच देते हैं| गेहूँ (कनक) और धान मुख्य फसलें हैं| अनाज की बिक्री का काम आढ़तिये के जरिए होता है| आढ़तिये पहले से तय हैं| भवानीगढ़ मंडी में अनाज बेचा जाता है|

बिक्री से जो पैसा आता है उसे सबको बाँट दिया जाता है| अमूमन अठारह हज़ार रुपये छमाही प्रति परिवार को मिलते हैं| कुल 188 परिवार हैं| इनमें वे 9 परिवार भी शामिल हैं जिन्हें डमी बनाकर ऊँची जाति वाले अब तक दलितों की जमीन हथियाते रहे हैं| कोआपरेटिव समिति ने फैसला किया कि मोहरा बनते रहे इन परिवारों को भी उपज का हिस्सा दिया जाएगा| पिछली बार तेरह हज़ार रुपये प्रति बीघा के हिसाब से पट्टे किए गए थे|

दलितों को नियमानुसार चार हज़ार रुपये बीघा जमीन मिली| उन्हीं के संघर्षों की वजह से अन्य पिछड़ी जाति के दुग्ध उत्पादकों को उसी दर पर हरे चारे के लिए नौ एकड़ जमीन का पट्टा मिला| मेरी जिज्ञासा पर समिति ने स्पष्ट किया कि अनाज का भंडारण करके रखना और उसे बाद में बेचने में कोई फायदा नहीं| भंडारण और रखरखाव की मुश्किलें व खर्च ज्यादा है|

ज़ेडपीएससी के प्रधान मुकेश ने बताया कि उनका किसी पोलिटिकल पार्टी से संबंध नहीं है| बारहवीं पास करने के बाद उन्होंने आइटीआइ से इलेक्ट्रिकल में कोर्स किया और जॉब करने लगे| गाँव की समस्याओं को लेकर नौजवान सभा में काम करते हुए उन्होंने नीले-पीले कार्ड पर राशन के लिए संघर्ष किया| यह संघर्ष बाद में जमीन प्राप्ति के संघर्ष तक पहुँचा| शुरुआत हुई बरनाला जिले के सेखा पिंड से| मामला नज़ूल लैंड का था| पंजाब के 11 जिलों में 1956 में नज़ूल कोआपरेटिव सोसायटियां बनी थीं|

दलितों को जो जमीन नज़ूल में मिली थी उस पर उन्हें सोसायटी का मेंबर बनाकर कोआपरेटिव खेती की जानी थी| केंद्र सरकार को इस जमीन पर खेती के लिए सुविधाएं देनी थी| कोई सहूलियत नहीं दी गई| न आर्थिक सहायता, न सिंचाई, न कृषि उपकरण| नतीजतन, दलितों ने कुछ समय तक इस जमीन पर खेती करने का प्रयास किया फिर थक-हारकर लीज पर देना शुरू किया| अनेक लोगों ने लीज पर जमीन लेकर उसे दबा लिया|

कई दलितों ने शादी आदि पारिवारिक जरूरतों के वक्त क़र्ज़ लेकर बदले में जमीन का रुक्का लिख दिया| यह जमीन तो लिखवाई जा नहीं सकती थी| ऐसे में जमीन हड़पने वालों ने गैरकानूनी कागज बनवा लिया| दलितों की जमीन दबा ली गई| थोड़े-बहुत पैसे देकर एक एकड़, दो एकड़ जमीनों के कागज बनवाए गए| कब्ज़ा कर लिया गया| सेखा गाँव में दलितों की आधे से ज्यादा जमीन पर इसी तरह का कब्ज़ा था| जमीन की पुनर्प्राप्ति के लिए उन्होंने मुकदमा किया हुआ था| वे मुकेश के संपर्क में आए| ऐसे पीड़ितों को मिलाकर मुकेश ने ‘जमीन प्राप्ति संघर्ष समिति’ बनाई| ज़ेडपीएससी ने इस जमीन पर 2013 में कब्ज़ा दिलाया|

इसके बाद ज़ेडपीएससी ने दलितों की दबाई गई जमीन से संबंधित आंकड़े इकट्ठे करने आरंभ किए| आरटीआइ का सहारा लिया गया| संगरूर जिले के ऐसे 125-30 गाँवों का पता चला| इन सभी गाँवों के पीड़ितों से संपर्क साधा गया| सेखा गाँव 2014 तक संगरूर जिले में ही था| 12 फरवरी 2014 को बड़रोखा गाँव में बैठक की गई| इनमें करीब 60 गाँवों ने हिस्सा लिया|

बैठक में जो प्रस्ताव पास हुए वे थे-
क) नज़ूल सोसायटी की जमीन पर मालिकाना हक मिले|
ख) नाजायज कब्जे हटाए जाएं|
ग) खेती के लिए पानी, कृषि उपकरण और कम ब्याज वाला क़र्ज़ मिले|
घ) पंचायत की जमीन का एक तिहाई दलितों को मिले|
ङ) भूमिहीनों/दलितों के लिए रिहायशी प्लाट आवंटित किए जाएं|
च) पंजाब का सीलिंग एक्ट 17 एकड़ की अनुमति देता है| इसे कम करके 10 एकड़ किया जाए| इसके बाद जो जमीन हासिल हो उसे दलितों और भूमिहीनों में बाँटा जाय|

ज़ेडपीएससी के पास मई 2014 में बालद कलां का मामला आया| यहाँ दलितों की पंचायती जमीन ज़मींदारों के कब्जे में थी और नज़ूल की जमीन भी| शुरू में सात धरने हुए| 5 बीडीओ ऑफिस पर, एक एसडीएम दफ्तर पर और एक धरना डीसी ऑफिस पर हुआ| पंचायत मंत्री के साथ भी एक बैठक हुई| मंत्री ने कहा कि अगर आपको जमीन दी जाएगी तो वापस नहीं मिलेगी| संघर्ष समिति के विरोध के बावजूद बीडीओ ऑफिस ने जमीन की बोली (‘ऑक्शन’) आयोजित की| डमी लोगों को जमीन दी गई| हमने उसके बारे में प्रूफ इकठ्ठा किया| ऑक्शन सत्ताइस लाख में हुआ था| इनमे से एक आदमी ने 14 लाख भरा था| हमने उस व्यक्ति का पता लगाया| वह बीपीएल कार्ड धारक है और मूँगफली की रेहड़ी लगाता है| इससे साबित हो रहा था कि उसे डमी बनाया गया है| लेकिन, इस पर कार्रवाई नहीं हुई| उलटे ज़ेडपीएससी के कार्यकर्ताओं पर मर्डर केस लगाकर 41 लोगों को जेल में डाल दिया गया| वे लोग दो महीने जेल में रहे| लगातार संघर्ष चला| तब कहीं जाकर उन्हें बिना जमानत रिहा किया गया|

जेल से छूटकर उन्होंने दुबारा डीसी ऑफिस पहुँचकर धरना-प्रदर्शन जारी रखा| ज़ेडपीएससी ने ऐलान किया कि वे ‘अपनी’ जमीन पर कब्ज़ा करने जाएंगे| इस घोषणा के बाद प्रशासन ने आंदोलनकारियों से समझौता किया और गेहूँ बोने हेतु छह महीने के लिए जमीन दी|

अगले साल 15 गाँवों में यह संघर्ष हुआ| डमी बोली वालों के साथ आंदोलनकारियों का टकराव हुआ और वे (ज़ेडपीएससी के कार्यकर्ता) कामयाब रहे| 2016 में करीब 30 गाँवों में पुनः संघर्ष हुआ| बालद कलां में एक बार फिर पुलिस द्वारा लाठी चार्ज किया गया| ज़ेडपीएससी के करीब 20 कार्यकर्ता घायल हुए| 16-17 केस दर्ज हुए| एक बंदे की दोनों बाजू तोड़ दी गई| औरतें भी जख्मी हुईं| गाँव पर पुलिस हमला हुआ| गाँव के चौधरी हमलावरों में रहे| उन्होंने पहले धावा बोला|

पुलिस की एंट्री बाद में हुई| तमाम अत्याचारों के बावजूद उन्हें ज़मीन देनी पड़ी| 33 में से 2 गाँवों को छोड़कर शेष सभी गाँवों में दलितों को पंचायत की जमीन मिल गई| नज़ूल लैंड के लिए संघर्ष चलता रहा| ज़ेडपीएससी ने कोआपरेटिव सोसाइटीज को सक्रिय किया| ज़मीन की शिनाख्त की गई| पंचायती जमीन का मुद्दा हर साल उभर आया करता था| जरूल और झनेरी गाँवों में डमी बोली हो गई थी| ज़ेडपीएससी ने फैसला किया कि डमी बोली वालों के खेत नष्ट किए जाएंगे| फैसले के अनुरूप इन खेतों में टेंट लगाकर फसल उखाड़ी गई| इस तरह नौ गाँवों में फसल नष्ट की गई|

बड़ी संख्या में पुलिस की तैनाती हुई| ज़ेडपीएससी के लोगों को जेल में डाल दिया गया| गर्राचों पिंड के 23, झनेरी के 23, और जलूर पिंड के 6 लोग जेल में डाले गए| समूरा पिंड के 36 लोगों को पुलिस ने केस में फंसाया| संघर्ष के बाद सरकार ने सबको रिलीज़ भी किया| किसी की जमानत नहीं कराई गई| जलूर गाँव में पुलिस की शह पर दबंगों ने दलितों पर हमला किया| ज़ेडपीएससी के एक कार्यकर्ता की माँ गुरुदेव कौर की टांग काट दी गई| कई लोगों के हाथ-पाँव तोड़े गए|

पुलिस गाँव के बाहर रहकर तमाशा देखती रही| बाद में पुलिस ने दोषियों को पकड़ने के बजाए ज़ेडपीएससी के कार्यकर्ताओं को पकड़ना शुरू किया| 16 कार्यकर्ता अरेस्ट हुए| 74 लोगों पर कातिलाना हमला करने की धारा लगाई गई| ज़ेडपीएससी के धरने-प्रदर्शन जारी रहे| करीब एक महीने के बाद माता जी की डेथ हो गई| उनका बेटा गाँव की ज़ेडपीएससी यूनिट का प्रधान था| संघर्ष समिति ने लाश न लेने, संस्कार न करने का फैसला किया| अकाली दल के एम पी परमेन्दर सिंह ढींढसा के आवास के सामने धरना शुरू किया| तब उन्हीं की सरकार थी|

15 दिनों के बाद उन्होंने ज़ेडपीएससी के कार्यकर्ताओं को बिना शर्त बिना जमानत कराए रिलीज किया और हमलावरों में से 5 लोगों को अरेस्ट भी किया| इसके बाद माता जी का संस्कार किया गया| यह केस अभी चल रहा है| इस दौरान ज़ेडपीएससी के कार्यकर्ताओं के ऊपर 5-6 केस और दर्ज हुए|

अभी ज़ेडपीएससी 60 गाँवों में पंचायती जमीन लेने में कामयाब हुई है| नज़ूल लैंड की लड़ाई में भी प्रगति हुई है| लड़ाई का एक पहलू जमीन का रेट तय करने का था| जो जमीन दस हज़ार रुपये में एक बीघा लीज पर मिल रही थी उसे कम कराकर चार हज़ार रुपये बीघा कराया गया|

जनरल कटेगरी को जो जमीन 65 हज़ार प्रति एकड़ मिलती है उसे दलितों के लिए 50 से 20 हज़ार प्रति एकड़ कराया गया है| यह मांग की गई कि अगर प्राइवेट कंपनियों को 33 साल के लिए ज़मीन दी जाती है तो दलितों को भी इतने ही समय के लिए दी जाए| मुकेश ने बताया- “हमने तीन गाँवों- धंधीवाल, मूलोवाल और तोलेवाल ग्रामसभा का मता (प्रस्ताव) पास किया| इसमें हमने दलितों के हिस्से की जमीन को तैंतीस वर्ष के लिए बोली करवाने का संकल्प लिया है| तोलेवाल में गाँव के चौधरियों ने दलितों पर हमला किया| लोगों को बुरी तरह से मारा-पीटा|

11 लोग गंभीर रूप से घायल हुए| किसी का सर फोड़ा गया, किसी का बाजू टूटा| पुलिस ने उलटे दलितों पर केस रजिस्टर किया| एफ़आइआर बीडीओ की तरफ से कराई गई| इसके बाद चौधरियों ने बीडीओ ऑफिस में डमी बोली करवाने की कोशिश की| हमने ऑफिस की घेरेबंदी की| तब जाकर दो हमलावरों पर एससी/एसटी एक्ट के तहत केस दर्ज हुआ और उन्हें जेल भेजा गया| 10 दिनों बाद पेशी हुई| वकील ने जमानत का विरोध किया| जज ने जिद करके जमानत दी|

2017-18 के दौरान और भी केस दर्ज हुए| अकेले मुझ पर 29 केस दर्ज हैं| ज़ेडपीएससी के 350 कार्यकर्ताओं पर केस दर्ज हैं| गाँवों में दलितों पर, औरतों पर चौधरियों, जमींदारों के हमले होते रहते हैं और इन्हीं दलितों, औरतों पर पुलिस की भी जुल्मो-ज्यादती होती है|”
“ऐसा नहीं है कि गैर दलितों की तरफ से दलितों के पक्ष में कोई न बोलता हो| कई छोटे जमींदार हमारे साथ आते हैं| हमारी तरफ से बोलते हैं|

प्रोटेस्ट के लिए हमें ट्रैक्टर-ट्राली भी देते हैं| बालद कलां में ऐसे दो परिवार दलितों की तरफ से बोले| जेल भी गए| इसी संघर्ष के दौरान तोलेवाल गाँव का सरपंच दलितों में से बना| वह ज़ेडपीएससी का मेंबर है| अभी उसे सस्पेंड करने का प्रयास चल रहा है| उसकी मुहर तक नहीं बनाई जा रही है| चौधरी समुदाय और पुलिस-प्रशासन ज़ेडपीएससी को लैंड माफिया बता रहे हैं| तोलेवाल गाँव के जमीन की अब तक ऑक्शन नहीं हुई है| हम जमीन लेने, लीज का दाम कम करने और तीन साल के लिए पट्टा करवाने में सफ़ल हुए हैं| इस जमीन को स्थायी रूप से लेने का काम चल रहा है|”

इन सब मामलों में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की क्या भूमिका है? मेरे इस सवाल पर संगरूर, बालद कलां, बरनाला, मानसा, जोगा आदि स्थानों के दलितों और कुछ गैर दलितों का कमोबेश एक ही जवाब रहा- “बसपा जमीन के मामले में नहीं उलझती|” यह उसका सरोकार नहीं है| जगमेल की हत्या के बाद हुए अंतिम अरदास में बसपा के नेता अवश्य शामिल हुए लेकिन उस परिवार को न्याय दिलाने के लिए चलने वाले प्रयास में वे इस तर्क से बाहर निकल गए कि इससे सामाजिक समरसता पर दुष्प्रभाव पड़ेगा| उनका ज़ोर दोनों पक्षों में समझौता कराने पर रहा| उन्होंने यह भी कहा इस मुद्दे को ज़ेडपीएससी ने हाईजैक कर लिया है| वे तो पीड़ित परिवार को एक करोड़ की धनराशि दिलाने वाले थे! बालद कलां के संघर्षशील दलितों का मानना था कि बीएसपी टकराव नहीं चाहती| वह समझौते की हिमायती है| मुकेश की टिप्पणी थी कि दलितों के लिए जैसे कांग्रेस, अकाली दल और भाजपा है वैसे ही बहुजन समाज पार्टी| यह दल ज़ेडपीएससी के विरुद्ध माहौल बनाने में उसी तरह संलग्न है जिस तरह वर्चस्ववादी जाति-समुदाय| समरसता के रास्ते दलितों की मुक्ति नहीं आ सकती|

संदर्भ सूची
‘द बैलड ऑफ़ बंत सिंह : अ किस्सा ऑफ़ करेज’ (2016), निरुपमा दत्त, स्पीकिंग टाइगर पब्लिशिंग प्रा. लि., अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली.
‘सोशल एंड पोलिटिकल मूवमेंट्स : रीडिंग्स ऑन पंजाब’ (2000), सं. हरीश के. पुरी, परमजीत एस. जज, रावत पब्लिकेशन्स, जवाहर नगर, जयपुर.
‘पीजेन्ट्स बैटल क्राई फॉर लैंड इन पंजाब : एन इन्वेस्टीगेशन इंटू पोलिस एंड लैंड-लार्ड रेप्रेशन ऑन लैंड स्ट्रगल ऑफ़ दलित पीजेन्ट्स इन विलेजेज ऑफ़ संगरूर डिस्ट्रिक्ट ऑफ़ इंडियन पंजाब’ (मई, 2016), ईश मिश्र और विकास बाजपेयी द्वारा जनहस्तक्षेप के लिए तैयार की गई रपट

https://www.countercurrents.org/Dalit%20Collective.pdf , accessed on January 12, 2020.

रपट में निर्दृष्ट संगरूर और मानसा जिलों के कुछ जगहों पर लेखक द्वारा दिनांक 11-12 दिसंबर, 2019 को तथ्य-संग्रह (फैक्ट-फाइंडिंग)|

(फीचर्ड इमेज में लेखक बजरंग बिहारी तिवारी बादल कला गाँव मे दलितों की कोऑपरेटिव फार्मिंग पर किसानों के साथ देखे जा सकते हैं।)

(लेखक बजरंग बिहारी तिवारी , प्रसिद्ध दलित चिंतक और आलोचक हैं। संप्रति: दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं। संपर्क: +919868261895

bajrangbihari@gmail.com)

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