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सावित्री बाई फुले के जन्मदिन पर कार्यक्रम आयोजित

 

भारत की प्रथम शिक्षिका सावित्रीबाई फुले का जन्म दिन तीन जनवरी को पड़ता है। इस अवसर पर दलित लेखक संघ (दलेस) तथा आंबेडकर विश्वविद्यालय अध्यापक संघ के संयुक्त तत्वावधान में एक दिवसीय विचारगोष्ठी व काव्यपाठ का आयोजन दिनांक 8 जनवरी 2019 को किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता दलेस के अध्यक्ष हीरालाल राजस्थानी ने की। संचालन डॉ. गुलाब ने किया।

अध्यक्षीय वक्तव्य में हीरालाल राजस्थानी ने कहा कि सन् 1848 में सावित्रीबाई द्वारा स्कूल खोलना जान जोखिम में डालने वाला कार्य था। फुले दम्पत्ति ने यह संभव कर दिखाया। उन्होंने अपनी चिंता जाहिर करते हुए बताया कि यह मनुवादी ताकतों के उभार का समय है। ऐसे वक्त में संघर्षशील लोगों को अपना दायरा विस्तृत करना होगा।

नई पीढ़ी का संघर्ष विमुख होना, कॅरियर ओरियन्टेड होना चिंता का विषय है। दलित लेखन की क्या परिभाषा हो, इस मुद्दे पर सोचना चाहिए। गाली-गलौज की भाषा को दलित भाषा कहना ठीक नहीं। हम तार्किक ढंग से उनके हमलों का जवाब दें। उनके स्तर पर न उतरें। कथनी-करनी में फर्क न रहे तो ठीक।

राजस्थानी ने आज के संदर्भो को जोड़ते हुए आगे कहा कि जहां सावित्री बाई फुले स्त्रियों की शिक्षा के लिए चिंतित थी। वहीं आज की महिलायें मंदिरों में प्रवेश के लिए आंदोलन करती दिखती हैं। यह सावित्रीबाई फुले की सोच से पीछे की बात हुई। वे आज होती तो यकीनन मंदिरों के प्रवेश के स्थान पर उनके महत्व को सिरे से नकारती।

मराठी लेखिका और कार्यकर्ता *दीपाली* ने कहा कि हमें स्त्रीवाद को आयात करने की जरूरत नहीं। हमारे पास सावित्रीबाई फुले की वैचारिकी है।

सावित्री बाई फुले ने मॉडर्न स्कूल का सपना देखा। उनकी सहयोगी रहीं फातिमा शेख। पेशवाई के दौर में ब्राह्मणवाद अपने चरम पर था। उस समय व्यवस्था से टकराना खतरे का काम था।

दीपाली ने कहा कि दलित स्त्रीवाद में स्त्री-पुरुष को परस्पर शत्रु के रूप में न देखा जाकर एक दूसरे का पूरक माना जाता है। जोतिबा और सावित्रीबाईं का आपसी प्रेम इसका आदर्श उदाहरण है। हम ब्राह्मणवाद मुर्दाबाद के नारे लगाकर संतुष्ट न हो जाएं। उससे आगे बढ़ें। संवाद स्थापित करें।

प्रमुख दलित स्त्रीवादी रचनाकार अनिता भारती ने कहा कि सावित्रीबाई फुले शिक्षानेत्री थीं। उनका योगदान भुलाया गया। इस देश में जाति के आधार पर लोगों की पूछ होती है, याद रखा जाता है। अनिता जी ने कहा कि सावित्रीबाई फुले की सहयोगी फातिमा शेख पर काम करने, उनके योगदान को सामने लाने की जरूरत है।

प्रो. हेमलता महिश्वर ने कहा कि हम पढ़ी-लिखी आज की महिलाएं सावित्रीबाई फुले के सामने कुछ नहीं। क्या हम एक गर्भवर्ती विधवा को अपने घर में पनाह दे सकती हैं?

समाज में फैली बिडंबना का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि यदि हम दलित समाज की बात करें तो जातिवादी और वे करें तो उदारवादी कहे जाते हैं।

सत्यशोधक समाज की भूमिका को हिंदी नवजागरण ने अब तक पहचाना नहीं है। सावित्रीबाई फुले की चिंता गैरदलित स्त्रियो को लेकर थी। यह स्वागतयोग्य बात है। हिंदू कोड बिल की चिंता के केन्द्र में मुख्यतः ग़ैरदलित स्त्रियाँ ही थीं।

पत्रकार भाषा सिंह ने कहा कि सावित्रीबाई फुले को आज भी बहुत कम लोग जानते हैं। जब पूना के आसपास प्लेग की महामारी फैली तो सावित्रीबाई फुले रोगियों की सेवा के लिए गईं। उन्होंने इस कार्य में जाति नहीं देखी। आज स्थिति उलट गई है। सुप्रीम कोर्ट कुछ भी कह दे लेकिन महिलाएं मंदिर नहीं जा सकती।

आरएसएस का पूरा तंत्र उन्हें रोकने में प्राण-प्रण से जुट जाता है। सत्ता चाहती है कि फुले-आंबेडकर जैसे लोगों को भुला दिया जाए। भाषा सिंह ने कहा कि आज स्त्री आंदोलन और दलित स्त्री आंदोलन में व्यापक एकता की जरूरत है। हम स्त्रियों को बर्बर युग में ठेल ले जाने का अभियान चल रहा है।

सीमा माथुर ने कहा कि अपने युग में सावित्रीबाई फुले अकेली थीं। आज हमें पचास लोग सुन रहे हैं। दलित साहित्य पर अपनी बात केंद्रित करते हुए सीमा माथुर ने इसमें दलित स्त्री के चित्रण का मुद्दा उठाया।

प्राध्यापिका आशा ने कहा कि दलित स्त्री संतों की चर्चा नहीं होती जबकि मीराबाई को सिर-माथे बैठाया जाता है।
जब तक आप प्रबुद्ध नहीं हैं तब तक हस्तक्षेप नहीं कर सकते। सावित्रीबाई फुले, ऊदा देवी, झलकारी बाई को चर्चा में लाने का श्रेय सोशल मीडिया को है।

जेण्डर स्टडीज विभाग की प्रोफेसर स्मिता पाटिल ने कहा कि इस सरकार ने बहुत से स्कूल बंद कर दिए। यह दुख की बात है। उन्होंने कहा कि सत्यशोधक समाज ने शिक्षा को मजबूत और वैज्ञानिक बनाने का काम किया। गाँधी से पहले सावित्रीबाई फुले खादी की पक्षधर थीं। वे अपनी साड़ी के लिए स्वयं सूत कातती थीं। डॉ. स्मिता ने आगे कहा कि आज प्रगतिशीलों में इंटीग्रिटी की कमी नज़र आती है।

वे दिखते कुछ हैं, होते कुछ और हैं। उनका यह भी कहना था कि ब्राह्मणवादी पितृसत्ता पहले से अधिक मजबूत हुई है। लोगों में कमिटमेंट की कमी से यह हुआ है। डॉ. स्मिता पाटिल ने बाबा साहेब के खोले संस्थानों को रिविजिट करने की जरूरत बताई। उन्होंने कहा कि लोग क्रिटिकल बनें और नई पीढ़ी को क्रिटिकल बनाएं।

अध्यापक संघ के अध्यक्ष और अंगरेजी विभाग के प्राध्यापक डॉ. विधान दास ने महाराष्ट्र के महात्मा जोतिबा फुले और उड़ीसा के समाज सुधारक भीमा भोई का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करते हुए कहा कि दोनों के मध्य कॉमन चीज़ है मनुष्य मात्र के प्रति साम्य भाव, आपसी प्यार।उन्होंने कहा कि सावित्रीबाई फुले में अपार धैर्य और साहस था।

अपनी टिप्पणी में बजरंग बिहारी ने कहा कि फुले के समकालीन बाल गंगाधर तिलक कहा करते थे कि शिक्षा स्त्रियों को संशयात्मा बना देगी, आदर्श बिखर जाएँगे, परिवार टूट जाएँगे।
तिलक की इस समझदारी के समक्ष फुले दम्पति की प्रगतिशीलता को रखकर देखिए तब उनका महत्व समझ में आएगा।

फुले ने कहा था कि सभी धर्मग्रंथ स्त्रियों को लेकर पक्षपाती हैं क्योंकि वे पुरुषों के द्वारा लिखे गए हैं।सावित्रीबाई फुले ने ब्राह्मण तथा ग़ैर ब्राह्मण दोनों वर्गों की स्त्रियों को पढ़ाया। उन्होंने कहा कि वर्तमान सरकार दलित हितैषी बनने का स्वांग भले ही करे वह देश विरुद्ध, जनविरुद्ध कार्य कर रही है। मनुवाद का परचम लहरा रहा है। ऐसे में समानधर्मा लोगों का एकत्र होना, संगठित होना आवश्यक है।

वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता कमलेश मधोलिया ने कहा कि वर्तमान सत्ता वर्णवादी गिरफ्त में है। ऐसे में सावधान रहने की जरूरत है। शिक्षिका *पुष्पा वर्मा* ने कहा कि सावित्रीबाई फुले को सनातनियों द्वारा खूब सताया गया। उनका जीवन संघर्ष से पूर्ण था। उन्होंने मेरिटवादियों पर तंज कसते हुए विज्ञान कांग्रेस की हास्यास्पद स्थापनाओं की तरफ सभा का ध्यान दिलाया।

दलित शोषण मुक्ति मंच के कार्यकर्ता और जनवादी लेखक संघ से जुड़े कवि *सत्यनारायण* ने दलित-वाम एकता की आवश्यकता बताते हुए महिलाओं को नेतृत्व में आने पर खुशी जताई। इस अवसर पर उन्होंने अपने एक गीत का सस्वर पाठ किया।

काव्य पाठ में अपनी रचनाओं का पाठ करने वाली दलित स्त्री कवियों में पूनम तुषामड़, अनिता भारती, सरिता सन्धू, ललिता महामना, शिल्पा भगत, कांता बौद्ध, आरती, भावना, संतोष सामरिया, चंद्रकांता सिवाल और गिरिजेश थे। कविता पाठ में भावना ने संतोष सामरिया की कविता तथा सुमन ने ललिता महामना की कविता पाठ का उनकी अनुपस्थिति में किया।

कार्यक्रम के आरंभ में सावित्रीबाई फुले रचित एक कविता तथा उनके द्वारा जोतिराव फुले को लिखे एक पत्र का पाठ किया गया।

इस अवसर पर दलेस की पत्रिका प्रतिबद्ध के नए अंक का लोकार्पण भी हुआ। कार्यक्रम के मध्य में सावित्रीबाई फुले पर एक लघु फिल्म भी दिखाई गई।

धन्यवाद ज्ञापन पूनम तुषामड़ तथा विधान दास ने किया। कार्यक्रम आंबेडकर विश्वविद्यालय के मुख्य सभागार में आयोजित किया गया।

दिन भर चले कार्यक्रम में उपस्थित लोगों में प्रो. गोपाल प्रधान, धनंजय पासवान, डॉ. अवधेश, कदम पत्रिका के संपादक कथाकार कैलाशचन्द्र चौहान और शोधार्थी सलमान सहित तमाम कार्यकर्ताओं, प्राध्यापकों तथा विद्यार्थियों की उपस्थिति रही।

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