Friday, December 1, 2023
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कथा लेखन पार्टी लाइन से नहीं तय होता – संजीव कुमार

लखनऊ में रेवान्त मुक्तिबोध सहित्य सम्मान 
लखनऊ. लखनऊ के कैफी आजमी एकेडमी के सभागार में 9 दिसम्बर को  आयोजित सम्मान समारोह में वर्ष 2019 का रेवान्त मुक्तिबोध साहित्य सम्मान जाने माने आलोचक संजीव कुमार को दिया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ आलोचक वीरेन्द्र यादव ने की। संजीव कुमार को ‘रेवान्त’ की संपादक डा अनीता श्रीवास्तव ने ग्यारह हजार रुपये का चेक, अंग वस्त्र तथा प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया।
प्रशस्ति पत्र का पाठ कवयित्री व कथाकार अलका प्रमोद ने किया। सरस्वती वन्दना आभा श्रीवास्तव द्वारा किया गया।
इस मौके पर अपने संबोधन में संजीव कुमार ने इस सम्मान के लिए रेवान्त पत्रिका का आभार जताया और कहा कि हम जिस समय में हैं वह खतरनाक है और साहित्यकार का काम इसकी शिनाख्त करना है, उसमें  हस्तक्षेप करना है। कहा जाता है  कि साहित्य हथियार है। यह मात्र कहने की बात नहीं है। प्रश्न है कि  इसका इस्तेमाल कैसे किया जाय ? आलोचक की यहीं भूमिका है। उनका कहना था कि ऐसा कहा गया है कि शब्द और अर्थ के मेल से ही साहित्य की रचना होती है। आज भी साहित्य की यही परिभाषा है। वस्तु और रूप को अलगाया नहीं जा सकता। कहानी कैसे लिखी जाय ? इसे न तो पार्टी लाइन तय कर सकती है न कोई साहित्य विश्लेषक बता सकता है। इसे कहानी खुद बतायेगी जिसकी शर्त है कि वह पाठक को संबोधित हो और उसे लगे कि लेखक जो कह रहा है वह समय का जरूरी और बड़ा सवाल है।
अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में वीरेन्द्र यादव का कहना था कि संजीव कुमार एक संवादी आलोचक हैं। कई बार लगता है कि इनका आलोचना कर्म बनी बनायी परम्परा के विरुद्ध जा रहा है। यहां विरुद्धों का सामंजस्य नहीं है। इनकी आलोचना में नया अन्वेषण है। ये अपनी वैचारिकता के लिए नयी जमीन तलाशते हैं। ‘तदभव’ के संपादक व कथाकार अखिलेश कहना था कि एक लेखक भाषा अर्जित करता है लेकिन एक आलोचक की भाषा उसकी दृष्टि से, प्रक्रिया से पैदा होती है। वह भाषा उस रास्ते से आती है जो पाठ के प्रति गहरी विनम्रता लिए होती है। अक्सर आलोचक पाठ के पास विनम्रता से नहीं जाते, दंभ से जाते हैं। उन्हें लगता है कि वह एक लेखक को शिक्षित-प्रशिक्षित करते हैं जबकि संजीव कुमार के पास दंभहीन भाषा है। संजीव दंभहीन आलोचक हैं। उनके पास उनकी सामाजिकता और प्रतिबद्धता का औजार मौजूद है।
आलोचक नलिन रंजन का कहना था कि संजीव कुमार का लखनऊ से गहरा कनेक्श्न है। इन्होंने शिवमूर्ति, देवेन्द्र, अनिल यादव, किरन सिंह आदि की कहानियों पर लिखा। उनके यहां प्रेमचंद से लेकर प्रेमचंदोत्तर कहानी, नई कहानी, साठोत्तरी कहानी और आज की कहानी को अलगाने की एक स्पष्ट दृष्टि दिखती है। वे एकदम नए कहानी कारों पर बेलाग आलोचना लिखते हैं। इनकी किताब ‘हिन्दी कहानी की इक्कीसवीं सदी: पाठ के पास, पाठ के परे ’ समकालीन कहानी को समझने की एक अच्छी किताब है।
कवि-आलोचक अनिल त्रिपाठी ने कहा कि संजीव कुमार की आलोचना में पाठ का बहुत महत्व है। वे पाठ को डिकोड करने में सिद्धहस्त हैं। उनके लिए संरचना पक्ष भी अपना अलग स्थान रखता है। संजीव कुमार समकालीन आलोचना में कहानी की आलोचना के लिए अपनी एक नई कथा भाषा का सृजन करते हैं।
सम्मान समारोह के संवाद का आरम्भ करते हुए ‘रेवान्त’ के प्रधान संपादक व कवि कौशल किशोर ने मुक्तिबोध को याद करते हुए कहा कि मुक्तिबोध के समय से आज का समय ज्यादा भयावह है। लोकतंत्र और संविधान संकट में है। सच बोलने वालों पर दमन बढा है। लेखकों व पत्रकारों की हत्या हुई है। ऐसे  में लेखकों और बौद्धिकों की क्या भूमिका हो, इस दिशा में सजगता आवश्यक है।
धन्यवाद ज्ञापन शोभा वाजपेई ने किया। इस मौके पर शलेन्द्र सागर, राकेश, सुभाष राय, भगवान स्वरूप कटियार, विनोद दास, वीरेन्द्र सारंग, आभा श्रीवास्तव, राजेश कुमार, अरुण सिंह, राम किशोर, विमल किशोर, रोली शंकर, विजय पुष्पम, दिव्या शुक्ला, सीमा राय द्विवेदी, राजा सिंह, उमेश पंकज, आशीष सिंह आदि साहित्यकार मौजूद थे।
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