समकालीन जनमत
सिनेमा

आदिवासी समाज के उत्पीड़न और आक्रोश की कहानी

(महत्वपूर्ण राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फिल्मों पर  टिप्पणी के क्रम में आज प्रस्तुत है मशहूर निर्देशक गोविंद निहलानी की आक्रोश । समकालीन जनमत केेे लिए मुकेश आनंद द्वारा लिखी जा रही सिनेमा श्रृंखला की सातवीं क़िस्त.-सं)


बतौर निर्देशक आक्रोश गोविंद निहलानी की पहली फ़िल्म है। इससे पहले वे श्याम बेनेगल की फिल्मों में छायाकार की भूमिका को बखूबी अंजाम देते आ रहे थे। फ़िल्म की कथा और पटकथा जाने-माने मराठी नाटककार विजय तेंदुलकर ने लिखा है। उनकी प्रतिभा और गहन सामाजिक दृष्टि की छाप फ़िल्म पर बहुत स्पष्ट पड़ी है। फ़िल्म में आदिवासी समाज के उत्पीड़न को विषय बनाया गया है।

लहानिया भीखू आदिवासी मजदूर है। फ़िल्म के एक किरदार, जो आदिवासी इलाके में सक्रिय वामपंथी एक्टिविस्ट है, के अनुसार लहानिया की समस्या यह है कि उससे अन्याय बर्दाश्त नहीं होता; उसका खून उबलता है। लहानिया को सबक सिखाने के लिए फारेस्ट कॉन्ट्रैक्टर मोरे, डॉ. पाटिल, सभापति भोसले और इनका एक पुलिस दोस्त मिलकर उसकी पत्नी नागी लहानिया (स्मिता पाटिल) का बलात्कार कर उसकी हत्या कर देते हैं और इल्जाम लहानिया भीखू पे डाल देते हैं। आगे अदालत की कार्यवाई शुरू होती है। वरिष्ठ वकील दुसाने (अमरीश पुरी) सरकारी वकील है, जबकि लहानिया के लिए सरकार की तरफ से भाष्कर कुलकर्णी (नसीरुद्दीन शाह) वकील है। भाष्कर दुसाने का जूनियर रह चुका है और यह उसका पहला बड़ा केस है। भाष्कर की खोजबीन और अदालती कार्यवाई चल ही रही होती है कि लहानिया के पिता का निधन हो जाता है। पिता के आखिरी क्रिया-कर्म में पहुँचा लहानिया अवसर पाकर अपनी युवा बहन का खून कर देता है।

इस तरह देखें तो फ़िल्म का सबसे अहम और सबसे चौंकाने वाला पहलू क्लाइमेक्स ही है। एक और अपमानजनक हालात का सामना न करना पड़े इसके लिए उठाया गया लहानिया का यह कदम हृदय विदारक है। उसका कृत्य खुद यह बतलाता है कि पूरा समाज और पूरी सरकारी मशीनरी जिस व्यक्ति के या जिस समुदाय के विरुद्ध हो उसकी मजबूरियां कितनी विकट होती हैं।

लहानिया की अपनी बहन को लेकर जो शंकाएं हैं वह निर्मूल नहीं हैं। उसका बाप और उसकी बहन नागी की त्रासदी के बाद भी ठेकेदार मोरे के यहाँ पेट पालने के लिए मजदूरी करने को विवश हैं। मोरे उसकी बहन के लिए भी बिस्किट भिजवाता है जैसे नागी को बिस्किट दिया था। इस बात पर ध्यान जाता है कि आखिर देने के लिए बिस्किट का ही चयन क्यों किया गया? क्या आदिवासी समाज को लेकर शोषक वर्ग की सोच यही है?

लहानिया को न्याय दिलाने की भाष्कर  की लड़ाई जैसे-जैसे आगे बढ़ती है दर्शकों के सामने उस समाज की परत दर परत सच्चाई खुलती जाती है जिसमें वह जी रहा है। पत्रकार सावंत के पास भाष्कर केस से जुड़ी जानकारी लेने जाता है। सावंत का कहना है कि “मुफ्त में कोई भी जानकारी नहीं मिलेगी।” उसके आर्टिकल से यह नहीं स्पष्ट होता कि वह लहानिया के बारे में है। इससे दुसाने का उसको ब्लैकमेलर कहना सत्य प्रतीत होता है। वह भास्कर से यह पूछता है कि क्या उसे डॉ. पाटिल ने भेजा है। जाहिर है कि वह हत्यारों से वाकिफ है। गुंडों द्वारा उसकी पिटाई से भी उसके ब्लैकमेलर होने और हत्यारों के निर्भय होने का पता चलता है।

भाष्कर की खोजबीन के क्रम में ही उसकी मुलाकात उस अजनबी से होती है जो नक्सलवादी कार्यकर्ता है और आदिवासियों को संगठित करने में लगा है। लहानिया और उसके परिवार की चुप्पी पर भाष्कर की झल्लाहट के जवाब में वह कहता है कि “तुम्हारा सिस्टम इनको साँस नहीं लेने दे रहा।” वह भास्कर से कहता है कि “तुम्हें दया आती है पर जो कुछ चल रहा है उसे देखकर गुस्सा नहीं आती।” भाष्कर के यह कहने पर कि कम से कम एक को तो न्याय दिला सकता है उसका जवाब परिस्थितियों का सटीक आकलन प्रदर्शित करता है-“क्या तुम्हें वाकई लगता है कि इस व्यवस्था में इंसाफ की गुंजाइश है।” आखिर में भाष्कर को असली हत्यारों का नाम वही बताता है जिसके चलते उसे अगुआ कर लिया गया।

फ़िल्म के एक दृश्य में रोचक कंट्रास्ट रचकर सरकार और सभी राजनीतिक दलों पर व्यंग किया गया है। जिस वक्त भाष्कर एक आदिवासी युवती को मारकर कुएं में फेंके जाने की खबर अखबार में पढ़ रहा होता है, रेडियो पर समाचार आता है कि प्रवक्ता ने कहा है कि जनता पार्टी में फूट की खबरें अफवाह हैं। दूसरी खबर है-“बिनोवा भावे ने सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल को बताया कि वे गौ हत्या पर सम्पूर्ण प्रतिबंध के सवाल पर अपने आमरण अनशन के फैसले पर अटल हैं।” केवल सरकार और राजनीतिक दल ही नहीं सारा समाज ही इसी तरह मशगूल है। एक दृश्य में भाष्कर सायकिल चलाता अदालत के चक्कर काट रहा है और एक घोड़ा गाड़ी ‘खयके पान बनारस वाला’ बजाते हुए किसी फिल्म का प्रचार कर रही है।

फ़िल्म का एक बेहद गौरतलब बिंदु दुसाने का किरदार है। वे आदिवासी समाज से आते हैं। दुसाने अदालत के भीतर ही नहीं अदालत के बाहर भी शोषकों के साथ हैं। आदिवासियों के बारे में उनकी राय है कि ‘शराब पीते हैं और मारकाट करते हैं’। उनके बरक्श भाष्कर का किरदार है। वह जाति से ब्राह्मण है। शुरुआत में उसकी लहानिया के केस को जीतने में रुचि महज अपना कैरियर बनाने को लेकर थी। लेकिन जैसे-जैसे समाज की सच्चाई से वह परिचित होता जाता है उसकी प्रतिबद्धता का स्तर बढ़ता जाता है। दरअसल भाष्कर का यह नजरिया अनोखा नहीं है। हम अपनी आंखों के सामने ऐसे लोगों को देख रहे हैं जिन्होंने आदिवासियों की लड़ाई में अपना सुविधापूर्ण जीवन त्यागकर भागीदारी की और अब उसकी सजा भी भोग रहे हैं। लेकिन दुसाने क्योंकर उत्पीड़कों के साथ खड़ा है? इसका एक कारण तो फ़िल्म ही बताती है। जहाँ लहानिया की समस्या अन्याय को न बर्दाश्त करना है; उसका आक्रोश है, वहीं दुसाने में आक्रोश का लेश नहीं दिखता। उसे अनाम फोन आते हैं जिसमें उसे गाली दी जाती है, जैसे-नीच जात साले अपनी हरकतें सम्भाल। दुसाने इस बात को एकदम ठीक समझता है कि गाली देने वाले उसकी तरक्की से जलते हैं। यहाँ तक कि जिन लोगों के साथ उसका उठना बैठना है वह भी उस पर बारीकी से तंज कसते रहते हैं।इसके बाद भी दुसाने आक्रोशित नहीं होता वरन शोषकों के पक्ष में तर्क देता है:-“बचपना छोड़ो भाष्कर। औरतों के साथ हमेशा यही होता है। लहानिया जैसे लोग बात का बतंगड़ न बनाये तो मामला वही रफा-दफा जाय।” उसके इस दृष्टिकोण के पीछे शायद वह सामाजिक सच्चाई जिम्मेदार है जिसमें दुसाने की स्थिति एक तिनके के बराबर है। वह अगर जरा भी समाज के शक्तिशाली गठजोड़ से विचलन दिखाये तो उसका भी सारा जीवन तबाह कर दिया जायेगा। वह भीतर ही भीतर उससे जलने वालों की सच्चाई से वाकिफ है।

फ़िल्म में लहानिया भीखू के हिस्से में न के बराबर संवाद आये हैं। अदालत में और अदालत के बाहर भाष्कर के सामने वह एकदम चुप है। ऐसे में उसे सारी अभिव्यक्ति चेहरे और आँखों से ही करनी पड़ी है। इसमें ओम पुरी को आशातीत सफलता मिली है। दरअसल  लहानिया ही नहीं उसका बाप और बहन भी प्रायः चुप ही हैं। क्लोज अप शॉट के जरिये इनकी आँखों का एक्सप्रेशन इसीलिये बार-बार लिया गया है। फ़िल्म की शुरुआत में जंगल और समुद्र के सौंदर्य को एक्सट्रीम लॉन्ग शॉट से दर्शाया गया है। इस अथाह प्राकृतिक सौंदर्य के साये में पल रही क्रूर सामाजिक सच्चाई दर्शकों के भीतर बिछोह पैदा करती है। भविष्य की उम्मीद के तौर पर फिल्मकार ने भाष्कर जैसे सुशिक्षित युवकों की न्याय के प्रति निष्ठा और लहानिया भीखू जैसे आदिवासी युवकों का आक्रोश छोड़ा है।

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