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सिनेमा

औरत की जानिब समाज की सच्चाइयों का आइना है ‘ भूमिका ’

( श्याम बेनेगल निर्देशित और स्मिता पाटिल अभिनीत फिल्म ‘भूमिका’ को 1977 के राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया. विश्व और भारतीय सिनेमा की महत्वपूर्ण फिल्मों पर श्रृंखला के क्रम में प्रस्तुत है फ़िल्म  ‘भूमिका’ पर मुकेश आनंद की यह टिप्पणी: सं )

विषय की दृष्टि से ‘भूमिका ‘ श्याम बेनेगल के फिल्मी सफर में एक उल्लेखनीय मोड़ है। इससे पूर्व उनकी तीन फिल्में-अंकुर (1974), निशांत(1975) और मंथन पर्दे पर आ चुकी थीं। इन तीनों ही फिल्मों में उन्होंने भारतीय ग्रामीण जीवन को यथार्थवादी दृष्टि से पर्दे पर उतारा है।

‘अंकुर’ का नायक एक आधुनिक शिक्षा प्राप्त नौजवान है जो एक जमींदार परिवार से आता है । फ़िल्म के आरम्भ में, जब वह निम्न समझी जाने वाली नायिका के सम्पर्क में आता है, एक उम्मीद जगाता है। वह बताता है कि उसका विश्वास ऊंच-नीच में नहीं है। इस तरह वह नायिका का सानिध्य हासिल करता है।

फ़िल्म के आगे बढ़ने के साथ यह बात दर्शकों पे खुलती है कि उसके भीतर भी शोषण और दमन की सारी सामंती इच्छा उतनी ही मजबूती से विद्यमान है। आधुनिक शिक्षा ने उसे कुछ और पैनापन दे दिया है। साफ है कि परिवर्तन का अंकुर इस नवशिक्षित सामंती पृष्ठभूमि के युवक से नहीं फूटना है। फ़िल्म के आखिर में जुल्म देख कर आजिज़ एक बच्चा नायक के घर पर पत्थर फेंकता है। यह संकेत काफी मानीखेज है।

‘निशांत’ में विद्रोह संकेत के स्तर तक सीमित नहीं है। इसमें शोषित जन वाकई संगठित होते हैं और जमीदार के परिवार का नाश कर देते हैं। सम्भव है कि देश में चल रही तत्कालीन उथल-पुथल ने कला की दुनिया में उम्मीदें जगाई हों। मंथन की समस्या अधिक जटिल है। यह फ़िल्म इस तथ्य को पुरजोर ढंग से सामने लाती है कि भारतीय सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचा इस कदर सड़ चुका है कि शोषित जनता के उत्थान की कोई भी पहल शोषकों के जाल में उलझ जाती है ।

उक्त तीनों फिल्मों के संदर्भ में देखें तो भूमिका का विषय नया है। कहानी गांव के बजाय शहर की है। केंद्र में स्पष्ट रूप से नारी का शोषण है।

फ़िल्म की प्रेरणा हिंदी और मराठी फिल्म स्टार रहीं हंसा वाडकर की आत्मकथा है। गोआ के तटीय क्षेत्र में स्थित ऐसा परिवार जो परंपरा से कला में निपुण है किंतु वेश्यावृत्ति से जुड़ाव के कारण सामाजिक रूप से हेय समझा जाता है। ऊषा (स्मिता पाटिल) की कहानी यहीं से शुरू होती है। पति दलवी से शुरू होकर उसके जीवन में चार पुरुष आते हैं; अलग-अलग पृष्ठभूमि और मिजाज के। विडंबना यह कि हर जगह उसे दुख और निराशा ही मिलती है । फ़िल्म के आखिरी हिस्से में एक महिला पात्र उससे कहती है-“कहाँ जाओगी? बिस्तर बदल जायेगा, रसोई बदल जाएगी, मर्द तो वही रहेंगे।मर्दों के मुखौटे बदलते हैं, मर्द नहीं ।”
ऊषा को अपने ठग और दलाल टाइप पति से; दार्शनिक टाइप के फ़िल्म निर्देशक प्रेमी सुनील शर्मा से और ठेठ सामंती मूल्यों में रचे आशिक़ विनायक काले से, एक ही चीज मिलती है-शोषण।

नायिका की अंदरूनी ताक़त की पहचान इस बात में की जा सकती है कि वह लगातार सच्चे जीवनसाथी की तलाश करती है। उसकी कमजोरी यह है कि वह सचमुच की ‘घरवाली’ बनना चाहती है। इस तरह देखें तो फ़िल्म नारी समस्या से जुड़े महत्वपूर्ण प्रश्न उठाती है। सफल अभिनेत्री जो कला में दक्ष है; आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर है; वह क्योंकर बार-बार पितृसत्ता के जाल में फंसती है? क्या आर्थिक आत्मनिर्भता नारी समस्या का कोई हल नहीं प्रस्तुत करती? क्या सहारे की खोज और सच्ची घरवाली बनने की चाह ही ऊषा के आजीवन चलने वाले संघर्ष और शोषण की वजह है? फ़िल्म में नायिका के जीवन मे आया एक अन्य पुरुष फ़िल्म स्टार राजन है। ऊषा यह कहकर उसके साथ घर नहीं बसाती की कहीं इस मधुर रिश्ते का भी हस्र बाकी सम्बन्धों जैसा ही न हो।

सम्भवतः वह यह रेखांकित करती है कि परिवार की संरचना और उसका पूरा ढांचा ही महिला के लिए कब्रगाह है। इसमें गृहपति की हैसियत से कोई भी पुरुष हो फर्क नहीं पड़ता।

फ़िल्म का आखिरी दृश्य भी टेलीफोन पर राजन के साथ बातचीत का है। वह सम्बन्ध क़ायम दिखाई देता है जिसे गृहस्थी में नहीं आजमाया गया ।

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