एक ही अंजाम बार–बार
भूमि से प्रेम का जो गाढ़ा रंग आदिवासियों में दिखाई देता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। खेत-खलिहान से इस तरह का प्रेम कुर्बानी मांगता है। धरती बचाने के लिए जितनी कुर्बानी आदिवासियों ने दी है, उतनी किसी और ने नहीं दी। इतिहास और साहित्य भले इन शहादतों पर खामोश है। शहादत की तमाम गाथाएं लोकगीतों और लोककथाओं में सुरक्षित और संरक्षित हैं। आज नहीं तो कल जब आदिवासी संघर्ष के इतिहास को जानने-समझने की आवश्यकता महसूस होगी, तब इन पुरखा गीतों और किस्सों की ओर लौटना ही होगा।
भूमि विवाद के लिए चर्चित नरसंहार रूपसपुर चंदवा 22 नंवबर 1971 ई में हुआ था। इस नरसंहार में संथाल समुदाय के आदिवासियों की जमीन पर वहाँ के स्थानीय सामंतों द्वारा जबरन कब्जा किया गया और संथालों के सामूहिक नरसंहार को अंजाम दिया गया। इस घटना में कई संथाल परिवार हलाक हुए। कई लोगों को जिंदा जला दिया गया। हालांकि पुलिस रेकार्ड में मात्र 14 लोगों के मारे जाने की बात सामने आई। इस शहादत पर दो–एक साहित्यकार और इतिहासकार को छोड़कर प्राय: मौन पसरा हुआ है। संथाल आदिवासियों ने अपनी कोशिश से सन 1976 से शहीद स्थल पर एक दिवसीय मेले का आयोजन शुरू किया, जिससे शहादत की यह गाथा मिटने से बची रह गई।
आदिवासियों को अपनी जोतदार जमीन को कब्जा से बचाने के लिए अनवरत जनसंहार का सामना करना पड़ा। जनसंहार की घटनाएं गीतों और कथाओं में जिंदा हैं। जमीन पर कब्जा करने का ताजा उदाहरण सोनभद्र में देखने को मिला, जब 17 जुलाई की सुबह 10 बजे उभ्भा गांव के खेतिहर गोंड आदिवासियों पर जानलेवा हमला कर दिया गया। उभ्भा के गोंड आदिवासी हर दिन की तरह उस दिन भी अपने खेतों में काम कर रहे थे। सब ठीक-ठाक चल रहा था। उनके बच्चे खेल रहे थे। किसान औरतें घर के पुरुषों के साथ खेतों में काम कर रही थी। सूरज की लौ तेज हो रही थी। तभी वहाँ के दबंग प्रधान ने बत्तीस ट्रैक्टरों के काफिले और लगभग डेढ़ सौ लड़ाकों के साथ काम करते गोंड किसान आदिवासियों पर गोली चलवा दिया, जिसमें दस किसान तो मौके पर ही शहीद हो गए और 28 बुरी तरह जख़्मी हो गए। मारे गए किसानों में तीन औरतें भी थीं।
उभ्भा गाँव, तहसील घोरावल, जिला सोनभद्र की इस घटना ने जमीन की बंदरबाट और आदिवासियों के साथ धोखाधड़ी और दलाली के ओपेन-सीक्रेट इतिहास को एकबार फिर उघाड़ कर रख दिया। लगभग दर्जन भर लोगों के जनसंहार के बाद यह गाँव 17 जुलाई 2019 के तीन-चार दिन चर्चा में आया। गौरतलब है कि इस घटना के करीब सौ साल पहले जलियावाला बाग काण्ड हुआ था। जालियावाला बाग में शहीद हुए लोगों की जान कीमती थी। उनका इतिहास है। इस जनसंहार के तो बस किस्से भर हैं।
प्रस्तुत अभिपत्र में उभ्भा गाँव की इसी परिघटना की संक्षिप्त विवेचना प्रस्तुत की गई है।
गरीबी, लाचारी और अज्ञानता से निर्मित होता है शोषण का व्याकरण –
घोरावल तहसील मुख्यालय से करीब 30 किमी दूर उभ्भा गांव मिर्जापुर-सोनभद्र की सीमा के पास स्थित है। यह गांव मूर्तिया ग्राम पंचायत में आता है। करीब 90 फीसदी गोंड़ आबादी वाला यह गाँव खेती-किसानी और मजदूरी करके अपना पेट-पर्दा चलाता है। गाँव के हर आदमी की सोच भूख के आसपास लिपटी रहती है।
इस गाँव की दुर्दशा की पटकथा आजादी के महज आठ साल बाद अर्थात सन 1955 में ही लिख दी गई, जब याहन ‘आदर्श कृषि सहकारी समिति’ की स्थापना हुई। ‘आदर्श कृषि सहकारी समिति’ के अध्यक्ष एक पूर्व आईएएस अधिकारी ने स्थानीय तहसीलदार के फर्जी आदेश से ग्राम समाज की बेहद उपजाऊ 635 बीघा जमीन को हथिया लिया। इस जमीन पर गोंड किसानों का हक था। ‘आदर्श कृषि सहकारी समिति’ के नाम जमीन को तहसीलदार ने जिस अधिकार से स्थानांतरित किया, वह अधिकार उस समय उसके पास था ही नहीं। अर्थात तहसीलदार को 1955 में नामांतरण का अधिकार नहीं था। सोनभद्र की जानकारी रखने वाले जानते हैं कि यह जिला भू-सर्वे की अनंत समस्याओं से जूझ रहा है। शासन की लापरवाही और भू-माफियाओं की सांठ-गांठ से आदिवासी बाहुल्य जिला सोनभद्र के आदिवासी भूमिहीन होकर भुखमरी और पलायन को मजबूर हो रहे हैं।
‘आदर्श कृषि सहकारी समिति’ ने लोकतंत्र के ख्वाब को हकीकत बनाने वाले दस्तावेज भारतीय संविधान लागू होने के मात्र पांच साल बाद उभ्भा गाँव की उस जमीन को हथिया लिया जो सदियों से गोंड आदिवासी परिवारों के अधीन थी। अभिलेख बताते हैं कि “गांव के आदिवासी लोग 1947 के पहले से ही जमीन पर रहकर खेतीबाड़ी कर रहे हैं।”*1 ‘आदर्श कृषि सहकारी समिति’ का स्थानांतरण व्यक्तिगत संपत्ति की तरह पूर्वआईएएस अधिकारी के वंशजों को होता रहा। सहकारी समिति की जमीन स्थानांतरण के दस्तावेजों ने जमीन हथियाने की पूरी कथा को उघाड़ दिया है। पूर्व आईएएस ने 6 सितंबर 1989 को यह जमीन पत्नी और बेटी के नाम करा दी, जबकि सहकारी समिति की जमीन किसी व्यक्ति के नाम नहीं हो सकती। कब्जा नहीं मिलने के कारण पूर्व आईएएस ने ग्राम वहाँ के एक दबंग प्रधान (जिसने 22 नवंबर को गोंड किसानों पर गोली चलवाई) को 100 बीघा जमीन बेच दी। ऐसा इसलिए किया गया ताकि दबंग प्रधान जमीन हथिया ले। प्रधान के बाद बाकी जमीन पूर्व-आईएएस के परिवार वाले हासिल कर लेंगे। ग्राम प्रधान ने अक्तूबर 2017 में इस जमीन को अपने और अपने रिश्तेदारों के नाम करवा लिया। इलाहाबाद हाइकोर्ट के एक अधिवक्ता बताते हैं कि “ग्राम प्रधान को पहले से अंदेशा था कि गांववाले विरोध करेंगे और याचिका भी दाखिल कर सकते हैं। इस कारण हाइकोर्ट में उन्होंने दबंग ग्राम प्रधान की ओर से कैविएट भी फाइल की थी।”*2
‘आदर्श सहकारी कृषि समिति’ के सभी किरदार स्थानीय शासन और कानून दोनों की शक्ति और कमजोरी का इस्तमाल करने में माहिर खिलाड़ी हैं। फर्जी तरीके से हासिल की गई जमीन से जुड़ा समिति का अंतिम किरदार, जो संयोग से एक ग्राम पंचायत का प्रतिनिधि भी है, ने अदालत द्वारा प्राप्त कैविएट अर्थात कानून के तकनीकी पक्ष का उपयोग अपने हित में करता है। इसके अर्थ को जान लेना जरूरी है। कैविएट एक लैटिन शब्द है, जिसका अर्थ होता है– सूचना देना, जिसे एक पार्टी द्वारा कोर्ट में दाखिल किया जाता है। इस दाखिल अपील में मांग की जाती है कि न्यायालय अपील दाखिल किए जाने वाली पार्टी को बिना सूचित किए विपक्षी पार्टी के पक्ष अथवा विपक्ष में कोई निर्णय नहीं दे सकती है। इस तरह कैविएट एक ऐसा कानूनी नुस्ख़ा है जिसका इस्तेमाल प्राय: कानून के लोग करते हैं।
‘आदर्श सहकारी कृषि समिति’ में अंतिम किरदार दबंग ग्राम प्रधान के दाखिल होने से पूरे मामले में तेजी आ गई थी। ग्राम प्रधान रसूख का इस्तमाल करते हुए इस पूरे मामले को यथाशीघ्र अपने पक्ष में मोड़ने की हर मुमकिन कोशिश कर रहा था। आदर्श सहाकरी कृषि समिति के द्वारा जब सौ बीघा जमीन ग्राम प्रधान को लिखे जाने के बाद उस जोत पर खेती-बारी करने वाले किसानों का पता चल गया कि जिस जमीन पर वह कई पुस्तों से खेती करते आ रहे हैं, वह जमीन फँसाई जा रही है। इसलिए गरीब गोंड किसान सक्रिय हुए। उन्होंने “एआरओ राजकुमार के यहां प्रार्थना-पत्र दिया, पर एआरओ ने इस साल 6 फरवरी को अपील खारिज कर दी। इसके बाद गांव वालों ने डीएम सोनभद्र के यहां अपील की, लेकिन उनकी अपील वहां भी खारिज हो गई। घटना वाले दिन गांववाले अपील करने मिर्जापुर जा रहे थे। इस बात की जानकारी कोतवाली घोरावल में भी थी।”*3
भूख बड़ी नासपीटी चीज होती है–
भूख बड़ी क्रूर होती है। विकल्पहीन किसान खेती कर रहे थे। 17 जुलाई 2019 की सुबह उन्हें आम सुबह की तरह लग रही थी। मारे जाने वालों को छोड़कर सब जानते थे कि आज क्या होने वाला है। गाँव के भुक्तभोगी परिवार के सदस्य ने बताया कि “घटना वाले दिन सुबह थाने से फोन आया था कि थाने में आकर समझौता कर लो।”*4 तब उस व्यक्ति ने कहा कि “यह सिर्फ मेरा मामला नहीं है। पूरे गाँव का मामला है और मैं नहीं आऊंगा।….तब सिपाही ने कहा अगर कुछ हो गया तो मुझे मत कहना।”*5 उस सुबह रोटी उगाने वाले किसानों को रोटी नहीं, मगर गोली जरूर मिली। मिट्टी को अपना मानने वाले आदिवासी धरती की रखवाली करते मिट्टी हो गए।
पाँचवीं अनुसूची के लागू होने का इंतजार-
सोनभद्र आदिवासी बाहुल्य जिला है, जो क्षेत्रफल की दृष्टि से लखीमपुर खीरी के बाद उत्तर प्रदेश का दूसरा सबसे बड़ा जिला है। लखीमपुर खीरी में कुल तेईस महाविद्यालय हैं, जिसमें एक कृषि महाविद्यालय भी शामिल है। है। लखीमपुर खीरी में एक उल नदी बहती है, शारदा नदी से निकलकर घाघरा में मिल जाती है।
सोनभद्र की जल-वन संपदा उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े जिले से अधिक है। सोन और बेलन नदी के कारण सोनभद्र में आदिम सभ्यताओं को पनपने का मौका मिला। बेलन नदी के किनारे प्राचीन सभ्याता के कई प्रमाण प्राप्त हुए हैं। इस नदी घाटी के आसपास के इलाकों से पुरातात्विक उत्खननों में उच्च पाषण युग के कई अवशेष प्राप्त हुए हैं। कार्बन डेटिंग से पता चला है कि ये अवशेष 17,000 वर्ष पुराने हैं। इस अवशेषों में अस्थि निर्मित मातृदेवी की मूर्ति सर्वाधिक प्रसिद्ध है। यह मूर्ति नदी में मिलने वाले लोंहदा नाले के पास से प्राप्त हुई है। पुरातत्वशास्त्रियों का मानना है कि यहाँ के आदिम बासिंदे मूर्तिकला में निपुण रहे होंगे। साथ ही साथ यहाँ व्यापारिक गतिविधियाँ भी संचालित होती रही होंगी।
सोनभद्र की दूसरी नदी सोन है। इसी नदी के कारण इस जिले का नाम सोनभद्र पड़ा है। सोने से चमकीले बालू के कारण इसे सोन नदी कहा जाता है। सोन का बालू इमारतों के निर्माण के काम आता है। इस नदी के किनारे प्राचीन अगोरी (सोनभद्र) और रोहतासगढ़ (रोहतास जिला, बिहार) के किले स्थित हैं। यह नदी सोनभद्र और झारखंड को जोड़ते हुए आगे बढ़ती है।
दोनों नदियों से सिंचित सोनभद्र लोककथाओं, कंदराओं, भित्तियों और किलों से सुसंपन्न भारत का एकमात्र ऐसा जिला है, जिसकी सीमाएं चार राज्यों को छूती हैं। सोनभद्र जल-जंगल-जैव विविधता और खनिज संसाधन से परिपूर्ण है। जिले की आबादी लगभग साढ़े अट्ठारह लाख है, जो कोसोवा और प.वर्जिनिया जैसे देशों के बराबर है। इस जिले में हिंदी, भोजपुरी के अलावा गोंडी और कुड़ुख जैसी आदिवासी भाषाएं बोली जाती हैं। भाषा व जन की विविधता के साथ–साथ शैक्षिक रूप से पिछड़े होने के कारण यहाँ उत्तर प्रदेश के दूसरे जिलों की तुलना में अधिक शिक्षण संस्थान होने चाहिए, मगर ऐसा नहीं है। इस जिले में लगभग बारह महाविद्यालय ही हैं। मानव भूगोल के आधार पर यहाँ एक बड़े विश्वविद्यालय की पूरी गुंजाइश है। इतना ही नहीं, आदिवासी बसाहट और संस्कृति के आधार पर यह जिला संविधान द्वारा प्रदत्त पाँचवीं अनुसूची के लागू होने के लिए एकदम उपयुक्त है। यदि सही तरीके से पाँचवीं अनुसूची लागू हो और शिक्षण संस्थान स्थापित हो जाएं तो इस जिले की तमाम समस्याओं का समाधान हो पाएगा।
नरसंहार के बाद क्या बदला ?
वर्तमान में इस गाँव में एक प्राथमिक पाठशाला है। उच्च प्राथमिक पाठशाला न होने के कारण इस गाँव के लगभग बीस बच्चे बच्चे मूर्तिया गाँव स्थित उच्च प्राथमिक पाठशाला जाते थे। इस नरसंहार के बाद पीड़ित परिवारों में भय का माहौल व्याप्त हो गया है। इसलिए वे अब अपने बच्चों को वहाँ नहीं भेजते। उन्हें भय है कि उनके बच्चों पर भी जानलेवा हमला हो सकता है। इसलिए “उभ्भा गांव में नरसंहार की घटना के बाद वहां के बच्चों को उच्च प्राथमिक स्कूल मुहैया कराए जाने की कवायद तेज हो गई है। प्राथमिक विद्यालय उभ्भा परिसर में ही उच्च प्राथमिक विद्यालय के संचालन पर शिक्षा विभाग ने मंथन तेज कर दिया है।”*6
वहाँ एक पुलिस चौकी स्थापित कर दी गई है। इस पुलिस चौकी के माध्यम से सत्तरह आदिवासी जनसंख्या बाहुल्य गांवों की निगरानी की जाएगी।
स्रोत –
*1-https://www.outlookhindi.com/country/general/ground-report-sonbhadra-massacre-the-backdrop-behind-killings-of-10-gond-tribal-persons-39390
*2-https://www.jagran.com/uttar-pradesh/sonbhadra-primary-school-will-soon-become-primary-19455457.html
*3-https://www.outlookhindi.com/country/general/ground-report-sonbhadra-massacre-the-backdrop-behind-killings-of-10-gond-tribal-persons-39390
*4- वही।
*5 – वही।
*6-https://www.jagran.com/uttar-pradesh/sonbhadra-primary-school-will-soon-become-primary-19455457.html