डॉ. राजेश मल्ल
साहित्य अपने अन्तिम निष्कर्षों में एक सामाजिक उत्पाद होता है। कत्र्ता के घोर उपेक्षा के बावजूद समय और समाज की सच्चाई उसके होठों पर आ ही जाती है। ऐसे में जब कविता का मूल भाव समाज परिवर्तन हो तो समाज में निहित द्वन्द्व, अन्तर्विरोध अत्यन्त स्वाभाविक रूप से कविता में घुल-मिलकर प्रवाहित होते हैं। ‘जनगीतों’ का स्वरूप कुछ ऐसे ही बना-रचा हुआ है। सामाजिक अन्तः सम्बन्ध और उनमें निहित असमानता के तनावपूर्ण रूप जनगीतों के मूल विषय हैं।
जनगीतों में सर्वाधिक गैर बराबरी तथा शोषण और उत्पीड़न के सन्दर्भ चित्रित हुए हैं। लगभग सभी गीतों का आधार तथा दृष्टि इस बात से परिचालित है कि जो लोग अपनी मेहनत से दुनिया का सृजन करते हैं वही समाज में उपेक्षा और उत्पीड़न का शिकार हैं। चूंकि समाज का ताना-बाना, मूलतः एक विशाल शोषणकारी तन्त्र द्वारा संचालित है, जिसमें मेहनतकश अवाम के लिए कुछ भी नहीं है, और मुठ्ठीभर लोगों के लिए ‘सब कुछ है।’ इसलिए जनगीतों का इसके विरुद्ध संघर्ष और परिवर्तन का स्वर प्रमुख है। इस रूप में जनगीतों के भीतर एक शोषण और अन्याय से भरे समाज का चित्रण हुआ है तो दूसरी ओर इसके बदलने की बेचैनी का।
समाज अपने व्यापक तथा सीमित दोनों अर्थों में व्यक्ति, परिवार, जाति समूह गांव, रिश्ते-नाते, देश आदि से बँधा होता है। लेकिन उसके बीच मौजूद असमान रूप तथा उत्पीड़नकारी सम्बन्ध निरन्तर संचालित होते हैं। जनगीतों में मौजूद समाज इस नुक्ते को साफ कर के चलता है कि सारे सामाजिक सम्बन्ध मात्र शोषक-शोषित के बीच बँटे हुए होते हैं। इस रूप में जनगीतों का समाजशास्त्र शास्त्रीय किस्म का समाज नहीं है बल्कि लूट और उत्पीड़न से संचालित समाज है जिसे बदलने की बेहद जरूरत है। लेकिन इसके कथन की शैली तथा रूपकों में भिन्नता एक नये आवर्त और उठान के साथ आता है जिससे एक ताजगी बनी रहती है। इस सन्दर्भ में महत्वपूर्ण तथ्य है कि एक पूरा का पूरा समाज और उसके बुनियादी द्वन्द्व जनगीतों का यह विशेष सामाजिक सन्दर्भ है।
‘आहृवान’ नाट्य टोला का प्रसिद्ध गीत है जो ‘हमारा शहर’ फिल्म में गाया भी गया है। पूरे गीत में भारतीय समाज के मुख्य तथा अन्य सामाजिक अन्तविर्रोधों को बेहद खूबसूरती से उठाया गया है। प्रत्येक बन्द अलग-अलग सामाजिक गतियों को चित्रित-वर्णित करते हैं। पहले बन्द में कृषक समाज का चित्र रखा गया है-
अपनी मेहनत से भाई धरती की हुई खुदाई
माटी में बीज बोया, धरती भी दुल्हन बनाई
पसीना हमने बहाया, जमींदार ने खूब कमाया
साहूकार के कर्ज ने हमको गांव से शहर भगाया।
अरे दाने-दाने को मजदूर तरसे जीने की कठिनाई
ऐसी क्यों हे भाई………………….।
गीत एक बारगी किसान के मजदूर बनने की प्रक्रिया और गांव से उजड़ने के कारणों का खुलासा करता है। समस्या उस समाज की है जिसमें जमींदार और साहूकार अभी भी मौजूद हैं और नये तरीके से ‘धरती को दुल्हन’ की तरह अपने पसीने से सजाने वाले किसान को बदहाल बना देते हैं। इसी क्रम में गीत के क्रमशः अपने अगले बन्दों में एक-एक सामाजिक समूह की बिद्रूपताओं को उठाया गया है तथा-
अपनी मेहनत से भाई, धरती की हुई खुदाई
माटी से गारा बनाया, माही से ईंट बनाई
धनवान को मिली सुविधा, सुख चैन भुलाया हमने
अरे अपना ही रहने का घर नहीं है भाई। यह बिल्डरों का राज है।
खाने को दाना नहीं पीने को पानी नहीं रहने को घर नहीं पहनने को कपड़ा नहीं। यह कैसा राज है भाई।
इसी क्रम में बुनकरों की सामाजिक स्थितियों तथा उनके कर्म की उपेक्षा का चित्र है यथा-
अपनी मेहनत से, रूई को सूत बनाया
उसको चढ़ा पहिये पर, कपड़ा हमने बनाया
कपड़े पर रंग-बिरंगे झालर चढ़ाई हमने
टी0बी0 को अपनाया, माल लिया मालिक ने अरे हम अध नंगे मुर्दाघाट पर कफन की भी महंगाई। ऐसा क्यों है भाई।
किसानों,मजदूरों,बुनकरों,दलितों की विडम्बना पूर्ण स्थितियों के विद्रूप चित्रों तथा विडम्बना मूलक सामाजिक सन्दर्भो से भरे पड़े हैं जनगीत। बल्कि उनकी रागिनी उनके दुःख पीड़ा की ठंडी लहर सी निर्मित होती है।
जनगीतों का सारा ध्यान मेहनतकश अनाम तथा उसके श्रम की लूट पर टिका हुआ है। ब्रज मोहन के गीत कुछ इस तरह हैं:-
धरती को सोना बनाने वाले भाई रे
माटी से हीरा उगाने वाले भाई रे
अपना पसीना बहाने वाले भाई रे
उठ तेरी मेहनत को लूटे हैं कसाई रे।
मिल, कोठी, कारें, ये सड़कें ये इंजन
इन सब में तेरी ही मेहनत की धड़कन
तेरे ही हाथों ने दुनिया बनाई
तूने ही भर पेट रोटी न खाई………।
कहने का अर्थ यह कि एक ऐसा समाज जो मेहनत कश के अपार श्रम की लूट पर टिका है वह समाज नहीं चल सकता। उसे बदलने की जरूरत है। निश्चय ही यही जनगीतों का महत्वपूर्ण सामाजिक सन्दर्भ है। श्रमजीवी समाज के दुःख, पीड़ा, गरीबी और दुश्वारियों के चित्रण के साथ जनगीत उस बुनियादी अन्तर्विरोध को उठाते हैं जो मानव समाज को आगे ले जाने में समर्थ हैं अर्थात श्रम और पूंजी का अन्तर्विरोध। शील ने इसे साफ शब्दों में रचा है-
हँसी जिन्दगी, जिन्दगी का हक हमारा।
हमारे ही श्रम से है जीवन की धारा।
ऐसे समाज में जहाँ समस्त श्रमजीवी समाज यथा मजदूर, किसान, दलित स्त्री उत्पीड़ित है उसे बदलने की जरूरत है। यह आकस्मिक नहीं कि जनगीत समाज परिवर्तन के लिए निरन्तर संघर्ष के लिए पे्ररित करते दिखते हैं। इस रूप में जनगीत का दूसरा महत्वपूर्ण पहलू समाज परिवर्तन तथा एक न्यायपूर्ण समाज का निर्माण विशेष सामाजिक सन्दर्भ है। यहाँ यह भी साफ होना चाहिए कि जनगीत किसी अमीर और व्यक्गित उन्नति का पाठ नहीं रचते बल्कि उनका सारा जोर समाज बदलने का आहृवान, संघर्ष, प्रेरणा और नवीन समाज के स्वप्न से भरा हुआ है।
जनगीत विशुद्ध रूप में सामाजिक हैं, उनका ध्येय शोषण पर टिके समाज को बदलकर नये समाज का सृजन है, यही उनका मान है, यही लय है और यही छन्द। साहिर का प्रसिद्ध गीत है-यह किसका लहू है कौन मरा। उसकी चन्द पंक्तियों का उल्लेख जरूरी है:-
हम ठान चुके हैं अब जी में
हर जलियाँ से टक्कर लेंगे
तुम समझौते की आस रखो
हम आगे बढ़ते जाएँगे
हमेें मंजिल आजादी की कसम
हर मंजिल पे दोहराएँगें ।
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना तो अपने गीत में एक साथ शोषण तन्त्र के तमाम रूपों तथा कारणों को चित्रित करते हैं और उसके खिलाफ एक साथ जंग का ऐलान करते हैं। अपने आस-पास बिखरी समस्याओं की पहले वे व्याख्या करते हैं-
यह छाया तिलक लगाये जनेऊ धारी हैं
यह जात-पात के पूजक हैं
यह जो भ्रष्टाचारी हैं।
यह जो भू-पति कहलाता है जिसकी साहूकारी है।
उसे मिटाने और बदलने की करनी तैयारी है।
इसी गीत का अगला बंद है-
यह जो तिलक मांगता, लड़के की धौंस जमाता है।
कम दहेज पाकर लड़की का जीवन नरक बनाता है।
पैसे के बल पर यह जो अनमेल विवाह रचाता है।
उसे मिटाने और बदलने की तैयारी है।
जारी है-जारी है आज लड़ाई जारी है।
संघर्ष के आह्वान का दूसरा मुकाम संघर्ष से नये समाज को प्राप्त करने का है। बल्ली सिंह का प्रसिद्ध गीत है-
ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गांव के, अब अंधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गांव के, पूछती है झोपड़ी और पूछते खेत भी, कब तलक लुटते रहेंगे लोग मेरे गांव के। बिन लड़े कुछ भी नहीं मिलता यहां यह जानकर अब लड़ाई लड़ रहे हैं, लोग मेरे गांव के।
जनगीतकार एक नये समाज रचना के लिए प्रतिबद्ध है। वह समाज जो शोषण-उत्पीड़न से मुक्त बराबरी समानता का हो। मेहनतकश अवाम का हो। गरीब मजदूर किसान की दुश्वारियां जहां न हों, जहाँ स्वास्थ्य शिक्षा की सबके लिए व्यवस्था हो। उसे उम्मीद है कि शोषण का पूरा ढांचा एक दिन गिरेगा। ब्रेख्त के शब्दों में –
एक दिन ऐसा आयेगा
पैसा फिर काम न आयेगा
धरा हथियार रह जायेगा
और यह जल्दी ही होगा
ये ढाँचा बदल जायेगा………।
इस प्रकार जनगीत बेलौस तरीके से समाज के मुख्य अन्तर्विरोध को उठाते हैं। उनके लिए मेहनत की लूट और पूँजीवादी निजाम महत्वपूर्ण सामाजिक सच्चाई है। लेकिन वे यहीं नहीं रुकते, वे इसे बदलने के लिए संघर्ष की हामी भरते हैं। परिवर्तन में आस्था व्यक्त करते हैं। एक लंबे तथा दीर्घ कालिक संघर्ष को सजाये गीत नये समाज के स्वप्न को धरती पर उतारने के लिए प्रतिबद्ध हैं। श्रम और पूंजी की इस जंग में वे श्रम के सभी पक्षकारों को आमन्त्रित करते हैं-
गर हो सके तो अब कोई शम्मा जलाइए
इस अहले सियासत का अन्धेरा मिटाइए
अब छोड़िये आकाश में नारा उछालना,
आकर हमारे कन्धे से कन्धा मिलाइए।
क्यों कर रहे हैं आँधी के रुकने का इन्तजार,
ये जंग है, इस जंग में ताकत लगाइए।
(फीचर्ड इमेज जनगीतों के ‘हिरावल’ दस्ते से. यह लेख लोक संघर्ष पत्रिका से साभार लिया गया है. लेखक राजेश मल्ल जवाहर लाल नेहरु स्मारक महाविद्यालय बाराबंकी में हिंदी के अध्यापक हैं )