माही
बच्चों के समाजीकरण में तमाम संगठनों, संस्थानों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यूं तो ये जिम्मा स्कूल नामक शैक्षणिक संस्थाओं का सबसे अधिक माना जाता है लेकिन पूंजी, व्यवस्था और एक खास क़िस्म के विचार की राजनीतिक, सांस्कृतिक सत्ता के दबाव के चलते स्कूलों में बच्चों के दिमाग को एक खास क़िस्म के फ्रेम में फिक्स किया जा रहा है। ऐसे में उन संस्थानों, संगठनों, की भूमिका बढ़ जाती है जो देश व समाज के भावी पीढियों के विकास के लिये समर्पित हैं। इलाहाबाद के ख्यातिलब्ध कवि एक्टिविस्ट अंशु मालवीय, समाजसेवी उत्पला शुक्ला, कामगार महिला मोर्चा की प्रभा, सरिता, किरण, अनीता आदि के अथक प्रयासों से ‘सिरजन’ पिछले 14 सालों से लगातार कुम्भ मेले में बच्चों के लिये कार्यशाला, किस्सागोई, गीत संगीत के कार्यक्रम आयोजित करता आ रहा है। पहले ये कार्यक्रम प्रशासन पंडाल में बड़े मंच पर होता था लेकिन अब इसे विगत दो सालों से गौशाला गोधाम आश्रम के प्रांगण में आयोजित किया जा रहा है क्योंकि प्रशासन पंडाल में अब जगह नहीं दी जाती है।
संगम नगरी से निकल गांवों तक पहुंचा सृजन
‘सिरजन’ के कार्यशाला में हर साल सैंकडों बच्चे दूर दराज़ के गांव से आते हैं और शामिल होते हैं। इस साल 25 जनवरी की पूरी रात और 26 जनवरी की सुबह बारिश होती रही बावजूद इसके बच्चों के उत्साह में न कोई कमी आई न कार्यक्रम रुका। 26 जनवरी को कार्यक्रम स्थल पर ध्वजारोहण किया गया। इत्तेफ़ाक से सिरजन की साथी सरिता जी का जन्मदिन भी था जिसे बच्चों ने यादगार बना दिया।
इस साल मछलीशहर, सेवइत, संजयनगर, हनुमानगंज, करेलबाग़, आदि दूरदराज के गांवों से बच्चे सिरजन में शामिल होने आये। सिरजन की साथी प्रभा ने बताया कि मछलीशहर से जो 15 बच्चे उनके संग सिरजन में शामिल होने आये थे उनमें कई दलित थे। ये या तो सरकारी स्कूल में पढ़ते हैं या बिना आधारभूत ढांचे वाले प्राइवेट स्कूल में। जाहिर है शहर के प्राइवेट स्कूलों में बच्चों पर अटेंडेंस का कितना प्रेशर होता है, और उनमें इतना लचीलापन भी नहीं होता कि वो अपने बच्चों को किसी कार्यशाला में जाने के लिये चार दिन की छुट्टी बर्दाश्त कर सकें, ख़ैर।
बच्चों ने अपना परिवेश अपना यथार्थ मंचित किया
महज दो दिन की कार्यशाला में भास्कर, संदीप, हर्ष व निखिल के मार्गदर्शन में बच्चों ने जो सीखा उसे उन्होंने नाटक की शक्ल में पेश कर दिया। बच्चों ने कुल 6 नाटकों का मंचन किया। तअज्जुब की बात यह कि ये नाटक बच्चों ने खुद से तैयार किया था। कार्यशाला के दौरान बच्चों को अपने ग्रुप में कहानी किस्सा सुनाने का टास्क दिया गया था। फिर हर ग्रुप के सभी बच्चों ने मिलकर अपने ग्रुप की उन कहानियों में से एक कहानी का चुनाव किया नाटक की शक्ल में मंचन के लिए। बच्चों ने ही कहानी को नाटक की शक्ल में ढाला और इसके स्क्रिप्ट व डॉयलॉग भी लिखे।
बच्चों ने जो नाटक पेश किया वो सब उन्होंने अपने जीवन के भोगे हुये यथार्थ व समाजिक परिवेश से चुनकर रचा। अपने अब तक के देखे भोगे अपने उसी यथार्थ, संघर्ष व पीड़ा को बच्चों ने शब्दों और अभिनय में ढालकर मंच पर पेश किया।
सबसे पहला नाटक जो पेश किया गया उसमें बच्चों ने काम के लैंगिक बँटवारे पर करारा चोट किया। नाटक में बच्चों ने दिखाया कि एक पिता को अपनी बेटी की पढ़ाई से केवल इसलिये दिक़्क़त है क्योंकि वह अपने क्लास के लडकों के साथ स्कूल के बाहर स्पॉट की जाती है। पिता लड़की की पढ़ाई छुड़ाने के लिये आर्थिक सहायता बंद कर देता है और लड़की अपनी पढ़ाई ज़ारी रखने के लिये बाल काटने का काम सीखती है और जेंट्स हेयर सैलून में काम शुरु कर देती है। चंद ही दिनों में उसके काम को इतनी शोहरत मिलती है कि वो लड़की के घर तक पहुंच जाती है। पिता उलाहना देता है तुमने समाज में मेरी नाक कटवा दिया लड़की होकर पुरुषों के बाल काटती है, दाढ़ी बनाती है और लड़की द्वारा संविधान और सामाजिक बराबरी की दुहाई के साथ ही नाटक खत्म हो जाता है।
दूसरा नाटक सफाईकर्मियों की समस्या पर था। नाटक में दिखाया गया कि कैसे सफाईकर्मी दिन रात मेहनत करके पूरे शहर को साफ करते हैं जबकि उच्च जाति ठेकेदार और सेक्रेटरी न सिर्फ़ सफाईकर्मियों के मेहनत और हक़ का पैसा खाते रहते हैं और उनका वेतन रोककर उत्पीड़न करते हैं। फिर सफाईकर्मी एकजुट होकर आंदोलन का रास्ता चुनते हैं और अपना अधिकार हासिल करते हैं। दस बच्चों के पिता टंटू नाटक का लाइमलाइट होते हैं, उनके संवाद बोलते ही बच्चे तालियों और सीटियों से उनका रुतबा सुपरस्टार वाला बना देते हैं।
‘ लाचार बस्ती ‘ नामक नाटक में बच्चों ने रेलवे की ज़मीन पर अवैध क़ब्ज़े, ज़मीन के असमान वितरण, पुलिस भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया। बच्चों ने शिक्षित आबादी में बेरोज़गारी के मुद्दे को एक नाटक के जरिये उठाया। बच्चों ने अपने अभिनय के जरिये दिखाया कि कैसे काम की कमी के चलते श्रम का शोषण किया जाता है और महज़ पांच सात हज़ार रुपयों में महीने भर काम करवाया जाता है। ‘ असमानता ‘ नाटक के ज़रिये बच्चों ने दिखाया कि धर्म-कर्म के नाम पर भंडारा किया जाता है लेकिन भंडारे में कोई भूखा दलित व्यक्ति खाना खाने पहुंच जाता है तो उसे किस तरह अपमानित व तिरस्कृत किया जाता है।
रैप पीढ़ी ने निर्गुण व फगुआ लोकगीतों पर बांधा समां
अमूमन एक बात आज के जेनरेशन के बच्चों के बारे में कही जाती है कि उन्हें संगीत के नाम पर कचड़ा (रैप) पसंद है। हालांकि कहने वाले इस बात को दरकिनार कह देते हैं कि बच्चों को खाने और मनोरंजन में कचड़ा कौन और क्यों दे रहा है। ख़ैर, यह बात फिर कभी। सिरजन में शामिल बच्चों ने जिस भाव भंगिमा से बन्ना बुलाये बन्नी नहीं आये (लोकगीत), चली कुलबोरनी गंगा नहाय, हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या (कबीरवाणी), मन न रँगाये रँगाये जोगी कपड़ा, मन लागो मेरो यार फ़क़ीरी में, हंसा हंसा ये पिंजरा नहीं तेरा, दाग़ कहां से लागल चुनर में, मोको कहां ढूँढे बंदे मैं तो तेरे पास में (निर्गुण), सोलह हजार सखी सखी सोलह हजार बृज में कन्हैया अकेले हैं (फगुआ), एक हाथ में कलम हमारे एक हाथ में हल (जनगीत), जय हिन्द हमारा नारा है (देश गीत) का लुत्फ़ लिया वो अविस्मरणीय है। बच्चों ने जिस लगन से कबीर, निर्गुण, फगुआ और ग़ज़लों को सुना व महसूस किया उससे सिरजन के मंच से गा रहे विवेक और उनके साथियों का दिल जीत लिया। विवेक का संभवतः अपने जीवनकाल में ऐसे श्रोताओं से पहली बार आमना सामना हुआ। उन्होंने मंच से न सिर्फ़ अपने गानों पर हौंसलाअफ़जाई करते बच्चों के वीडियो बनाये बल्कि मंच से ये पेशकश भी किया कि वे सिरजन के बच्चों को सप्ताह में एक बार गीत संगीत की शिक्षा देना चाहेंगे ताकि बच्चे सिरजन के अगले आयोजन में गीत संगीत भी प्रस्तुत कर सकें।
इससे पहले कवि अंशु मालवीय ने इलाहाबाद के मशहूर कवि दिवंगत कैलाश गौतम की प्रसिद्ध कविता ‘अमौसा का मेला’ का भावपूर्ण पाठ किया जिसे सिरजन के नन्हे श्रोताओं ने डूबकर सुना।
बच्चों में नज़रिया विकसित हुआ है
उत्पला शुक्ला कहती हैं कि ‘सिरजन’ से बच्चों में अपने समय, यथार्थ, परिवेश समाज, घटना, राजनीति व संस्कृति आदि को देखने’ समझने और जानने का नज़रिया विकसित हुआ है।
कवि, एक्टिविस्ट अंशु मालवीय कहते हैं कि यह कार्यक्रम जाति, लैंगिक और अमीर-गरीब समानता और प्यार , मोहब्बत और आपसी दोस्ती का माहौल बनाने समर्पित है। पर्चों और बुकलेट के माध्यम से ये संदेश देना चाहते हैं कि यहां हमारी भी आवाज़ है। ये आवाज़ है दोस्ती और भाईचारे की। ये आवाज़ है बराबरी की, ये आवाज़ है आज़ादी की। चाहे आवाज़ जितनी भी कमज़ोर हो, चाहे हम कितने भी कम लोग हों लेकिन हम हैं, ये बस बताना चाहते हैं कि हम भी इसी दुनिया में हैं। जहां इतनी सारी नफ़रत और हिंसा की बातें हो रही हैं वहां हम लोग प्यार, सम्मान और भाईचारे, बहनापे की बात कर रहे हैं।
सिरजन के इस तीन दिवसीय कार्यक्रम को सफल बनाने में मुहिम, पहल, इंस्टीट्यूट फॉर सोशल डेमोक्रेसी, जागृत समाज, सम्भव, राजीव गांधी फाउंडेशन, शहरी ग़रीब संघर्ष मोर्चा, घरेलू कामगार महिला संगठन, विज्ञान फाउंडेशन, सफाई कामगार संगठन, व नव किरण फाउंडेशन की भागीदारी रही।
शहीद क्रांतिकारी भगत सिंह पर लाल बहादुर वर्मा, स्वामी विवेकानंद पर दिलीप जायसवाल, संत रैदास पर अंशु मालवीय, डॉ भीम राव आंबेडकर पर विशाल सिंह गौतम की लिखी व संकलित बुकलेट व अहिंसा व धर्म पर महात्मा गांधी का एक पर्चा और ‘सिरजन क्या है’ इस पर एक पर्चा सभी सहभागियों व आगंतुकों में वितरित किया गया। यहां इस रिपोर्ट में “अहिंसा हमें दूसरे धर्मों के लिये बराबरी का भाव सिखाती है” शीर्षक वाले पर्चे में धर्म और अहिंसा के बारे में महात्मा गांधी की बातों का उल्लेख करना वाजिब होगा और धर्म के बाबत गांधी की एक उक्ति का जिक्र करना भी सही होगा। जहां गांधी कहते हैं – “हम जानते हैं कि इन्सान अधूरा है। इसीलिये उसके द्वारा बनाए गये सभी धर्म भी अधूरे हैं और अगर आदमी के माने हुये सभी धर्मों को हम अधूरा मानें तो फिर किसी को ऊंचा या नीचा मानने की बात ही नहीं रहती। सभी धर्म सच्चे हैं लेकिन सभी अपूर्ण हैं।
सिरजन, ज़श्न साझी विरासत का
‘सिरजन क्या है’ शीर्षक पर्चे में सिरजन के उद्देश्य और कार्य को बताया गया है। “सिरजन का मतलब होता है रचना करना। बनाना गढ़ना। जो लोग ईश्वर को मानते हैं वे उसे ‘सिरजनहार’ कहते हैं। यानि बनाने वाला या रचना करने वाला। इन्सान भी अपनी तरह से सिरजन करते हैं और अपनी तरह से सिरजनहार भी हैं। हाँ इन्सान अकेले- अकेले सिरजन नहीं करता। वह अपने जैसे बहुत से लोगों और प्रकृति के साथ मिलकर सिरजन करता है। जैसे कुछ लोग फसल पैदा करते हैं, कुछ लोग औजार बनाते हैं, कुछ लोग खाना बनाते हैं, कुछ इमारतें बनाते हैं , कुछ कपड़े तैयार करते हैं आदि। ये सब करते हुये लोग संगीत बनाते हैं, चित्र बनाते हैं, कविताएं लिखते हैं, नाटक करते हैं, नाचते हैं….. । यह सब काम सिरजन है यानि बनाना और गढ़ना, चाहे फसल पैदा की जाए चाहे गाना गाया जाए। इसी सिरजन से हमारा समाज बनता है, इसी से हमारी संस्कृति बनती है। इसी तरह के सिरजन या रचना करने में एक लय है, ताल है और ताल-मेल है। यही सिरजन का ताल-मेल हमारी साझी विरासत है।
आज हमारे देश और समाज में ऐसी ताक़ते काम कर रही हैं जो सिरजन की लय को खराब कर रही हैं। सिरजन बहुत सारे लोगों के मिलने से होता है, बाँटने से नहीं। लेकिन ये बँटवारे वाली ताक़तें धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, औरत-मर्द के नाम पर, भाषा- बोली के नाम पर, रंग और इलाके के नाम पर लोगों को बाँट रही हैं। जितना हम बँटते जायेंगे सिरजन की लय टूटती जाएगी। जैसे अगर धरती के घूमने की लय टूटती है तो प्रलय होती है, अगर सिरजन की लय टूटी तो सामाजिक प्रलय होगी और हमारा समाज टूट जायेगा। इसलिए कुछ संगठनों और दोस्तों ने मिलकर सोचा कि साथ साथ सिरजें और लोगों को बताएं कि धर्म – जाति-लिंग भाषा-रंग- इलाका सबका भेद- भाव भुलाकर मिलकर गढ़े-बनाएँ, रचना करें, इसलिए हमने सिरजन- ज़श्न साझी विरासत के नाम से एक उत्सव शुरु किया है। माघ मेले से शुरु यह उत्सव धीरे धीरे गाँवों में, बस्तियों में फैल रहा है। यह संदेश देता हुआ – हम तो जब कुछ रचेंगे, तभी बचेंगे।
कार्यक्रम के मंच को संविधान की प्रस्तावना, संविधान के बारे में, स्वतंत्रता आंदोलन में स्त्रियों की भूमिका के बारे , भगत सिंह के विचार, बाबा साहेब के विचारों वाले पोस्टर बैनर आदि से सजाया गया था। जबकि पंडाल के चारों ओर मध्यकालीन जनवादी कवियों के कविता पोस्टर लगे थे। कविता पोस्टर पर जूही शुक्ला व अन्य लोगों द्वारा बनाये गये ख़ूबसूरत पेंटिंग व रेखाचित्र दर्ज़ थे। कार्यक्रम स्थल पर जगह जगह टंगे कविता पोस्टर भी आगंतुकों से संवाद करते दिखे।