Friday, September 22, 2023
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सावरकर, सुभाष चन्द्र बोस और भगत सिंह

        
   

इस महीने सावरकर पर दो पुस्तकें प्रकाशित हुईं। 8 अगस्त को विक्रम सम्पत की 624 पृष्ठों की पुस्तक ‘सावरकर: इकोज फ्रॉम द फॉरगॉटेन पास्ट ;1983-1924द्ध पेंग्विन से और 14 अगस्त को जगरनाट से 360 पृष्ठों की वैभव पुरन्दर की पुस्तक आयी – ‘द ट्रू स्टोरी ऑफ़ द फादर ऑफ़ हिन्दुत्व ’।

सावरकर पर अब देश-विदेश के कई ‘आर्काइव्स’ देखे जा रहे हैं। उन सरकारी रिकार्ड्स और नयी रिपोर्ट को देखा जा रहा है जिन्हें अब तक नहीं देखा गया। मूल और आरम्भिक अभिलेख-सामग्रियां ढ़ूंढ़ी जा रही है। धनन्जय कीर की पुस्तक ‘वीर सावरकर’ आज भी एक प्रामाणिक पुस्तक है जो ‘सावरकर एण्ड हिज टाइम्स’ शीर्षक से पहली बार 1950 में प्रकाशित हुई थी। विक्रम सम्पत ने नेहरू मेमोरियल म्युजियम एण्ड लाइब्रेरी की सीनियर फेलोशिप के तहत विनायक दामोदर सावरकर (28.05.1883-26.02.1966) पर यह कार्य सम्पन्न किया है। पुस्तक का दूसरा खण्ड ;सावरकर (1924-1966) अगले वर्ष प्रकाशित होगा। सम्पत की शिकायत है कि मुख्यधारा के इतिहासकारों ने सावरकर पर ध्यान नहीं दिया है। नेहरू स्मारक की लाइब्रेरी में सावरकर पर 40 हजार निजी पेपर्स है जिनका किसी ने इस्तेमाल नहीं किया है। सावरकर पर क्या कोई भी ऐसा तथ्य छिपा है जिसके आने से सावरकर की छवि बदल जाएगी ?

सावरकर अपनी जिस वैचारिकी को लेकर सुख्यात-कुख्यात है, क्या उस वैचरिकी का सुभाष चंद्र बोस और भगत सिंह की वैचारिकी से कोई मेल है ? अभी तक भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस को उनके साथ रखकर किसी ने विचार करने की कोई जरूरत महसूस ना की थी पर पिछले 20 अगस्त को दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैंपस के कला संकाय में इन तीनों की मूर्तियों को एक साथ स्थापित अभाविप ने किया। अभी तक भगत सिंह की मूर्ति और आवक्ष प्रतिमा के साथ केवल सुखदेव और राजगुरु की मूर्तियां लगाई जाती रही है क्योंकि तीनों क्रांतिकारी साथी 23 मार्च 1931 को ही शहीद हुए थे।

दिल्ली विश्वविद्यालय देश का प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय है और वहां के छात्र इतिहास से खिलवाड़ नहीं कर सकते। विश्वविद्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों में बुद्धि, विवेक, वैज्ञानिक चेतना और दृष्टि, तथ्य साक्ष्य, अनुसंधान ज्ञान का महत्व होता है जिसे नष्ट करने वाली किसी भी कोशिश की भर्त्सना की जानी चाहिए। सावरकर की मूर्ति को भगत सिंह की मूर्ति के साथ जोड़ना स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास को मनमाने ढंग से विकृत करना है। ये मूर्तियां विश्वविद्यालय प्रशासन की अनुमति के बिना लगाई गई थीं।

सावरकर को लेकर देश के लोग दो वर्गों में विभाजित हैं। एक वर्ग के लिए, हिंदुत्ववादियों, संघ और उसके सभी संगठनों, इकाइयों के लिए नायक या हीरो हैं और दूसरे वर्ग के लिए खलनायक यानी विलेन। राहुल गांधी ने सावरकर का मजाक उड़ाया तो उनके पुत्र ने उन पर मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया। विक्रम संपत उन 69 लोगों में थे, जिन्होंने प्रधानमंत्री को 49 हस्तियों द्वारा लिखे गए पत्र के जवाब में पत्र लिखा था। सावरकर के संबंध में तथ्यात्मक ढंग से विचार किया जाना चाहिए। राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन में एक खास समय तक निश्चित रूप से उनका महत्व है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

उनके राजनीतिक जीवन के तीन चरण हैं। पहला चरण 1910-11 तक का है, जब तक उन्होंने आजीवन कैद की सजा नहीं दी गई थी। इस पहले चरण में उनमें क्रांतिकारी राष्ट्रवाद और हिंदू राष्ट्रवाद के बीच एक संतुलन था। उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक हिंदू राष्ट्रवादी प्रमुख हो रहे थे। आजमगढ़ में हुए हिंदू मुस्लिम दंगे के बाद 10 वर्ष की अवस्था में सावरकर ने अपने कई साथियों के साथ गांव की मस्जिद की ओर मार्च किया था और पत्थर फेंके थे। 1902 में जब वे पुणे के फर्ग्युसन कॉलेज में दाखिल हुए उनकी क्रांतिकारी सक्रियता जारी रही थी। अपने जातीय विचारों के कारण वे कॉलेज से निष्कासित होने वाले पहले भारतीय थे। तिलक ने इसका विरोध किया था। उनसे प्रभावित हुए थे। उन्होंने श्यामजी कृष्ण वर्मा (4.10.1857- 31.3.1930) को जिन्होंने लंदन में ‘इंडिया हाउस’ की स्थापना की थी, सावरकर को संस्तुति किया। इंग्लैंड में कानून की शिक्षा के लिए शिवाजी के नाम पर उन्होंने एक छात्रवृत्ति दी थी।

सावरकर भारत से इंग्लैंड के लिए 9 जून 1906 को रवाना हुए। उस समय तक लंदन में हिंदू राष्ट्रवाद के विचार की नींव नहीं पड़ी थी। भारत को सशस्त्र विद्रोह के द्वारा मुक्त कराने के लिए सावरकर ने वहां क्रांतिकारियों का एक ग्रुप ज्वाइन किया और लंदन में ‘अभिनव भारत सोसायटी’ की स्थापना की। भीकाजी कामा (24.09.18 61-13.08.1936 ) द्वारा गठित ‘फ्री इंडिया सोसायटी’ की रविवारीय बैठक में शामिल होते रहे। लंदन में उन्होंने ‘हिंदू उत्सव’ आरंभ किया। वहां उनकी क्रांतिकारी गतिविधियां चरम पर थी। वे मराठी पत्रों के लिए ‘न्यूज लेटर’ लिखने लगे। कई लीफलेट प्रकाशित किए। मदन लाल धींगरा (18.09.1883-17.08.1909) उनसे प्रभावित थे जिन्हें 17 अगस्त 1909 को फांसी दी गई।

सावरकर ने 10 मई 1960 को इंडिया हाउस लंदन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयंती मनाई। पुणे में उन्होंने 1905 में बंगाल विभाजन के बाद विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी। सावरकर ने ही 1857 के विद्रोह को प्रथम राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन कहा। 1908 में उनकी पुस्तक ‘इंडियन वार आॅफ इंडिपेंडेंस: 1857’ तैयार हुई जिसके प्रकाशन में काफी अड़चनें आयी। लंदन, जर्मनी, फ्रांस गई। कहीं से भी इसका प्रकाशन संभव नहीं हुआ। गुप्त रूप से यह इंग्लैंड से प्रकाशित हुई और इसकी प्रतियां फ्रांस गई। पुस्तक के लेखक का नाम ना होकर एक भारतीय राष्ट्रवादी था। 1946 तक पुस्तक भारत में प्रतिबंधित थी। आडवाणी ने अपने छात्र जीवन में सिंध में इसकी एक प्रति रुपये 28 में प्राप्त की थी। अंग्रेजों ने सावरकर पर ‘लुकआउट’ नोटिस जारी किया। वे पेरिस गए और लन्दन वापस आने पर मार्च 1910 में गिरफ्तार किए गए।

सावरकर के राजनीतिक जीवन का दूसरा चरण 1911 से आरंभ होता है जब वह अंडमान के सेल्यूलर जेल में थे। यह दूसरा चरण 1911 से 1937 तक माना जाता है। इन 26 वर्षों में से 10 वर्ष तक वे अंडमान में थे। ब्रिटिश हुकूमत से उनके चार माफनामों (1911, 1913, 1917 और 1920) का जिक्र किया जाता है। आर सी मजूमदार की ‘पीनल संटेलमेण्ट इन द अण्डमान’ ;प्रकाशन विभाग, 1975 के प्रकाशन के पहले तक यह माफीनामा सुलभ नहीं था। 1911 में सावरकर को अण्डमान की कुख्यात जेल में डाला गया था और 50 वर्ष का सजा सुनायी गयी थी।

भगत सिंह ने ब्रिटिश सरकार से कहा था कि उन्हें राजनीतिक बन्दी घोषित किया जाय और उन्हें फांसी न देकर गोलियों से भून दिया जाय। सावरकर ने छोड़ने की अपील की। उनकी अर्जी को ‘एक रणनीतिक कदम’ भी कहा गया है। यह भी कहा गया है कि 1913 में जेल के डाक्टर ने ब्रिटिश सरकार को अपनी रिपोर्ट में सावरकर के खराब स्वास्थ्य के बारे में लिखा था। उस समय तक सावरकर हीरो थे। 1913 के माफनामें को, जिसमें सावरकर ने यह यकीन दिलाया था कि ‘मैं संविधानवादी विकास का सबसे कट्टर समर्थक रहूंगा और अंग्रेज सरकार के प्रति वफादार रहूंगा और अब भारत और मानवता की भलाई चाहनेवाला कोई भी व्यक्ति अंधा होकर उन कांटों भरी राहों पर नहीं चलेगा जैसा कि 1906-07 की नाउम्मीदी और उत्तेजना से भरे वातावरण ने हमं शन्ति और तरक्की के रास्ते से भटका दिया था…..और  जो ताकतवर है, वही दयालु हो सकता है और एक होनहार पुत्र सरकार के दरवाजे के अलावा और कहां लौट सकता है। आशा है हुजूर मेरी याचनाओं पर दयालुता से विचार करेंगे।’

1913 के इस माफीनामें को कइयों ने सुलहनामा के रूप् में भी देखा है और अपने समर्थन में गवर्नर के प्रतिनिधि रेजिनाल्ड क्रेेडोक की गोपनीय टिप्पणी का हवाला दिया है जिसमें यह लिखा गया है कि यह व्यक्ति ‘हृदय परिवर्तन’ का ढ़ोंग कर रहा है।

सावरकर में आरंभ से ही हिंदूवादी रुझान थी जो बाद में उनकी पुस्तक ‘हिंदुत्व! हू इज हिंदू’ में विस्फोटक रूप से मौजूद है। भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस के विचार सावरकर के विचार से कहीं मेल नहीं खाते। स्त्री के संबंध में क्या सावरकर और नेता जी के विचार समान हैं ? राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन के सभी सेनानियों और नेताओं को एक साथ खड़ा करना अनुचित है। सावरकर का इतिहास में स्थान गांधी, तिलक, नेहरू, सुभाष, अंबेडकर आदि से एकदम अलग है। जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने हेडगेवार को एक संगठन की स्थापना के लिए प्रेरित किया जो हिंदू समाज का हो – शक्तिवान और स्तंभ सहित।

‘इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस: अट्ठारह सौ सत्तावन’ के सावधानीपूर्वक अध्येता पिंसिंसे के हवाले से निलंजन मुखोपाध्याय, नरेंद्र मोदी के जीवनी लेखक, ने अपनी नई पुस्तक ‘द आर एस एस: आईकंस ऑफ द इंडियन राइट’, 2019 में उद्धृत किया है कि सावरकर ने हिंदू और मराठों पर विशेष फोकस किया था और भारत राष्ट्र के एक संयुक्त और समग्र अतीत वर्तमान और भविष्य पर ध्यान नहीं दिया है (पृष्ठ 63-64)। दूसरे चरण में सावरकर ‘हिंदुत्व’ के प्रस्तावक उद्घोषक के रूप में आते हैं। उनकी रिहाई की कोशिश गांधी ने भी की थी। 1920 में ‘यंग इंडिया’ में गांधी ने सावरकर और उनके छोटे भाई की कैद का विरोध किया था। उनकी रिहाई जमुनादास मेहता के कारण संभव हुई थी जो तिलक के समर्थक थे और मुंबई की अंतरिम सरकार के सदस्य थे। रिहाई के लिए उन्होंने ‘सावरकर रिलीज कमेटी’ का गठन किया था और एक पैम्पफलेट जारी किया था – ‘व्हाई सावरकर शुड बी रिलीज्ड’।

कांग्रेस ने भी अपने अधिवेशन में उनकी रिहाई का प्रस्ताव रखा था। बाद में सावरकर ने गांधी के अहिंसा सिद्धांत को व्यर्थ का हथियार कहा। अपनी 1925 की पुस्तक ‘हिंदू पद – पादशाही’ की भूमिका में मालिक और दास के बीच की सम्मानजनक एकता को नकारा। सेलुलर जेल के बाद 1921 से वे यरवदा जेल में 2 वर्ष 8 महीने तक रहे। जनवरी 1924 में वे रिहा हुए और रत्न गिरी जेल में रत्न गिरी जिले में उन्हें अपने परिवार के साथ रहने की अनुमति दी गई। ‘हिंदुत्व: हु इज हिंदू’ का प्रकाशन एक मराठा छद्म नाम से हुआ क्योंकि कैदियों द्वारा किसी पुस्तक के प्रकाशन की अनुमति नहीं थी। अपनी इस पुस्तक में उन्होंने हिंदू की भी अनेक परिभाषाएं दी। 1937 तक वे भारतीय दक्षिणपंथ और हिंदू राष्ट्रवादी राजनीति के ‘आइकन’ बन चुके थे।

‘हिंदुत्व ! हु इज हिंदू’ हिंदू राष्ट्रवादियों का घोषणा पत्र है। अपने राजनीतिक जीवन के दूसरे चरण में वे हिंदुत्व के प्रवर्तक और विस्तारक हुए। अब यह माना जा रहा है कि चंद्रनाथ बसु (31.08.1844-20.06.1910)  ‘हिंदुत्व’ पद के जनक हैं। अगर यह सिद्ध भी हो तो उसमें प्राणवायु भरने और रक्त संचार करने वाले सावरकर ही हैं।

सावरकर के राजनीतिक जीवन के तीसरे चरण का आरंभ 1937 से होता है। उन पर लगे सभी प्रतिबंध 10 मई 1937 को समाप्त किए गए। 1937 में वे हिंदू महासभा के अध्यक्ष बने और 1942 तक इस पद पर रहे। 1937 से 1942 तक उन्होंने छह अध्यक्षीय भाषण दिए हैं। वे ‘हिंदू राष्ट्र दर्शन’ पुस्तक में है। इस पुस्तक को उन्होंने विचार और विचारधारा का भंडार कहा है। इसमें उनके हिंदू राष्ट्र और स्वराज संबंधी विचार हैं। स्वराज की उनकी परिभाषा भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस की परिभाषा से अलग है। उनके लिए स्वतंत्रता का अर्थ हिंदुओं की स्वतंत्रता है। हिंदुओं के हाथों में राजनीतिक और क्षेत्रीय-राज क्षेत्रीय नियंत्रण होना चाहिए। सावरकर ने ‘लिंगुआ फ्रांका’ के रूप में संस्कृतनिष्ठ हिंदी की संस्तुति की है। ‘हिंदुस्तानी’ को भाषाई संकीर्णता कहां है।

याद रहे, गांधी ‘हिंदुस्तानी’ के समर्थक थे। नाथूराम गोडसे ने जुलाई 1938 के अपने एक पत्र में उनसे आरएसएस को समर्थन देने और इसमें शामिल होने की बात लिखी थी। लिखा था कि आरएसएस. पूरे हिंदुस्तान में हिंदुओं को एकजुट रखने वाला अकेला संगठन है। सावरकर ने गांधी की अहिंसा को खारिज किया। उन्होंने श्यामा प्रसाद मुखर्जी को हिंदू महासभा में शामिल होने को प्रेरित किया। सावरकर ने हिंदू महासभा के 19 वें अधिवेशन में अहमदाबाद में अपने अध्यक्षीय भाषण में (1937) हिंदू और मुसलमान के दो पृथक राष्ट्र की घोषणा की। सांप्रदायिक प्रश्न को सावरकर ने ‘सैकड़ों सालों से हिंदू और मुसलमान के बीच सांस्कृतिक धार्मिक और राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्विता का परिणाम कहां है।’

भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस को उनके साथ रखना गुनाह है। सावरकर को हेडगेवार और गोलवलकर के साथ ही रखना चाहिए। यह त्रयी ठीक है। नीलांजन मुखोपाध्याय ने अपनी पुस्तक ‘द आर एस एस आइकन ऑफ द इंडियन राइट’ 2019 के आवरण पृष्ठ पर यही तीन चित्र एक साथ दिये हैं।

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