कपिल शर्मा
रामनगर (उत्तराखंड). संस्कृति का सबसे ज़रूरी आयाम होता है, संस्कृति कर्म को विविध विधाओं के ज़रिए हाशिए पर के समाज तक पहुंचाना। रचनात्मक शिक्षक मंडल, रामनगर, उत्तराखंड और जन संस्कृति मंच, दिल्ली की नाट्य इकाई संगवारी, पिछले कुछ सालों से रामनगर के ढेला गांव में सरकारी स्कूल के बच्चों के साथ थिएटर का एक अनूठा प्रयोग कर रही है। संगवारी के साथ मिलकर सरकारी स्कूल के बच्चों को थिएटर का प्रशिक्षण दिया जाता है, संगवारी के प्रशिक्षण के ज़रिए ही इन बच्चों की एक नाट्य टीम ‘ उज्यावक दगड़ी ’ बनाई गई है, और ये टीम पूरे उत्तराखंड में, दिल्ली में व अन्य शहरों में अपने नाटकों का सफल प्रदर्शन कर चुकी है।
बच्चों की इस नाटक टीम ‘ उज्यावक दगड़ी ’में राजकीय इंटर कालेज, ढेला के बच्चे हैं, जिन्हे संगवारी द्वारा लगातार थिएटर प्रशिक्षण दिया जाता है। इस बार ये थिएटर वर्कशॉप “ जश्न – ए – बचपन ” के तहत आयोजित की गई। चार दिनों की इस वर्कशॉप में हर कक्षा, हर उम्र के बच्चे मौजूद थे, टीम में नए बच्चों भी थे और पुरानी टीम भी तैयार थी। इसी टीम में कई बच्चे ऐसे भी थे जो टीम के सदस्य तो नहीं थे, लेकिन थिएटर सीखने के लिए वर्कशॉप में आए थे।
बच्चों के साथ काम करने के लिए संगवारी सबसे पहले ऐसे खेल और एक्सरसाइज़ कराता है जिससे बच्चे सहज हो जाएं और आगे आने वाली गतिविधियों के लिए तैयार हो जाएं। पहले दिन के तीन-चार घंटों में ही ये बच्चे ऐसे घुल-मिल गए कि ये पहचानना मुश्किल था कि कौन बच्चा नया है और कौन पुराना. इस तहर झिझक तोड़ने के साथ-साथ बच्चों में आत्मविश्वास बढ़ाने की भी ज़रूरत थी, और ये काम किया गया लंच के बाद की गई थिएटर की नई एक्सरसाइज़ के साथ, ये एक्सरसाइज़ संगवारी की अपने तौर पर, अपने अनुभवों से बनाए गए खेलों के साथ करवाई जाती हैं.
शाम को बच्चों को संगीत का प्रशिक्षण दिया गया जिसमें लय, ताल, कोसर के साथ गाने और टीम वर्क की ज़रूरत और आवश्यकता को समझाने के लिए ‘ मानव मशीन ’ नाम की एक्सरसाइज़ करवाई गए। और जैसा कि अमूमन होता है, दिन का अंत बहुत सारे मजे़दार गीतों के साथ हुआ।
थिएटर वर्कशॉप के दूसरे दिन संगवारी के देवव्रत के नेतृत्व में काम करने वाली, दीप्ती, प्रेम और दीपक की टीम ने बच्चों को तीन टीमों में बांट दिया और अपने पहले दिन के अनुभव के साथ काम शुरु किया गया। बच्चों को ‘ टच सेंसेटिव केव’, ‘ गठरी चोर’ , ‘ रस्साकशी ’ और ‘ स्लो रेस ’ जैसी एक्सरसाइज़ के ज़रिए मजे़ के साथ-साथ थिएटर की बारीकियां अंर्तनिहित की गईं। थिएटर के इन खेलों की विशेषता ये है कि बच्चे इन्हे खेलभावना के साथ करते हैं, और अंततः थिएटर के गुणों को सीखते जाते हैं, जैसे केव सेंसेटिव ’ से टीम और स्पेस सीखा जाता है, वहीं ‘ स्लो रेस ’ से सामान्य काम के दौरान शरीर की हर छोटी-बड़ी गतिविधि के बारे में जाना जाता है।
‘ रस्साकशी ’ सामान्य खेल नहीं है, क्योंकि इसमें बच्चों के पास खींचतान के लिए कोई रस्सी नहीं होती, बल्कि उन्हे इमेजिन करना होता है कि उनके पास रस्सी है, यहां एक तो उनकी काल्पनिकता को बल मिलता है. साथ ही कल्पना के आधार पर शरीर, और मन के प्रदर्शन का बेहतर तरीका समझ में आता है. एक्सरसाइज़ के बाद कुछ थिएटर के सीन करवाए गए, जिनमें दिन-भर में की गई एक्सरसाइज़ के इस्तेमाल के द्वारा ये समझाया गया कि किस तरह वे मजे-मजे में थिएटर करना सीख रहे हैं. बच्चे जो दिन-भर कड़ी मेहनत करने के बावजूद शाम को और मेहनत करने को तैयार थे, उन्हे पहले दिन के लय-ताल-सुर को याद कराया गया और फिर कई नए और मजे़दार गीतों के साथ दूसरे दिन का समापन किया गया.
तीसरे दिन बच्चे थिएटर की बारीकियों को सीखने के लिए तैयार जोश के साथ आए थे, सामान्य शारीरिक क्रियाओं की एक्सरसाइज़ के बाद, बच्चों को ‘ पोस्टर ‘ नाम की एक्सरसाइज़ करवाई गई, बच्चों को थियेटर का नया पाठ सिखाने के लिये पोस्टर के ज़रिए अभिनय में पूरे शरीर का इस्तेमाल करना सिखाया गया। जिसके बाद बच्चों को ही इन पोस्टर्स के इस्तेमाल से छोटे-छोटे नाटक बनाने को कहा गया। जहां बच्चों ने अपनी मर्ज़ी से अपनी कहानी पर 3 नाटक बनाये। कल के दिन जो टीमें बनाई गईं थीं, उन्हे तोड़ कर नई टीमें बनाई गईं, जो बच्चे कल तक अपनी पुरानी टीम को जिताने के लिए पूरे जोश-खरोश से काम कर रहे थे, उन्हे पुरानी टीम छोड़ने में कुछ भावनात्मक दिक्कतें आईं, लेकिन दिन के अंत तक उनकी नई टीम उनका परिवार बन चुकी थी।
हर रोज़ बच्चों की टीम बनाना और दूसरे दिन नई टीम का गठन थिएटर में इस्तेमाल होने वाली सबसे जरूरी चीज़ सिखाता है, और वो है, हर तरह की टीम में, हर तरह के समूह में मिल कर काम करने की कला। बच्चों ने अपनी नई टीमों के साथ और अपने नये ज्ञान यानी पोस्टर के साथ जो नाटक बनाए वो वाकई कमाल के थे। फिर बच्चों की टीम से ही कहा गया कि अपनी साथी टीमों के नाटक की बारीकी से समालोचना करें। इस तरह वो ये तो सीखे ही कि नाटक में क्या होना चाहिए, ये भी सीखे कि अपने नाटक में उन्हे कौन सी ग़लतियां नहीं करनी चाहिए। अंत में ‘ नानी की नाव चली ’ गाने पर अभिनय सिखाया गया और दिन का अंत हुआ।
चौथा दिन बच्चों को संवाद अदायगी सिखाने की एक्सरसाइज़ के साथ शुरु हुआ। एक ही संवाद को भिन्न भावों के साथ बोलने से वे अभियन के इस पक्ष से परिचित तो हुए ही साथ ही उन्होने ये भी सीखा कि भावाभिव्यक्ति में संवादों को सही तरीके से पेश करने का क्या महत्व है। इसमें बच्चों को एक कविता या एक गद्य एक विशेष में बोलने को कहा गया। निरन्तर अभ्यास के बाद बच्चों ने इस में भी अपना हुनर दिखाया। अब बाकी था थियेटर का सबसे ज़रूरी पहलू जनता के हिसाब से अपने नाटक, अपने शरीर, अपने भाव और अपनी आवाज़ का इस्तेमाल करना, नाटक में इन सभी पक्षों का समायोजन बहुत महत्वपूर्ण होता है।
इस समायोजन की बेहतर समझ के लिए बच्चों को संगवारी के अपने नाटक “ महाभारत का एक्सटेंशन ” के कुछ हिस्सों को तैयार कराया गया। देर शाम तक बच्चों ने इस नाटक का अभ्यास किया और फिर उसकी प्रस्तुति दी। चौथे दिन तक बच्चे एक हुनरमंद थिएटरिस्ट की तरह अपने शरीर, भाव और अंदाजे़-बयां को इस्तेमाल करने की कला सीख चुके थे। जाहिर है प्रस्तुति बहुत ही प्रभावशाली रही। बच्चों ने पिछले तीन दिनों में सीखे गए गीत गाकर दिन की समाप्ति की।
पांचवें और आखिरी दिन बच्चों के साथ सामान्य शारीरिक व्यायाम के बाद, उन्हे कुछ थीम्स दी गई और उन पर बहुत छोटे-छोटे नाटक तैयारक करने को कहा गया। बहुत ही थोड़े समय में बच्चों ने जो कुछ अपनी वर्कशॉप में सीखा उसे इस्तेमाल करते हुए प्रभावपूर्ण प्रस्तुतियां दीं। अब ये बच्चे जनता के बीच जाने के लिए पूरी तरह तैयार थे।
रचनात्मक शिक्षक मंडल के नवेन्दु मठपाल जी, इस इस कार्यशाला के आयोजक और संचालक भी हैं, और बच्चों के शिक्षक भी हैं, ने बच्चों के अभिभावकों के साथ ही रामनगर शहर से अपने दोस्तों को भी ढेला में बुला लिया था। दर्शकों की अच्छी-खासी भीड़ के सामने बच्चों ने अपने नाटकों की शानदार प्रस्तुतियां दी, और हर नाटक पर, हर डायलॉग पर दर्शकों की तालियां बच्चों का उत्साहवर्धन कर रही थीं। बच्चों की ये प्रस्तुतियां वाकई कमाल की थीं। नाटकों के बाद बच्चों ने वे गीत भी गाए जिन्हे उन्होने पिछले चार दिनों में संगवारी की टीम से सीखा था।
बच्चों की इस टीम ‘ उज्यावक दगड़ी ’ ने इस नाटक टीम के साथ एक तरफ सार्थक थिएटर की शुरुआत की है, वहीं नाटक के ज़रिए अपनी बात कहने का एक नया ज़रिया भी खोजा है। रचनात्मक शिक्षक मंडल जैसे प्रयत्नशील संगठन के ज़रिए संगवारी को ये मौका मिलता है कि वो थिएटर की बारीकियों को, आवश्यक सामाजिक संदेश के साथ बच्चों को सिखा सके। शायद यही थिएटर का सबसे सार्थक रूप है।
( युवा संस्कृतिकर्मी कपिल शर्मा ‘ संगवारी ’ का संयोजक हैं )