समकालीन जनमत
कविता

अरुण शीतांश की कविताएँ: विषयों के अनंत में अपने कवि की खोज

भरत प्रसाद


यदि दृष्टि की दिशाएं बहुदिशात्मक हों, यदि भावनाओं की गति अनेक आयामी हो, यदि हम व्यक्तित्वांतरण कर पाने के साहस से परिपूर्ण हों, तो दो हर वस्तु, हर पदार्थ, प्रत्येक चेहरा,एक-एक चरित्र, घटनाएं सबके सब अप्रतिम सृजन के दायरे में समा सकते हैं। कवि कविताई के लिए विषयों को चुनता है, जबकि कवि को यह अंतर्ज्ञान होना चाहिए, कि वह खुद को इतना तरल,नैसर्गिक और जमीनी बना ले, कि विषय आ-आकर कवि का चुनाव करें। जिसे हम चलताऊ अंदाज़ में वस्तु, पदार्थ, घटना या विषय कह देते हैं, वह अपनी संरचना, निर्मिति और तानेबाने में मर्म की अनेक परतें छिपाए हुए है। वे परतें सदियों, सहस्राब्दियों ,बल्कि अरबों वर्ष पुरानी हैं। हमारे कवियों की सीमा यह कि वे केवल आजजीवी हैं , वर्तमानवादी हैं, निकट दृष्टा मात्र हैं। समय के पार जाकर वस्तुओं, घटनाओं, विषयों के बहुपरतीय यथार्थ को देखने, जान लेने, सशक्त एहसास पा लेने की क्षमता बहुत बहुत कम सर्जंकों म़े विकसित हो पाती है, जिसमें हो जाती है, वह अपने युग का कबीर,रवींद्र या मुक्तिबोध बनता है। विचारधारा बहुत कीमती है, परन्तु उससे बंधे रहना सृजन के पथ की अदृश्य किन्तु कठिन बाधा है। विषय या वस्तुओं का निर्माण हमारी दृष्टि से नहीं हुआ,जब हमारा नामोनिशान धरती पर न था, तभी से विषयों की महत्ता ईश्वर से बढ़कर स्थापित रही और आज भी है। एक पत्थर, जिसके वजूद को हमने ईश्वर में समेट दिया, उसकी उम्र ईश्वर या किसी भी देवता से कई गुना ज्यादा है। तात्पर्य यह कि विषयों की बेमिसाल महत्ता के साथ न्याय करने की सामयिक शर्त है-हृदय और अंतर्दृष्टि को यथाशक्ति असीम कर लेना, खुला छोड़ देना उन्हें कास्मिक अनुभूतियों के लहराते समुद्र में।

समकालीन कवि अरुण शीतांश उस दौर के शब्द सर्जक हैं, जब व्यक्ति नियंता बन चुका है, जब मनुष्य स्वयं को सर्वशक्तिमान मान बैठा है, जब वस्तुएं, घटनाएं और जीव-जन्तु मामूली से भी गयी-बीती दुर्दशा में पहुंचा दिए गये हैं। आज कितने कवियों को यह अंतर्ज्ञान विचलित कर देता है, कि मछली उसकी सबसे पहली पूर्वज है। हां! कबीर में कभी इसका दर्द ऋण बनकर उठा था। अरुण शीतांश की कविताएँ छोटी-छोटी चिंताओं, सवालों, बेचैनियों का आयोजन है। जिसमें बहुत दूर की,ऊंची और चमत्कारिक ध्वनि आपको नहीं सुनायी देगी। संवाद की शैली में कविता लिखते-लिखते अचानक बीच में ही वे मर्म को कुरेदने वाली नाजुक, महीन दृष्टि धर देते हैं। एक कविता में कई विचारों की आवाजाही जीवित दिखाई देती है, जैसे वे लगातार खोज रहे हों, खास अर्थ। जैसे वे जो उद्घोष करना चाह रहे हैं, उसके लिए सटीक, योग्य, सशक्त शब्द नहीं मिल रहे हैं, जैसे उनका खोजी कवि एक साथ कई अर्थ प्रकट करने की बेचैनी में गहनत: केन्द्रित नहीं हो पा रहा है।

अरुण शीतांश लगभग नहीं, बल्कि पूरे दो दशकों से कविता की कर्मभूमि में सक्रिय हैं, और लगातार अपनी उपस्थिति बनाए हुए हैं। आरंभिक दौर की कविताएं नैसर्गिक तरलता से समृद्ध हैं, तो उत्तरकालीन कविताओं में वैचारिकी के निर्माण का आत्मसंघर्ष हावी है। जीवन से,समाज और ठेठ जमीन से एकाकार है, अरुण शीतांश में यह सबसे मायने की बात है, परन्तु इतना पर्याप्त नहीं। हमें, हमारे समय और हमारे काव्य जगत को चाहिए, पाठकों को सजग और सेन्सिटाइज़ करने वाली नवोन्मेषी कविताई, जिसकी क्षमता हमारी जुबान को मुरीद बना लेने में समर्थ हो। यहां प्रस्तुत 05 कविताएं, जो कि उनकी क्षमता को पहचान देने वाली कही जा सकती हैं, पढ़ने को प्रेरित करती हैं। इन कविताओं की सरलता और संवादधर्मिता पहली उपलब्धि है, किन्तु यह सरलता कई बार सपाटबयानी का पर्याय भी बन जाती है, जिससे कवि को सावधान होना चाहिए। धारणाओं ,मान्यताओं, विश्वास और ढांचे में तोड़फोड़ बहुत जरूरी है। यहाँ तक कि विषयों के प्रति सदियों पुराने दृष्टिकोण में भी। जरूरी नहीं कि हम पदार्थ को केवल वस्तु माने,वह हमारे हृदय की गति का कारण भी बन सकता है, फिर वह निर्जीव कैसे हुआ? अरुण शीतांश के भीतर का आगामी कवि लय को साधेगा, सृजन के अंत:संगीत का संधान करेगा, वह तलाशेगा वह बेलीक अभिव्यक्ति कौशल, जिससे मामूली, गुमनाम और अति सामान्य विषयों के मूल्य का उद्घाटन दमकते हुए सूर्य की तरह हो।

अरुण शीतांश न केवल सृजन के क्षेत्र में निरंतर उपस्थित हैं, बल्कि अपनी पक्षधरता को भी मजबूत किए हुए हैं, जो कि आगे उनकी कविताई में आगे अदृश्य खादपानी की भूमिका निभाएगी। सृजन में संतुलन बड़ा कठिन, किन्तु निर्णायक सफलता है। संतुलन यह कि अतिशय कला कविता के मर्म को मार न डाले, और खांटी सपाटबयानी कविता से कवित्व को ही खत्म न कर दे। इसीलिए कहना जरूरी है, कि अरुण शीतांश को अपनी छाप ली हुई अभिनव कला और मौलिक सहजता दोनों को एक साथ साधना होगा। तब शायद अरुण शीतांश का कवि वह आकर्षक स्थिरता हासिल करेगा, जिसकी हर एक प्रतिबद्ध कवि की दरकार होती है।

 

अरुण शीतांश की कविताएँ

1. धरती का जल सीरिया में है क्या
(पूनम शीतांश के लिए)

जब चिड़िया चलती है
पृथ्वी का जल थिर हो जाता है
जब चिड़िया उड़ती है
हवा की ध्वनि बदल जाती है
बगल की मिट्टी से सोना उग आता है
और मनुष्य की आँखों के कोर भीग जाते हैं

हम उस समय के वासी हैं
जहाँ वृक्ष हैं
पर छाया नहीं
जहाँ फूल हैं
गमक नहीं
भावना है
लोर नहीं

रात है अभी
और बातें हैं शेष

उस दुनिया का क्या होगा
जिसके बच्चे चिड़ियों को खोज़ रहे हैं

धरती का जल
सीरिया में है क्या ?

एक माँ पुकार रही है
हजारों बच्चों को
और उस माँ का प्रेमी
कविता पर चढ़ा रहा है पानी-
माँ और बच्चों के लिए ।

रुके हाथ गले के भात-नाल पर अटक गए हैं
पेड़ों पर फल आ रहें हैं …

 

 

2. कोयल की कम आबादी वाले देश में

हिन्दुस्तानी संगीत और कर्नाटका संगीत के घराने में राग को लेकर अपनी तरह की बहस है
लेकिन यह भी जरूरी बहस है कि
बची है नाखून के नीचे मिट्टी
उस मिट्टी से अजीब सी गंध आ रही है
किसानी गंध
मैल नहीं कहते गृहस्थ

हमरे बाबा से हमरे नाखून नहीं मिल रहे
तो क्या वंशज नहीं हैं
नाखून की मिट्टियां भी उस
गंध या रंग की तरह नहीं है
इसी देश में बाबा भी थे
और हम भी हैं

चिड़ियों का रंग वही है
इनकी आवाज़ भी वही है

हमारी आवाज़ में परिवर्तन हो रहा है
घरों में बच्चों को कम रोने दिया जा रहा है
रोना भी एक सुख है बच्चों!

एक कुत्ता ठीक उसी तरह भोंक रहा है
जिस तरह तोता भी रटा मार रहा है
कोयल भी कम आबादी होने के बाद भी कू बोल रही है
पपीहे की पीहू ज्यों की त्यों है

हमने हंसना बोलना छोड़ दिया है
बूढ़े लोगों से

रोज़ की तरह बूढ़ी होती इस दुनिया में
खुशी कम हो गई है

अमरुद खा लिया है मैंने
अमरुद के रंग पर चिंतन कर रहा हूं
उसकी लालिमा की तरह
चेहरे पर आ रही है सूर्य की रोशनी
याद आ रही है जयशंकर प्रसाद की पंक्ति-अरुण यह मधुमय देश हमारा…!

क्या हम लाल हो जाएंगे
एक दिन

शाम होते ही समुद्र बुलाने लगता है
गोता लगाने के लिए
फिर भी गरमी जा नहीं रही है
जहांँ तहांँ जंगल में आग लगी है

धरती पर एक पांव रखते हुए सोच रहा हूं
कहीं अंगोरा न हो
जिसकी ठंडक
तभी आयेगी जब हिन्दुस्तानी संगीत और कर्नाटका संगीत
सुने कोई कोयल
अपनी राग के साथ
मेरे बगीचे में…!

 

 

3. गोहट

एक चिड़िया उड़ गई मेरी बाजू से करीब एक घंटे पहले

उसकी आंखें बहुत प्यारी सी गुड़िया की तरह थी

उसने मेरे खरगोश को देखा था
घूमते हुए छत पर

बाकी बात हर घर की तरह ही है
अलग इतनी कि
वह नहीं रहा इस ठंड के दौरान
अंतिम मुलाकात रविवार को हुई थी
बेटी भी दौड़ी आई
और उसे सहलाया
बेटे ने पुचकारा
पत्नी रोती रही देख- देखकर
मैंने एक सप्ताह तक उसे भूलने की कोशिश की
वह और याद आने लगा

पक्षी! तुम बचकर रहना
जैसे मेरे देश के बूढ़े लोग बचते हैं
और अब जवान भी
बाल बच्चे भी
नवजात भी
गर्भवती महिला भी

मेरे गांव में दो चार चिड़िया बच रही है
दो चार कुदाल
खुरपी चार छ:
एक दो हल
दो चार बैल
लाठी दस बारह

एक स्कूल बचा है अभी भी और
दो तीन मास्टर

बाबूजी आलू के खेत में गोहट अकेले ही मार रहें हैं

जलेबी बची है
चू रहा है रस
हल्दी के टूसे सा मेरे पॉकेट पर कि एक थप्पड़ मारा
और औंधे मुंह गिर गया

याद आई वो बाछी
जिसका पगहा गले में फंसा हुआ था
कहने आया था बाबूजी को

देश का पगहा राज्यों में फंसा हुआ है
किस चीज से खुलेगा
कोई बताए…!

 

 

4. स्मृतियों में दर्ज एक और स्मृति

रास्ते और समय सब गुजर रहें हैं
स्मृतियां बन रही हैं
बिगड़ रही हैं
याद आ रही हैं

सुखद स्मृतियों के सौदागर स्वप्न में ही बैठा
एक बाजारु उद्योगपति है जिसकी आत्मा का विस्फोट हो रहा है।

हम एक स्वप्नलोक के नागरिक हैं
भारतीय नागरिक और विश्व नागरिक
दो नागरिकों के बीच उद्योगपतियों का जाल है स्वप्नजाल
किसी भी मछुआरे के जाल में फंसी
मोतीवाली सीप
वैसे मछलियों की जान जा ही रही है

उन ग्रंथों का क्या होगा जैसे मत्स्य पुराण

बाबा के पोखरे में जा डूबा है ग्रंथ
आज स्मृतियों और उद्योगपतियों के आंगन में जा धंसी है
कई मछलियों के चौंइटे की नोक
स्मृतियों में दर्ज एक और दारुण स्मृति

 

 

5. वृक्षों से लिपट कर रोना चाहता हूं

एक आदमी
कई साल की रौशनी से बनता है

जबकि एक पीपल का वृक्ष कई बारिश से नहाता है
और उस पर बैठी चिड़िया भी,
थोड़ी ही देर बाद चहकती हुई आ रही है मुंडेर पर

आदमी और वृक्ष में कोई खास फर्क नहीं है

दोनों को बारिश और रौशनी चाहिए

बावजूद
मनुष्य बहुत अत्याचार करता है वृक्ष से
वृक्ष चुपचाप हमें निहाराता और प्यार भरी नज़रों से देखता है

हम वृक्ष के हत्यारे हैं
वृक्ष के दुलारे मनुष्य हैं

चांद की रोशनी में सोच रहा हूं
डूब जाऊं
एक नन्हा- सा पौधा लेकर…!

 

 


कवि अरुण शीतांश, जन्म 02.11.1972, अरवल जिला के विष्णुपुरा गाँव में, शिक्षा -एम ए ( भूगोल व हिन्दी)
एम लिब सांईस, एल एल बी, पी एच डी

कविता संग्रह:  एक ऐसी दुनिया की तलाश में, 
 हर मिनट एक घटना है, पत्थरबाज़

आलोचना: शब्द साक्षी हैं, सदी की चौखट पर कविता संपादन: पंचदीप, युवा कविता का जनतंत्र, बादल का वस्त्र(केदारनाथ अग्रवाल पर केन्द्रित), विकल्प है कविता
सम्मान शिवपूजन सहाय सम्मान और युवा शिखर साहित्य सम्मान।

देशज नामक पत्रिका का संपादन

संप्रति: 
शिक्षण संस्थान में कार्यरत

संपर्क: मणि भवन, संकट मोचन नगर, आरा भोजपुर
802301. मो ० – 09431685589
ईमेल: arunsheetansh@gmail.com

 


टिप्पणीकार भरत प्रसाद कवि,कथाकार और आलोचक हैं। जन्म : 25 जनवरी, 1970 ई. ग्राम–हरपुर, संतकबीरनगर (उ.प्र.)

आलोचना : कविता की समकालीन संस्कृति, बीहड़ चेतना का पथिक:मुक्तिबोध 3.प्रतिबद्धता की नयी जमीन, बीच बाजार में साहित्य , सृजन की 21वीं सदी , देसी पहाड़ परदेसी लोग (पुरस्कृत ) , नयी कलम : इतिहास रचने की चुनौती, चिंतन की कसौटी पर गद्य कविता।

काव्य संग्रह: एक पेड़ की आत्मकथा (पुरस्कृत ) , बूंद बूंद रोती नदी , पुकारता हूँ कबीर, समकाल की आवाज़ : भरत प्रसाद: चयनित कविताओं का संकलन

कहानी संकलन: और फिर एक दिन (पुरस्कृत ) , चौबीस किलो का भूत ।

विचार परक कृति: कहना जरूरी है

सम्पादित पुस्तकें : बचपन की धरती: धरती का बचपन, प्रकृति के पहरेदार, कहानी की नयी सदी
पुरस्कार : मलखानसिंह सिसौदिया कविता पुरस्कार : 2014 ई., युवा शिखर सम्मान-2011(शिमला), अम्बिका प्रसाद दिव्य स्मृति प्रतिष्ठा पुरस्कार -२००८ ई. सहित पांच साहित्यिक पुरस्कारों से सम्मानित।

हिंदी साहित्य लगभग सभी प्रमुख पत्रिकाओं में कविताओं,लेखों और कथा साहित्य का निरंतर प्रकाशन|मासिक पत्रिका “जनपथ” के दो विशेषांकों का सम्पादन। “साहित्य विमर्श” पत्रिका के “समकालीन कविता विशेषांक” का सम्पादन -२०२१ ई. कविताओं का नेपाली , मराठी, अंग्रेजी और बांग्ला में अनुवाद। प्रधान संपादक : पूर्वांगन –ई-पत्रिका

सम्प्रति : प्रोफेसर, हिंदी विभाग
पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय ,शिलांग – 793022, (मेघालय)
मेल:deshdhar@gmail.com
मो.न. 09774125265, 09383049141

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