समकालीन जनमत
समर न जीते कोय

समर न जीते कोय-27

(समकालीन जनमत की प्रबन्ध संपादक और जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश की वरिष्ठ उपाध्यक्ष मीना राय का जीवन लम्बे समय तक विविध साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक हलचलों का गवाह रहा है. एक अध्यापक और प्रधानाचार्य के रूप में ग्रामीण हिन्दुस्तान की शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों से लेकर सांस्कृतिक संकुल प्रकाशन के संचालन, साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों में सक्रिय रूप से पुस्तक, पोस्टर प्रदर्शनी के आयोजन और देश-समाज-राजनीति की बहसों से सक्रिय सम्बद्धता के उनके अनुभवों के संस्मरणों की श्रृंखला हम समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं. -सं.)

बिटिया की शादी


रामजी राय पटना से दो फरवरी को सुबह आए और रात में 9.30 बजे प्रयागराज से दिल्ली चले गए। स्थानीय लोगों को कार्ड देने के लिए मैं सूची बनाकर रखी थी। रामजी राय को दिखाकर फाइनल करना चाहिए था। उन्होंने सरसरी नजर से सूची देखा और कुछ लोगों का नाम कटवा दिए। बोले बाकी आप देख लीजिएगा। 9 बजे जब रामजी राय को स्टेशन छोड़ने गई तो ट्रेन लेट थी। वे कहने लगे यहां समय था, सूची रहती तो ठीक से देख लेता। मैंने अपने झोले से डायरी निकाली और सूची में लिखा नाम पढ़ती गई। उन्होंने कई और नाम कटवा दिया।

उदय भी इलाहाबाद आ गए थे। के. के. पाण्डेय और उदय शादी की पूरी जिम्मेदारी संभाल लिए थे।

तीन फरवरी को मैं स्कूल जाने लगी तो समता कहने लगी आज हमारी दोस्तें आएंगी। आज हम हल्दी लगवा लेंगे, नहीं तो और लोग आ जाएंगे तो ये करो, ये न करो होने लगेगा। मैंने कहा ठीक है लगवा लेना। स्कूल से आए तो हल्दी लगवा चुकी थी। चार फरवरी से मैंने छुट्टी ले रखी थी। 4 को इन्दिरा दी और बम्बई से पुष्पा भाभी आ गईं। फिर भाभी ने कहा किचेन का सामान दिखा दीजिए बाकी आप अपनी तैयारी देखिए। फिर 5 की रात तक मायके और ससुराल के साथ-साथ अन्य नजदीकी रिश्तेदार आ गए थे। कुछ अकेले तो कुछ परिवार सहित। 6 की सुबह तक बाकी लोग भी आ गए।
मैंने जरुरत पड़ने पर पड़ोस में अयूब के यहां और रवि के यहां महिलाओं के रुकने की व्यवस्था कर लिया था। पुरुषों के लिए पार्टी आफिस और के. के. पाण्डेय के घर इंतजाम था। जरुरत पड़ने पर वी. एन. राय के यहां भी व्यवस्था थी। ये तीनों जगहें शादी स्थल से नजदीक ही थीं। रामजी राय 4 फरवरी को सुबह आ गए थे। फिर मैं उदय के साथ जाकर हलवाई वाला पूरा सामान लेकर के. के. पांडेय के यहां भिजवाई, मिठाई वहीं बननी थी। शादी स्थल से उनका घर नजदीक था। शादी के बाद सब्जी वाला एक दिन रामजी राय से पूछा कि बाबूजी उस दिन धर्मशाला मिल गया था आपको? मैंने पूछा-कैसा धर्मशाला? पता चला कि रामजी राय 5 फरवरी को लोगों को रुकने के लिए सब्जी वाले से कोई धर्मशाला पूछ रहे थे। जबकि व्यवस्था पहले ही हो चुकी थी।

शादी अल्लापुर ‘भारद्वाज पुरम गेस्टहाउस’ से होनी थी। गेस्ट हाउस इलाहाबाद यूनिवर्सीटी की प्रोफेसर मालती तिवारी का था। वे हमेशा छोटी बहन की तरह मुझे मानती थीं। उन्होंने गेस्ट हाउस का कोई पैसा न लेकर इस रुप में मेरा सहयोग किया। मात्र बिजली और सफाई का शायद 5-6 सौ रुपया देना पड़ा था। एक गाड़ी ड्राइवर सहित कथाकार शिवमूर्ति जी ने तीन दिन के लिए दे दिया था। एक गाड़ी ओमप्रकाश जी (ए जी आफिस वाले) की थी। आवश्यकतानुसार वी.एन.राय की गाड़ी थी ही। तब कटरे में लक्ष्मी टाकीज चौराहे के पास ही सब्जी मंडी थी। मुहल्ले के गुड्डू को मैंने कार्ड देते समय ही सब्जी की जिम्मेदारी सौंप दी थी। खाना बनाने वाले हलवाई भी पार्टी के सैम्प्थाइजर ही थे। वे एक दिन पहले मिठाई बनाने से लेकर 6 फरवरी को सुबह का नाश्ता, दोपहर में कच्चा खाना, शादी का खाना, 7 की सुबह नाश्ता तथा जरुरत पड़ने पर 7 को दोपहर का भी खाना बनाने का मात्र 2000-2500/- ही लिए थे।

शादी में हमारे मुहल्ले से लेकर सारे पुराने मित्र, रिश्तेदार और मेरे स्कूल के स्टाफ सभी ने दिलखोलकर सहयोग दिया। लेकिन मेरे ही घर (ससुराल ) से सहयोग की मात्र फार्मेल्टी पूरी की गई थी। पार्टी तथा लोकयुद्ध की ओर से भी मुझे सहयोग मिला।

शादी में कुछ परिचितों को मैं कार्ड नहीं पहुंचा पाई थी। ऐसे लोग यह कहते हुए शादी में आए कि सारा भार तो मीना पर ही होगा, ऐसे में वह कहां से सबको कार्ड पहुंचा पाती। रामजी की बेटी की शादी हो और हमलोग कार्ड खोजेंगे? उन लोगों को देख पहले तो शर्मिन्दगी हुई, फिर बड़ी खुशी हुई। कमल कृष्ण राय के घर अनुग्रह सिंह, रतन दीक्षित सहित 4-5 लोगों के साथ किसी काम से गए। वहां किसी ने बताया कि कमलकृष्ण राय और माधुरी जी तो रामजी राय की बेटी की शादी में अल्लापुर गए हैं। अनुग्रह भाई वहां से चल दिए और सबके साथ मेरे यहां शादी में आ गए कि रामजी राय की अनुपस्थिति में मीना भाभी सब तक न पहुंच पाई होंगी। उनकी बेटी की शादी में कार्ड की क्या जरुरत है। सबलोग समता, संतोष चंदन से मिले भी। इसी तरह मुहल्ले के भी कई लोग यह कहते हुए शादी में पहुंच गए कि अपने नजदीकियों से कार्ड क्या खोजना। समता की मम्मी को समय नहीं मिला होगा। इस तरह लोगों के शादी में आ जाने से केवल खुशी ही नहीं मिली बल्कि मन को भारी बल मिला – कि नि:स्वार्थ बने संबन्ध ही ऐसे हो सकते हैं।

6 फरवरी की सुबह ही दिल्ली से पार्टी के लोग भी आ गए। रामजी राय दोनों गाड़ी लेकर उन लोगों को संगम घुमाने चले गए। इधर बार बार सब्जी उठाने के लिए गुड्डू की खबर आ रही थी। अंत में देर होने लगी तो गेस्टहाऊस का पता लेकर गुड्डू खुद ही वहां सब्जी पहुंचा दिया। उधर पटना से लोकयुद्ध और संतोष चंदन के यहां के लोग आ गए। बनारस से वी. के. सिंह, विभाजी, नन्हें, सुधा, मुक्कू , कला कम्यून सहित 16 लोग आए थे। वी के सिंह को देखते ही मैं निश्चिंत हो गई कि किचेन की कमी बेशी वो संभाल लेंगे। संगम से लौटते वक्त शंभू जी , मीरा दी कटरा वाले कमरे पर आए। इन लोगों के साथ मैं भी गेस्टहाऊस चली गई। रास्ते में शंभू जी बोले कि – समता की तो शादी है ही, इसी में एक और शादी की घोषणा आपको करनी है। मैंने पूछा-किसकी? बोले- प्रणय और शुभ्रा की। मैंने कहा- पहले से पता होता तो थोड़ा बढ़िया ढंग से हो जाता। अलग से तो कोई इंतजाम नहीं हो पाएगा, ठीक है इसी में हो जाएगा।

समता और पिंकी ( मेरी दीदी की लड़की) को छोड़ सभी लोग गेस्टहाउस पहुंच चुके थे। रामजी राय फोटो खिंचवाने में मगन थे। आने वाला शायद ही कोई बचा होगा जिसके साथ उनका फोटो न हो। गाना बजाना शुरु था। दोपहर का खाना खाते समय सब लोग साथ ही बैठे थे। बारातियों के लिए गाली गाई जा रही थी। दूसरी पांत में हमलोग खाना खाए। खाना खाने के बाद सब लोग छत पर कुनकुनी धूप में बैठे थे। 3-4 फरवरी को बारिश होने के कारण थोड़ी ठंडी भी थी। विनय भइया का कविता पाठ चालू था। वहां से घर आते समय समता और पिंकी का खाना मैं लेती आई।

शाम में मैं पहले ही गेस्ट हाउस चली गई थी। बाद में समता और पिंकी आईं। अशोक भइया, गिरीश (बहन का लड़का) सहित वहां बहुत लोग आ चुके थे।

शाम में सब लोग इकट्ठे हाल में बैठे। एक तरफ लड़के और दूसरी तरफ लड़कियां बैठ गईं और दोनों के बीच अंताक्षरी शुरु हो गई। काफी देर तक अंताक्षरी चली। इसी बीच समता को लेकर पिंकी आ गई। अंताक्षरी में समता गाना बता दे रही थी लेकिन गा नहीं रही थी। तब तक नीरजा सहित अवधेश प्रधान भी आ गए।
थोड़ी देर बाद अंताक्षरी समाप्त हुई और रामजी राय सबके साथ फोटो खिंचवाने की जिम्मेदारी में लग गए। कोई छूटने न पाए। ये भी एक बड़ा काम होता है। जयमाल की तैयारी होने लगी। जयमाल के लिए मात्र दो सामान्य कुर्सी रखी थी। कुर्सी के पीछे से छत पर जाने की सीढ़ी थी। लोगों की इतनी भीड़ थी कि सब एक दूसरे का कंधा पकड़े देखने के लिए उचके जा रहे थे। बहुत लोग तो सीढ़ी पर खड़े थे। हालांकि उस समय ये महसूस हुआ कि पहले सिंपल चार तखत लगाकर उसके ऊपर ये कुर्सी रखी गई होती तो आसानी से जयमाल सब लोग देखते।
जयमाल से पहले पार्टी के वरिष्ठ कामरेड शंभू जी( स्वदेश भट्टाचार्या ) ने समता और संतोष चंदन के बारे में बताया कि दोनों लोग एक दूसरे से प्रेम करते हैं और एक दूसरे का जीवनसाथी बनने का निर्णय लिए हैं। हम उनके उज्जवल भविष्य की कामना करते हैं। उसके बाद रामजी राय के बड़े भाई ने कहा कि बच्चे अपने माता – पिता की परम्परा को आगे बढ़ाते हैं। यह देखकर अच्छा लगता है। समता और संतोष चंदन ने भी यही किया। उसके बाद जयमाल हुआ और तालियां बजने लगी। उसके तुरन्त बाद रामजी राय ने कहा कि इस खुशी के साथ आप लोगों की खुशी दुगुनी होने वाली है‌। उन्होंने प्रणय और शुभ्रा ने जल्द ही एक दूसरे के जीवन साथी बनने की खबर दी और कहा कि अब मिठाई भी आपलोगों को दुगुनी मीठी लगनी चाहिए। इसके साथ ही तालियों की गड़गड़ाहट भी दुगुनी हो गई। मैंने प्रणय और शुभ्रा को माला पहनाकर बधाई दिया। फिर लोगों का समता, संतोष चंदन, प्रणय, शुभ्रा को बधाई देने का सिलसिला शुरु हो गया। उसी भीड़ में मैंने पीछे से रामजी राय के गले में माला पहना दिया। रामजी राय बोले ये क्या? कृष्णमोहन सिंह बोले रिनीवल है। रामजी राय को माला पहनाने की बात उसी दिन मेरे दिमाग में आ गई थी ‘जब रामजी राय ने पत्र में लिखा था कि हो सकता है मैं सबके साथ 6 फरवरी को इलाहाबादही आऊं।’ जब बारातियों के साथ आएंगे तो माला डालकर इनका स्वागत करुंगी।

शादी में स्कूल के सभी स्टाफ और प्रबन्ध समिति के लोग भी आए हुए थे। खाने का कार्यक्रम शुरु हुआ। खाना खिलाने वालों में सब संगठन के ही लोग थे। छोटे वाले जेठ भी उदय और के.के. पांडेय के साथ लगे हुए थे। संजय चतुर्वेदी ( संजय मेजर ) खाने के काउन्टर पर खड़े सभी खाना परोसने वालों का इंटरव्यू ( परिचय) ले रहे थे। और परिचय लोग इस रुप में दे रहे थे कि- मैं अरविन्द, आइसा इलाहाबाद से कचौड़ी पर, मैं रंजन, लोकयुद्ध पटना से सब्जी पर और मैं अर्जुन, कला कम्यून बनारस से पोलाव पर, ऐसे ही अन्य लोग भी परिचय देते जा रहे थे। और खाने वालों से यह कि इस प्रकार की शादी कैसी लगी। अंकुर के स्कूल के एक टीचर (जो शायद रेवतीपुर के थे) ने कहा कि लोगों को इसी ढंग से शादी करनी चाहिए। बेवजह के दिखावे के कार्यक्रमों के फालतू खर्च से बचना चाहिए। धीरे -धीरे आयोजकों के अलावा सभी लोग खाना खा चुके थे। नहीं खाए थे तो हमारे खास मेहमान हमारे छोटे ननदोई बाबू गजानंद जी और उनके साथ साथ बड़े वाले जेठ और बड़े ननदोई (ये दोनों तो इनके साथ होने से नहीं खा पाए, नहीं तो इन्हें खाने में कोई दिक्कत नहीं थी) । शिकायत ये थी कि कुर्सी टेबल लगाकर हमलोगों को खाने के लिए अलग से बुलाया जाय। अंत में खाए ही लोग। उसके बाद लोग नीचे सोने चले गए।

आयोजकों के खाना खाने के बाद संगीत का कार्यक्रम शुरु हुआ। सबसे पहले ‘ छम्मा छम्मा बाजे रे मोरी पैजनिया……से शुरु हुआ। सबलोग डांस किए। संजय मेजर का डांस अद्भुत था। डांस तो पिंकी (कला कम्यून) ने भी बढ़िया किया। यही नहीं के. के. पांडे और सुनीता ने भी डांस किया। साउंड तेज होने से बगल से छात्रों ने आकर कहा कि कल पेपर है, तो साउंड धीमा कर दिया गया। थोड़ी देर बाद साउंड बंद ही कर दिया गया। सब लोग अलग अलग गाना गाए। समता भी गाना गाई। फिर मैं नीचे सोने आ गई। रिन्नी (बुआ की नतिनी) अपने बेटे के पास हमको लेटाकर संगीत का कार्यक्रम जब तक चला उसमें शरीक रही।

सुबह वाली पसिंजर से ही कला कम्यून वाले चले गए। यहां तक कि मां को देखने के लिए पुष्पा भाभी और आशा दी भी उन्हीं लोगों के साथ गांव निकल गईं। बड़ी वाली जेठानी सहित ससुराल वाले भी लड़की की विदाई से पहले ही चले गए, क्योंकि दूसरी ट्रेन शाम में थी। बड़ी ननद को भी जाना था लेकिन नहीं गईं कि मीना लड़की विदा करके जब घर आएगी तो कोई तो घर में रहना चाहिए। मेरी बड़ी बहन भी रुकी थी। समता की विदाई तक तो मुझे फुर्सत ही नहीं थी। विदाई के बाद मैं रो रही थी तब तक के. के. ने कहा बाद में रोइएगा, टेंट वाले का हिसाब कर दीजिए। मुझे रोने की भी फुर्सत नहीं थी। उसके बाद मैंने कहा कि मैं स्टेशन समता से मिलने जाऊंगी और उदय के साथ स्टेशन चली गई। स्टेशन पर मेरे ससुराल वाले भी मिल गए। समता की ट्रेन आ गई थी। वो ट्रेन में बैठ चुकी थी। मुझे नहीं भूलता कि रामजी राय ट्रेन छूटने तक संतोष चंदन को लोकयुद्ध का काम ही समझा रहे थे कि ऐसे ऐसे करना है। मैं रास्ते भर रोती हुई गेस्टहाउस पहुंची।

सुबह नाश्ता किए बगैर अधिकांश लोग निकल गए थे। कचौड़ी रोक दी गई थी। जलेबी भी कम छनवाई गई। लेकिन सब्जी तो बन गई थी। इसलिए सब्जी काफी बची थी। मेरे गेस्टहाऊस पहुंचने से पहले यहां से बचे हुए सामान सहित सारे लोग कटरा जा चुके थे। थोड़ी देर बाद मैं भी कटरा आ गई। कटरा आने पर समता के बिना घर काट खा रहा था। खूब रोई। थोड़ी देर बाद बचा हुआ नाश्ता सबके घर भिजवाई। सुबह अंकुर सो कर उठा और उठते ही कहने लगा- पापा समता दी चित्राहार कैसे देखेगी? टी. वी. तो ले नहीं गई। उसको टी. वी. भेज दीजिए पापा। उसको मैंने बताया कि वहां टी. वी. है। उसके दूसरे दिन मैं और अंकुर पटना समता के यहां गए। वहां से दो दिन बाद लौटे। इधर मेरे पटना जाने के बाद आशा दी और पुष्पा भाभी भी इलाहाबाद लौट आईं थीं। सबने मिलकर सब सामान स्थिर कर दिया था और बचे हुए गुलाब जामुन के सिरे से भूरा बनाकर ढेर सारी ढूढ़ी भी बना डाली थी। धीरे धीरे सब लोग चले गए। एक सप्ताह बाद समता को आना था।

समता की शादी में अस्वस्थता के कारण दोनों दादी और नाना, नानी नहीं आए थे। इसलिए समता उन लोगों से मिलते हुए ही इलाहाबाद आने का प्लान बनाई। पटना से ही मिठाई के तीन पैकेट पैक करा कर संतोष चंदन के साथ चली। रास्ते में समता संतोष से यह कही थी कि गांव में लड़कियों को खोईछा में इतना चावल मिलता है कि महीना भर खाया जा सकता है। सबसे पहले अपनी दोनों दादी के यहां गई। मेरे ससुराल वालों ने इतनी इज्जत दी कि खोइछा तो छोड़िए समता और संतोष को एक रुपया भी नहीं दिए। समता शर्मिन्दा भी थी। क्योंकि संतोष से बहुत कुछ बतियाई थी। अगले दिन दोनों नानी के यहां (मेरे मायके ) गए। वहां मां, पिता जी इन दोनों को देख बहुत खुश हुए। शाम में पिताजी संतोष को पंपिंग सेट पर लेकर गए। संतोष भी बड़े खुश थे। बड़ी भाभी समता को साड़ी और संतोष के लिए 100/-देते हुए कहीं कि शादी में न आ पाई। नानी को कौन देखता। समता लेने से मना करने लगी तो बोलीं भगिनी हो, ना मत करना। अगली सुबह जब ये लोग इलाहाबाद के लिए निकलने लगे तो मां ने मिठाई खाने के नाम पर संतोष को सौ रुपया दिया। थोड़ी देर बाद एक रुपया दी कि पान खा लीजिएगा। हालांकि वह इकट्ठे 101/- दे सकती थी लेकिन वो जानती थी कि ये लोग इसको नहीं मानते हैं इसलिए अपने तरीके से दे भी दी और इन लोगों की भी बात मान ली।

सभी के सहयोग से समता की शादी बहुत अच्छी तरह से हो गई। कोई दिक्कत नहीं आई। संगठन से मिले हिम्मत पर ही मैंने ट्रेनिंग की, नौकरी की और अकेले रहते हुए आज बेटी की शादी भी की। मैंने बेटी की शादी भी समाज के चकाचौंध, कर्मकांड और दकियानूसी भरे दिखावे में न फंसकर अपने हैसियत के अंदर किया। किसी से कर्ज भी नहीं लिया। बाद में कुछ लोग शिकायत में यह भी कहे कि शादी लग ही नहीं रही थी। ये तो बर्थ डे टाइप था। तो कुछ लोग बहुत खुश थे कि ऐसी ही शादी करनी चाहिए। वरना समाज तो ऐसा है कि लोग लड़की की शादी में बिक तक जाते हैं।

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion