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संयुक्त किसान मोर्चा और किसान आंदोलन की अग्रगति का सवाल

जयप्रकाश नारायण 

लगभग  ग्यारह महीने पहले मोदी ने एकतरफा घोषणा करके तीन कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान किया। कानूनों की वापसी की घोषणा के साथ लगभग एक साल से चल रहे किसान आंदोलन ने बड़ी विजय दर्ज की। इस आंदोलन की अगुवाई संयुक्त किसान मोर्चा कर रहा था। जो देश भर के लगभग साढ़े पांच सौ किसान संगठनों ने मिलकर बनाया था।

आंदोलन की जीत से संयुक्त किसान मोर्चा और भारत के किसानों की एकता और साख,  सम्मान भारत सहित पूरी दुनिया में बहुत बढ़ गया है। विश्व भर में भारत के किसानों के संघर्ष की विशिष्टता को स्वीकारा गया और शिक्षा लेने की बातें उठने लगी।

नोट करने की बात है कि उदारीकरण की नीतियों के खिलाफ यह पहली महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय विजय थी। जिसमें बिखरे हुए  कृषक समाज की एकजुटता ने भारत के अब तक के सबसे क्रूर और कारपोरेट परस्त सरकार को पीछे हटने को मजबूर किया था।

कानून वापसी के बाद सरकार ने संयुक्त किसान मोर्चा को लिखित पत्र देकर बाकी  सवालों के समाधान का आश्वासन दिया था ‌और कहा था कि समयबद्ध ढंग से शेष मुद्दे हल किये जाएंगे।

लेकिन अभी तक आंदोलन के बाकी सभी मुद्दे अपनी जगह पर जस के तस पड़े हैं।  आंदोलन से बनी हुई किसान एकता क्षतिग्रस्त हो चुकी है। उसमें अनेक तरह के उतार-चढ़ाव आ-जा रहे हैं। अगर थोड़े शब्दों में कहा जाए तो संयुक्त किसान मोर्चा की साख को धक्का लगा है।

इस समय किसान आंदोलन सुरक्षात्मक स्थिति में पहुंच गया है। आंदोलन के रंग-बिरंगे  प्रवक्ता जगह-जगह दिखाई दे रहे हैं । कई बड़े नेता मोर्चे से बाहर जा चुके हैं। नौ सदस्यीय संयुक्त किसान  मोर्चा की कमेटी सिकुड़ कर चार पर आ गई है ।

इस परिस्थिति का लाभ उठाकर भारत सरकार योजनाबद्ध तरीके से कारपोरेटपरस्त नीतियां कृषि पर थोप रही है। अभी वन अधिनियम में संशोधन का खतरनाक खेल हुआ है। साथ ही सरसो के उत्पादन में जीएम बीजों को मान्यता दे दी गई है।

सरकार एकमुश्त कृषि को कारपोरेट के हाथ सौंपने की नीतियों से पीछे हट कर टुकड़े-टुकड़े में उन्हें लागू करने में जुटी है।
दूसरी तरफ आन्दोलन के दौरान निर्मित सामाजिक एकता और सांप्रदायिक सद्भाव को विखंडित करने में पूरी ताकत से जुटी है।

चूंकि वर्तमान राज्य तकनीकी रूप से वृहदाकार राज्य मशीनरी और प्रचार तंत्र से युक्त  संगठित समूह है, इसलिए वह अपनी नीतियों और कृत्यों के दुष्प्रभाव से जन सामान्य को भटकाने में कामयाब हो जाता है। ऐसी स्थिति में किसान आंदोलन की अग्रगति के लिए गंभीरता पूर्वक विचार विमर्श  की जरूरत है।

किसान आंदोलन की अग्रगति के लिए पहला सवाल है कि किसान संगठनों की एकता को कैसे पुनः कायम किया जाए।

दूसरा सवाल यह है कि सरकार द्वारा टुकड़े-टुकड़े लागू की जा रही नीतियों के विरोध को किसान आंदोलन के समग्र परिप्रेक्ष्य के साथ कैसे जोड़ा जाए। तीसरा सवाल है, कृषि क्षेत्र में मौजूद वर्ग  विभाजन को देखते हुए नीतियों को इस तरह सूत्रबद्ध किया जाए कि छोटे-मझोले किसान, ग्रामीण गरीब कृषि मजदूर और आदिवासियों सहित विस्तृत समाज आंदोलन के दायरे में खिंच आए।

क्योंकि इस समय सरकार की नीतियों की  तीखी मार इन्हीं वर्गों को झेलनी पड़ रही है।
चौथी बात, देश में बढ़ रही बेरोजगारी, महंगाई  और सरकारी नीतियों के दुष्प्रभाव बहुत नीचे तक दिखाई देने लगे हैं। किसान मोर्चा को इन आंदोलनों के साथ एकता बढ़ानी होगी।

शिक्षित बेरोजगार नौजवानों के रोजगार के साथ शिक्षा के ढांचे जैसे प्राथमिक विद्यालयों, आईआईटी, सरकारी पालीटेक्निक और विश्वविद्यालयों के निजीकरण की तेज गति और घटते रोजगार ने भारत के युवाओं में आंदोलनात्मक चेतना को उन्नत किया है।
सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले अधिकतर नौजवान ग्रामीण गरीब कृषक परिवारों से  आते हैं। इसलिए छात्र नौजवान वह सेतु हैं जिससे ग्रामीण समाज से जुड़ा जा सकता है।

कानून वापसी के बाद सरकार का एकमात्र लक्ष्य हिंदुत्व एजेंडे को चरम पर पहुंचाना और मुस्लिम विरोधी आक्रामक उन्माद पैदा कर सांप्रदायिक विभाजन को तेज करना है।

इस बीच में महिलाओं और दलितों पर हमले हुए हैं। जिसमें लंपट और सामंती ताकतों का उन्मादी चेहरा दिख रहा है। जो किसान आंदोलन के समय कुछ हद तक रुक गया था।जिससे महिलाओं, दलितों और आदिवासियों में आक्रोश और विरोध बढ़ रहा है।

आरएसएस और भाजपा द्वारा पैदा किए जा रहा  सांप्रदायिक और जातिवादी टकराव आंदोलन को कमजोर करेगा। इसलिए किसान आंदोलन को सांप्रदायिक सद्भाव, जातीय टकराव को रोकने के सवाल को अपने एजेण्डे  में ले आना होगा।

संयुक्त किसान मोर्चा के समक्ष भारतीय कृषि के संकट को हल करने के लिए ठोस कार्यक्रम तैयार करना समय की मांग है।  इसलिए  कृषि के संकट के कारपोरेट समाधान की जगह पर   कृषक मार्ग का एजेंडा तैयार करना होगा।

पूंजी निवेश की प्राथमिकता की दिशा को बदलने से लेकर छोटे-छोटे भूखंडों मे बट रही खेती को संबोधित करने के लिए नए तरह के भूमि संबंधों पर भी विचार करना होगा। (छोटी जोत परिघटना)

आजादी के प्रारंभिक काल में जमींदारों के हाथ से भूमि छीन कर भूमिहीन किसानों को  वितरित करने के साथ कोआपरेटिव जैसा प्रयोग हुआ था। विनोबा भावे के नेतृत्व में भूदान  आंदोलन भी चला था।

जो नौकरशाही और सामंती दखल के कारण असफल हो गया और को-आपरेटिव माफिया सहित कई तरह से भूमि लूटने वाली नई प्रजाति जन्म ले ली है।

कृषि के नए स्वरूप, ‘जो जनतांत्रिक होने के साथ सभी तरह के कृषक वर्ग की सामूहिक भागीदारी पर आधारित हो’, उस पर गंभीरता से काम करने की जरूरत है।  सरकारी आंकड़े के अनुसार 90% जोत 4 एकड़ से कम की है। जिसमें तीन-चौथाई से ज्यादा किसान सीमांत किसान की श्रेणी में आते हैं।

छोटी जोत होने पर न रोजगार का सृजन होगा और न कृषि की उत्पादकता बढ़ेगी। जिस कारण कांट्रैक्ट फार्मिंग या कारपोरेट  के लिए कृषि में प्रवेश का तार्किक आधार मिलेगा। बड़े किसान खासतौर से नव-धनाढ्य जोतदार किसानों का हरित क्रांति के सघन  क्षेत्रों के बाहर  एक ऐसा समूह है जो उत्पादकता के महत्व को नहीं समझता और उत्पादन के संबंधों के जनवादीकरण में बाधक  है।

संयुक्त किसान आंदोलन में मूलतः पंजाब, हरियाणा के किसान संगठनों की नेतृत्वकारी भूमिका थी। उसमें राजस्थान व पश्चिमी उत्तर प्रदेश का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। जिनकी छवि बड़े किसानों के आंदोलन की बन गई थी।

जिस कारण से शेष भारत के छोटे-मझोले किसानों ग्रामीण मजदूरों, दलितों में आंदोलन को लेकर उस तरह का उत्साह नहीं था, जैसा कि इस संकट के दौर में होना चाहिए था।

खासतौर से पूर्वी भारत के ग्रामीण इलाकों में मौजूद छोटी जोत परिघटना ने किसान आंदोलन को  पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में आक्रामक शक्ल लेने में बाधा पहुंचाई। इन क्षेत्रों में मंडी सिस्टम और एमएसपी पर खरीद का ढांचा कमजोर होना भी एक कारण रहा है।

उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में बटाईदारी विकासमान परिघटना है। बटाईदारों में आमतौर पर ग्रामीण मजदूर, छोटे-मझोले किसान शामिल हैं। जिसमें अधिकांश दलित-पिछड़ी जातियों से आते हैं।  बटाईदार किसान ही मुख्य रूप से खेती किसानी की रीढ़ हैं। उनके अधिकारों का सवाल आज किसान आंदोलन के लिए बड़ा सवाल है।

बटाईदारों को किसान के रूप में मान्यता दिलाने, सरकारी योजनाओं के लाभ के दायरे में लाने, बटाईदारों का पंजीकरण और उनके  लिए विशेष सरकारी योजनाएं बनाने के एजेंडे को आगे लाना होगा। क्योंकि इस समय खेती में मुख्य उत्पादनकर्ता बटाईदार किसान ही है।

इन इलाकों में मुख्यत: वाम क्रांतिकारी धारा,  किसान आंदोलन की अगुवाई कर रही थी। उनका जनाधार ग्रामीण मजदूरों, छोटे-मझोले किसानों, बटाईदारों और मध्यम किसानों में है।

इसलिए इन इलाकों में क्रांतिकारी वाम संगठनों को एमएसपी पर कानूनी गारंटी और खाद्य सुरक्षा के सवाल के साथ बटाईदार किसानों के हक की लड़ाई को जोड़कर आंदोलन को नीचे तक ले जाने का एजेंडा तैयार करना होगा।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब आदि में भिन्न तरह की स्थिति थी। एक बात विशेष रूप से नोट की जानी चाहिए कि पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों में सिख धर्म के अनुयाईयों की बहुत बड़ी तादाद है। जो इस आंदोलन की रीढ़ थे।

दूसरा, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खाप पंचायतों के रूप में संगठित सामाजिक ढांचा आंदोलन के लिए मजबूत आधार था।
सिख धर्म की सामाजिक चेतना, समानता, सेवा और गुरुद्वारे के रूप में संगठित शक्ति शाली ढांचा ऐसी संरचना है जिसने किसान आंदोलन के लिए भौतिक आधार तैयार करने में अहम भूमिका निभाई।  एक साल तक जिस मनोवेग से हजारों कृषक नर-नारी सेवादारों ने भोजन से लेकर अन्य जिम्मेदारियों को संभाला और एकता को बनाए रखने में ऐतिहासिक भूमिका निभाई। उसने आंदोलन को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका  अदा किया था।

पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड आदि इलाकों में मुख्यतः हिंदू धर्म की वर्णवादी व्यवस्था का प्रभाव और सामाजिक सहयोग, सेवा, समन्वय की परंपरा का अभाव होने से आंदोलन में सभी तबको को संगठित होने में  बाधा है।

जाति विभाजन और आपसी दूरी इस इलाके की बड़ी राजनीतिक समस्या है। जिसे, आक्रामक रूप से बनाए रखने में  जाति के रूप में संगठित राजनीतिक पार्टियों का अपना स्वार्थ है। जो मूलतः यथास्थितिवादी और आंदोलन विरोधी हैं।

इसलिए किसान आंदोलन के दूसरे चरण के लिए  संयुक्त किसान मोर्चे को राजनीतिक तिकड़म, जोड़तोड़ कर किसी तरह से बृहद समन्वय कायम करने की जगह पर वर्तमान  ग्रामीण जीवन की ठोस परिस्थितियों के साथ जोड़कर भावी  किसान आंदोलन का ठोस एजेंडा तैयार करना होगा।

कृषि विशेषज्ञों के तरफ से ढेर सारे सुझाव आ रहे हैं। वन संशोधन अधिनियम और जीएम बीजों की मंजूरी जैसे सवाल आने-वाले समय में किसान आंदोलन के बड़े मुद्दे बन सकते हैं।

एमएसपी और खाद्य सुरक्षा के जुड़वा सवालों के साथ पूंजी निवेश, कृषि में भूमि सुधार और कृषि संरचना के नए स्वरूप के निर्धारण और ग्रामीण समाज के अंदर फैल रहे दरिद्रीकरण के कारणों की शिनाख्त कर आंदोलन के मुद्दे को तय करने पड़ेंगे। तभी जाकर संभवत भविष्य में किसान आंदोलन का कोई स्वरूप खड़ा हो सकेगा।

वर्ण व्यवस्था जनित विभाजन पर कड़ी चोट आंदोलन द्वारा की जा सकती है । साथ ही आरक्षण रोजगार शिक्षा जैसे बुनियादी सवालों से नौजवानों को जोड़कर इस  विभाजित समाज को एकताबद्ध किया जा सकता है।

यह हमें याद रखना चाहिए किसान आंदोलन भाग-2 के लिए उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश सहित दक्षिण भारत और बंगाल के विस्तृत इलाके में किसान आंदोलन को खड़ा करना अति आवश्यक है। जो, फासीवाद के गढ़ भी हैं और उसके समक्ष प्रतिरोध की लहरें भी यहां से उठ रही है। इसलिए  इन लहरों को और तेज करने की जरूरत है।

कुछ खतरे दिखाई दे रहे हैं। जैसे ही हिंदुत्व-कारपोरेट गठजोड़ संकट में फंसता है वैसे ही धर्म आधारित विमर्श को तेज कर दिया जाता है।  जिसका नेतृत्व एक तरफ आरएसएस के अनुषांगिक संगठन और सवर्ण ताकतवर हिस्से करते हैं वहीं दूसरी तरफ दलित पिछड़े समाज का मध्यवर्गीय बौद्धिक समूह उस एजेंडे को लपक लेता है।

जैसे जैसे  हिंदुत्व आक्रामक होता जाता है उसके विकल्प का दावा पेश करने के लिए भी आक्रामक पहचानवादी तत्व खड़े होने लगते हैं। लेकिन ये नेतृत्वकारी लोग यह समझने में असमर्थ हैं कि 21वीं सदी के पहले चतुर्थांश में हिंदुत्व का विकल्प कोई आक्रामक पहचान वादीविमर्श नहीं हो सकता।

आस्थाजन्य  चेतना के विकल्प के रूप में तार्किक वैज्ञानिक जनवादी विकल्प ही एकमात्र रास्ता है।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सत्ता के खोल में सिमटी हुई दलितों, पिछड़ों और अस्मिता के नाम पर सक्रिय राजनीतिक और बौद्धिक ताकतें वैज्ञानिक तार्किक चेतना के रास्ते को बंद कर रही हैं और ’90 के दशक के पुराने विमर्शों को पुनर्जीवित कर अन्ततोगत्वा हिंदुत्व का ही खेल खेल रही हैं । इसमें कुछ इस्लाम के नाम पर काम करने वाले राजनीतिक दल भी भूमिका निभाते हैं।

वस्तुतः ये ताकतें अपने वर्ग चरित्र के कारण आंदोलन विरोधी हैं। अपने संपूर्ण परिप्रेक्ष्य में आरएसएस भाजपा के साथ ही खड़ी है। जो किसी बड़े जन आंदोलन के लिए सबसे बड़ी बाधा है।

इसलिए किसान आंदोलन या किसी भी जनवादी आंदोलन के लिए जातिवादी हमलों का तीखे प्रतिवाद के साथ जाति विनाश के एजेंडे को आगे ले जाना, इसे भूमि सुधारों के साथ  जोड़ना और रोजगार, महंगाई, खाद्य सुरक्षा, एमएसपी और काम का अधिकार जैसे  मुद्दों को आगे कर किसान आंदोलन के व्यापक परिप्रेक्ष्य को विकसित करने का जोरदार प्रयास करना होगा।

समय थोड़ा कठिन है। किसान आंदोलन की अग्रगति थम चुकी है। पूरा आंदोलन कुछ कर्मकांडी प्रतीकवादी दिशाओं में मुड़ता जा रहा है। इसलिए क्रांतिकारी और जनवादी तत्वों के कंधे पर बड़ी जिम्मेदारी आ गई है  कि वे किसान आंदोलन को दिल्ली के इर्द-गिर्द की परिधि से बाहर ले जाकर नये मैदानों, जंगलों में संघर्षरत आदिवासी किसानों, ग्रामीण मजदूरों, छात्र-नौजवानों, औद्योगिक क्षेत्र के मजदूरों के साथ जोड़ें।

लोकतंत्र और मानवाधिकार  के लिए चलने वाले सभी संघर्षों के साथ किसान आंदोलन को जोड़ें।

(जयप्रकाश नारायण मार्क्सवादी चिंतक तथा अखिल भारतीय किसान महासभा की उत्तर प्रदेश इकाई के प्रांतीय अध्यक्ष हैं)

फ़ीचर्ड इमेज गूगल से साभार

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