Sunday, October 1, 2023
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एक पागल की डायरी : एक सार्थक संभावनाशील प्रस्तुति

पुंज प्रकाश

नाट्य प्रस्तुतियों में समकालीनता एक ज़रूरी शर्त है। अपने समय से मुंह चुराता हुआ नाट्य समय, धन और ऊर्जा की बर्बादी और व्यर्थ के प्रलाप के सिवाय और कुछ नहीं है। अपने समय से आंख में आंख डालकर कलात्मक रूप से बात करना ही किसी नाटक की सार्थकता सिद्ध करती है और उसमें कलात्मक तकनीक का समन्वय से कुशल कलात्मक अनुभूति भी प्रदान की जा सकती है। किसी भी कथ्य को समकालीनता प्रदान करने के लिए किया गया गंभीर प्रयोग और प्रयास का स्वागत किया जाना चाहिए।

संतोष झा के मार्गदर्शन में हिरावल (जन संस्कृति मंच) पटना की नाट्य प्रस्तुति “एक पागल की डायरी” देखी। यह कहानी अपने आप में एक विचित्र विन्यास से लबरेज है, किसी उलझे हुए धागे की तरह – जिसमें कई ओर और कई छोर हैं। यह अलग से बताने की ज़रूरत नहीं है कि उपरोक्त कहानी एक विश्वप्रसिद्ध रचना है जिसे लू शुन ने लिखा है। हिरावल की प्रस्तुति शुन की इसी कहानी पर आधारित है। शुन मूलतः चानीज़ और अंग्रेज़ी में लिखते थे और इनका रचनाकाल 19 सदी का शुरुआती वर्ष का रहा है। 25 सितम्बर 1881 को सओसिंग, चेकियंग, चीन में जन्में शुन कहानी, उपन्यास, निबंध आदि विधा में लेखन के लिए जगत प्रसिद्ध हैं और उन रचनाकारों में शुमार हैं जिनको आज भी बड़े शिद्दत के साथ पढ़ा जाता है।

उनकी यह कहानी नाट्यप्रेमियों को लुभाती रही है और समय-समय पर यह कहानी अपना सन्दर्भ बदलती भी रहती है। करीब तीन दशक पहले पटना इप्टा की ओर से इस कहानी का मंचन किया था। उस मंचन में पटना रंगमंच के प्रसिद्ध रंग अभिनेता जावेद अख्तर खान ने मुख्य भूमिका निभाई थी, इस बार यह महत्वपूर्ण और चुनौतियों से लबरेज़ ज़िम्मेदारी विक्रांत चौहान ने निभाई।

लगभग एक शताब्दी पहले लिखे इस कहानी में ऐसा क्या है जो इसे आज भी समकालीनता प्रदान करता है ? ऊपरी तौर पर तो कथा मात्र इतनी है कि कथा का वाचक अपने स्कूल के दो दोस्तों से कई साल बाद मिलने जाता है। उसे उनमें से एक के बीमार रहने कि ख़बर मिली थी। उनके घर जाने पर बड़ा भाई बताता है कि छोटा भाई अभी-अभी बीमारी से उबरा है और कोई सरकारी नौकरी उसे मिल गई है। फिर वह वाचक को अपने छोटे भाई की बीमारी के दौर में लिखी गई डायरी की दो जिल्दें देता है और कहता है कि इन्हें पढ़ने से शायद उसकी बीमारी के बारे में कुछ मालूम पड़ सकेगा। वाचक को डायरी पढ़ कर लगता है कि उसका दोस्त एक प्रकार के पर्सिक्युशन कॉम्प्लेक्स से पीड़ित था। फिर वह इसे समझने के ख्याल से डायरी के कुछ हिस्सों कि नक़ल करता है। तो सवाल वहीं का वहीं कि डायरी के उन पन्नो में आख़िर है क्या? जवाब की तलाश में कहानी का पूरा पाठ ज़रूरी हो जाता है जो अंततः यहां जाकर विराम पाता है कि “शायद बच्चों ने आदमी को नहीं खाया है? बच्चों को बचा लें।”

https://www.facebook.com/hirawal.patna/videos/2465305503485844/?t=0

एक ऐसे वक्त में जब एक “ख़ास” प्रकार की राजनीति करनेवाले लोग जाति, धर्म, समुदाय या सम्प्रदाय के नाम पर एक इंसान को दूसरे इंसान के ख़ून के प्यासे ज़ौम्बी में बदलने के लिए बड़ी ही तेज़ी से प्रयत्नशील हों। चारों तरफ़ एक मुर्दा सन्नाटा पसरा हो और नई पीढ़ी रक्त पिपाशु भक्त बनाए जा रहें हों, वैसे वक्त में एक पागल की डायरी का वो आख़िरी वक्तव्य मानवीयता और मानवीय भविष्य का उद्घोष बन जाता है कि “शायद बच्चों ने आदमी को नहीं खाया है? बच्चों को बचा लें।”

तमाम प्रकार की संभावना और सार्थकता अपने भीतर समेटे हिरावल की टीम ने इसे सादगी, बिना भय और संकोच के उसे ही प्रदर्शित करने की चेष्टा की है। प्रस्तुति अपना विजन बड़ी ही आसानी से लोगों तक पहुंचा पाने में भी सार्थक होती है लेकिन इस क्रम में एकाध जगह सतही भी पड़ जाती है; जिससे बचा जाना चाहिए क्योंकि सवाल यहां व्यक्ति का नहीं बल्कि प्रवृति का होना चाहिए और कला के आलोचनाओं के केंद्र में व्यक्ति से ज़्यादा महत्व प्रवृति का होता है। यदि ऐसा नहीं होता तो कला का प्रभाव बहुआयामी ना होकर एक आयामी हो जाता है, जिसमें क्षणिकता की प्रचुरता हो सकती है, दीर्घकालीन प्रभाव नहीं।

कलाएं बिना बोले भी बहुत कुछ बोलती है और यही कला की सबसे बड़ी शक्ति भी है। प्रस्तुत नाटक में भी कई ऐसे इमेज और दृश्य हैं जो बहुत ही प्रभावशाली ढंग से नाटक की राजनीतिक और मानवीय चेतना को कलात्मक रूप से प्रदर्शित करती है, जैसे बड़े भाई का भीड़ में शामिल होकर मुस्कुराना, या बड़े भाई का एक ख़ास प्रकार के संगीत में वस्त्र उतारना और तिलक, हॉफ ख़ाकी पेंट और तलावर में परिवर्तित होना, डॉक्टर का चेकअप करना और छोटे भाई का संवाद, भीड़ का पैशाचिक नृत्य और काली माई काट खाएगी की ध्वनि, रोहित विमुला की तस्वीर आदि बड़ी ही सहजता, कुशलता, सरलता से नाट्यानुभव को कलात्मक मेटाफर में बदलती, समकालीनता से जोड़ती है और अपनी बात बड़े ही प्रखर रूप में और साफ-साफ प्रदर्शित भी करती है। लेकिन एक दो स्थानों पर बड़ा सतही भी हो जाती है, ख़ासकर उस वक्त जब “प्रधान सेवक” की स्पीच चलाई जाती है। यह ज़बरदस्ती का अंडरलाइन करने जैसा लगता है और यहीं प्रस्तुति थोड़ी हल्की हो जाती है; इसे दुरुस्त करने की आवश्यकता है।

प्रस्तुति में दुरुस्त करने लायक कुछ अन्य बातें भी हैं जैसे स्टेज की सेटिंग, स्पेस का प्रयोग, छोटे-छोटे फेडआऊट से भी रसभंग होता है जिसे सीन ओवरलैपिंग तकनीक का इस्तेमाल करके दुरुस्त किया जा सकता है और प्रस्तुति की गति को सहज और थोड़ा उर्जावान भी बनाया जा सकता है। प्रस्तुति में वाचन ज़्यादा है और दृश्यात्मकता कम – इस पर भी पुनर्विचार किया जा सकता है और यदि इसे वाचन जैसा ही रखना है तो अभिनेता की स्पीच पर बहुत ज़्यादा काम करने की ज़रूरत है। अभिनेता को इमोशनल संवाद और फिलॉस्फिकल संवाद के बीच के फ़र्क को बड़ी ही कुशलतापूर्वक रेखांकित करने की ज़रूरत है।

इसमें कोई शक नहीं कि विक्रांत एक मेहनती अभिनेता हैं और सुमन व राम कुमार एक कुशल अभिनेता। वहीं राजन की उपस्थिति भी अलग से रेखांकित की जानी चाहिए। यह सब मिलाकर एक बेहतर और बढ़िया वैचारिक सोच वाली प्रस्तुति रचने की कुशलता रखते हैं और पागल की डायरी में उसकी प्रचुर संभावना भी मौजूद है। इन संभवनाओं को सहेजकर इसे पुनः प्रस्तुत किया ही जाना चाहिए। विक्रांत को इस भूमिका के लिए थोड़ी और बौद्धिक तैयारी के साथ ही साथ बतौर अभिनेता उन्हें अपनी आवाज़ पर भी कार्य करना चाहिए। विक्रांत जब रोते हुए ऊँचे स्वर में संवाद बोलते हैं तो उनकी आवाज़ अपनी स्पष्टता खो देती है और वैसे भी यह नाटक बौद्धिक प्रलाप का है. इसलिए अभिनेताओं को मानवीय भावनाओं से ज़्यादा लॉजिक और बौद्धिकता को प्रस्तुत करने की आवश्यकता है। हां, नाटक का ध्वनि प्रभाव बढ़िया है लेकिन मंच सज्जा और प्रकाश परिकल्पना को कहानी का मर्म समझकर और ज़्यादा विम्ब उभरने की ज़रूरत है।

प्रस्तुति अपने में एक अच्छी, सार्थक और समकालीन प्रस्तुति की सारी संभावनाएं लिए हुए हैं, जिसमें बड़ी ही सहजतापूर्वक विम्ब बनते और विलीन होते हैं। उम्मीद की जा सकती है कि इन कुछ कमियों को दूर कर हिरावल जल्द ही इस नाटक की पुनर्प्रस्तुति करेगी क्योंकि आज के समय में ऐसी साहसिकता, गंभीर, ज़िम्मेदार और सार्थक प्रस्तुति की प्रचुर ज़रूरत है। अच्छी नाट्य रचना बनाते-बनते बनती है और इस नाटक में वो सारी संभावनाएं मौजूद हैं जो इसे एक बेहतरीन नाट्य अनुभव में परिणत कर सकता है.

( पुंज प्रकाश के फेसबुक वाल से साभार. वीडियो कुमुद कुंदन के सौजन्य से )

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