समकालीन जनमत
स्मृति

प्रो. लाल बहादुर वर्मा: वे एक साथ अध्यापक और दोस्त दोनों थे

धर्मेंद्र सुशांत


लाल बहादुर वर्मा नहीं रहे..

करीब 20–21 साल पहले पटना में उनसे पहली बार मुलाकात हुई थी गोकि जान उन्हें पहले चुका था. यह परोक्ष परिचय पढ़ाई के दौरान उनकी यूरोप का इतिहास और इतिहास के बारे में जैसी किताबों को पढ़ने से हुआ था, जो इतिहास का छात्र होने के कारण मेरे और मुझ जैसे हिन्दी में पढ़ने लिखने वाले न जाने कितने छात्रों का सहारा थीं.

साल अभी याद नहीं, पर 1998 – 2000 के बीच का ही कोई समय था जब पता चला कि वे पटना आने वाले हैं तो हमने ‘समन्वय’ की तरफ से उनका एक व्याख्यान आयोजित करने के लिए उनसे अनुरोध किया. समन्वय हमारी एक अनौपचारिक संस्था थी, जिसमें साहित्य, कला, सियासत, समाज आदि में दिलचस्पी रखने वाले अनेक युवा शामिल थे. जिज्ञासा और जोश तब ऐसा था कि किसी कवि, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता, चिंतक, कलाकार के पटना आने की भनक हमें लगती तो उनसे कुछ सुनने, जानने और बतियाने का प्रयास जरूर करते. समन्वय का अनुरोध मानकर उन्होंने भूमंडलीकरण और इसके प्रभावों पर व्याख्यान दिया और इस सिलसिले में ही उनसे हमारा प्रत्यक्ष परिचय हुआ.

अभी तक पटना में हम सैयद हसन अस्करी, रामशरण शर्मा, सिन्हा जी, आर एन नंदी और पपिया घोष जैसे इतिहासकारों को जानते थे. उनकी ख्याति से वाक़िफ़ थे और अपने शहर का होने को लेकर गौरव भी महसूस करते थे. समन्वय के युवाओं को रामशरण बाबू का स्नेह विशेष रूप से प्राप्त था. ये लोग हमारे आदरणीय थे. लेकिन वर्माजी बिल्कुल अलग किस्म के मालूम पड़े. आदरणीय तो ये भी थे लेकिन इन्होंने हमसे बराबरी का, साथी का व्यवहार रखा.

पुनाईचक के हमारे डेरे पर वर्मा जी ने पेरिस के अपने संस्मरण सुनाए. फ्रांस के ऐतिहासिक छात्र आंदोलन का, सार्त्र का जिक्र किया. उनकी बातों का मतलब यह था कि हमें अपने लिए ऐसा उद्देश्य तय करना चाहिए और उसके अनुरूप कार्य करना चाहिए जिसमें समाज के प्रति सकारात्मक उत्तरदायित्व हो. यह उपदेश नहीं था, सुचिंतित सलाह या कहें अपेक्षा थी, जिसको सबसे पहले वे खुद अपने जीवन पर लागू कर चुके थे. उनकी इस बात ने हम सभी को काफी प्रभावित किया. हम सब उनके मुरीद बन गए. तब से उनसे हमारा आत्मीय संपर्क बना रहा. दिल्ली के पुस्तक मेले में उनसे जरूर मुलाकात होती थी. एक बार मुंबई में भी हुई थी.

समन्वय के बाद हम कई साथी वामपंथी छात्र संगठन आइसा से जुड़े और उसके भी बाद राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय हुए, तब भी वर्मा जी से हमारा संपर्क बना रहा. वास्तव में उनकी जो विशेषता हमें हमेशा आकर्षित करती रही वह यह थी कि वे एक साथ अध्यापक और दोस्त दोनों थे. उनसे संवाद में उनकी विद्वत्ता कभी आड़े नहीं आती थी. वे दिखावा बिल्कुल नहीं करते थे.

वह विद्वान, वामपंथी और नास्तिक थे. वैचारिक तौर पर स्पष्ट और दृढ़. साफगोई उनके स्वभाव में थी. इन गुणों वाले बहुतेरे लोग किंचित कठोर और गुरु-भाव से ग्रस्त भी हो जाते हैं, पर वे अत्यंत सहज थे, विशाल हृदय वाले थे.
हिन्दी क्षेत्र में जन बुद्धिजीवी के अभाव की चर्चा अकसर होती है. बांग्ला की महाश्वेता देवी और अंग्रेजी की अरुंधति राय का उदाहरण देते हुए बार बार यह पूछा गया है कि हिन्दी में ऐसा कोई जन बुद्धिजीवी क्यों नहीं है. यह सवाल उठाने वालों को वर्मा जी पर नजर डालनी चाहिए.

आज उनके नहीं रहने पर जितनी तादाद में और जिस तरह लोग, खास कर युवा उन्हें याद कर रहे हैं वह साबित करने के लिए काफी है कि उनसे कितनों ने प्रेरणा और प्रोत्साहन पाया है.

बेशक वे हिन्दी क्षेत्र के अनन्य जन बुद्धिजीवी और शिक्षक थे जिन्होंने अपनी प्रतिभा और श्रम का उपयोग खुद को प्रतिष्ठित करने के नहीं, बल्कि जन सामान्य को विवेकवान बनाने के लिए किया. इसी कारण अध्यापक , इतिहासकार, साहित्यकार, अनुवादक, पत्रिका संपादक, संगठक… अपनी तमाम भूमिकाओं में वे बिल्कुल अलहदा नजर आते हैं. उनकी कमी हमेशा महसूस होगी.

 

 

(साहित्य और कलाओं और ख़ास तौर पर चित्रकारिता में अभिरुचि रखने वाले धर्मेंद्र सुशांत पटना विश्वविद्यालय से इतिहास में शोध करने के बाद लंबे समय तक दिल्ली में दैनिक अखबार हिंदुस्तान से जुड़े रहे और आजकल राधाकृष्ण प्रकाशन समूह में कमीशनिंग एडिटर के पद पर कार्यरत हैं.)

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion