समकालीन जनमत
स्मृति

परिवर्तनकामी युवाओं के प्रेरक प्रतिबद्ध आत्मीयता के विरल लेखक-चिंतक कॉ.(डॉ.) खगेन्द्र ठाकुर

रमेश ऋतंभर


 

प्रख्यात मार्क्सवादी चिंतक व लेखक कॉमरेड खगेन्द्र जी हमारे समय के न केवल एक प्रतिबद्ध लेखक-शिक्षक व राजनीतिक संगठनकर्ता एवं मार्क्सवादी सामाजिक-राजनैतिक चिंतक एवं कुशल वक्ता थे, वरन् कई विधाओं के सिद्ध-समर्थ लेखक थे।

साहित्य की विभिन्न विधाओं की उनकी महत्वपूर्ण कृतियाँ प्रकाशित और चर्चित हुई, जिनमें ‘धार एक व्याकुल’ व ‘रक्तकमल परती पर’ (कविता संग्रह), ‘आजादी का परचम’ (काव्य-पुस्तिका), ‘देह धरे को दंड’ व ‘ईश्वर से भेंटवार्ता’ (व्यंग्य-संग्रह), ‘छायावादी काव्यभाषा का अनुशीलन’ (शोध), ‘आलोचना के बहाने’, ‘कविता का वर्तमान’, ‘हिन्दी उपन्यास की महान परम्परा’, ‘कहानीः नयी-पुरानी’ एवं ‘दिव्या का सौन्दर्य’ (आलोचना), ‘आलोचक के मुख से’ (सम्पादन), ‘रामधारी सिंह दिनकर’, ‘नागार्जुन’ एवं ‘भगवतशरण उपाध्याय’ (जीवन व कृतित्व/मोनोग्राफ), ‘हमारा वैचारिक संघर्ष’ व ‘विकल्प की प्रक्रिया’ (वैचारिक) आदि प्रमुख हैं।

इसके अलावे ‘उत्तरशती’ त्रैमासिक, ‘कम्युनिस्ट संदेश’ एवं ‘जनशक्ति’ दैनिक पत्र का सम्पादन भी किया। खगेन्द्र जी का लेखन व पत्रकारिता परिवर्तनकारी और प्रतिबद्ध लेखन व पत्रकारिता थी। वे खुद लेखन को समाज के परिवर्तन एवं प्रशिक्षण का एक औजार मानते थे। उनके लेखन में मेहनतकशों, उपेक्षितों व अभिवंचितों एवं उनके श्रम की प्रतिष्ठा मिलती है।

उनकी ‘वे लेखक नहीं है’ कविता इसकी गवाह है-
“वे लिखते हैं/ लेकिन कागज पर नहीं/ वे लिखते हैं धरती पर/ वे लिखते हैं/ लेकिन कलम से नहीं/ वे लिखते हैं/ हल की नोंक से/….वे धरती पर लिखते हैं/ फाल से जीवन का अग्रलेख/ वे हरियाली पैदा करते हैं/ वे लाली पैदा करते हैं/ शब्दों के बिना/ जीवन को अर्थ देते हैं/ ऊर्जा देते हैं, रस देते हैं, गंध देते हैं,/रंग देते हैं, रूप देते हैं/ जीवन को वे झूमना सिखाते हैं/ नाचना-गाना सिखाते हैं/ लेकिन न वे लेखक हैं/ और न कलाकार/ वे धरती पर हल की नोक से लिखते हैं/ उन्हें यह भी पता नहीं कि/ लेखकों से उनका कोई रिश्ता है क्या?/ उन्हें कोई सर्जक समझता है क्या?” (कवि के संग्रह ‘रक्तकमल परती पर’ से)

चूंकि खगेन्द्र जी की चेतना एवं सरोकार कभी श्रमजीवी मजदूर-किसान, उपेक्षित-वंचित एवं निम्न-मध्यवर्ग से अविच्छिन्न रही, इसलिए उनकी रचनाओं (कविताओं) में उनका दुख-चिन्ता व तरफदारी मिलती है। यही नहीं इसके साथ-साथ उन्होंने अपनी रचनाओं (कविताओं) में ऐतिहासिक चरित्र व आख्यान को भी एक नयी अर्थवत्ता प्रदान की है।

इसी तरह उनकी आलोचना कर्म एवं वैचारिकी में भी वैसा सरोकार और प्रतिबद्धता दिखाई देती है। एक वाद आधारित राजनीतिक दल एवं लेखक संगठन-विशेष से ताउम्र सम्बद्ध व समर्पित रहते हुए भी उन्होंने अपने लेखन व आलोचना का दायरा निरंतर बृहत्तर बनाया।

प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष मंडल के सम्मानीय सदस्य कॉमरेड खगेन्द्र जी हमारे समय के एक विरल प्रतिबद्ध आत्मीय रचनाकार व्यक्तित्व थे। वे न केवल लेखकों एवं संघर्षशील परिवर्तनकामियों व संगठनकर्ताओं के प्रेरक एवं मार्गदर्शक थे, वरन् साहित्य की कई पीढ़ियों के आत्मीय अभिभावक व संस्कारक भी थे।

वे बिहार की हमारी पीढ़ी के लेखकों व संस्कृतिकर्मियों के सन्निकट प्रेरक व्यक्तित्व एवं अभिभावक थे। उनसे हमारा आत्मीय रिश्ता व संवाद लगभग ढाई दशकों से था। 1994 ई. में उनके महासचिवत्व में बिहार प्रगतिशील लेखक संघ के पटना में आयोजित भव्य राज्य सम्मेलन में विभिन्न विधाओं के सक्रिय बिहार के प्रमुख युवा लेखकों के साथ हम जैसे अनेकानेक नवयुवा लेखकों को उन्होंने बिहार प्रलेस से जोङा और प्रलेस में नवयुवा लेखकों का एक बृहतमंडल बना, जो बाद के दिनों में प्रतिष्ठित और ख्यात लेखक-पत्रकार हुए तथा बङे शहरों और राजधानी में अपनी मजबूत पहचान दर्ज करवाए।

वे 1963 ई. से 1994 ई. तक बिहार प्रलेस और 1994 ई. से 1999 ई. तक प्रलेस के राष्ट्रीय महासचिव रहे। एक तरह से प्रलेस से अविभाजित बिहार के सुदूर कस्बों-शहरों यथा; आरा, बक्सर, गया, छपरा, सीवान, मुजफ्फरपुर, मोतिहारी, सीतामढ़ी, दरभंगा, मधुबनी, समस्तीपुर, बेगूसराय, खगड़िया, भागलपुर, मुंगेर, जमालपुर, पूर्णिया, कटिहार, अररिया, मधेपुरा, राँची, हजारीबाग, जमशेदपुर, बोकारो, दुमका, गोड्डा, नोनीहाट, नरकटियागंज आदि में रहनेवाली हमारी और हमारे बाद की पीढ़ी को जोङने और उसे वैचारिक समझ एवं मजबूती देने का काम आदरणीय खगेन्द्र जी ने सतत स्नेहसिक्त रूप से किया।

उनसे एक बार जुङ गया, वह ताउम्र जुङ गया। वे सबको अपने ही बृहत्तर परिवार का सदस्य व अंग मानते थे। बिना छोटे-बङे की परवाह किए गाहे-बेगाहे सबका हाल-चाल लेते थे और क्या कुछ नया लिखा-पढ़ा जा रहा है, इसका पता लिया व रखा करते थे। यही नहीं एक बुलावे पर वे दूर-सुदूर तक पहुँच जाते थे। वरिष्ठ कवि अरुण कमल की एक महत्वपूर्ण कविता ‘यही बचाना’ उन्हीं पर ही लिखी गयी है; जिसमें दिवंगत कॉमरेड खगेन्द्र जी के जनसामान्य के विश्वास की हर हाल में रक्षा की प्रतिबद्धता को दिखाया गया है-

“…’नहीं घाट ना नाव न डोंगी/ टिन की जोङी ठटरी जर्जर/ कैसे होंगे पार कौम्रेड/ वापस चलिए चलिए वापस./ तेज है पानी छोटा टोला/ चारों बगल पहाड़ी नदियाँ/ वैसे भी किसको है आना/ जो है जहाँ वहाँ सुख से है/ किसी तरह रह जाये सूखा/ यह शरीर तो बहुत समझिए/ देह बचाने को मिल जाए/ कहीं आसरा बहुत समझिए/ ऐसी है बरसात कौम्रेड/ चलिए वापस जिद्द न धरिए/ जान रहेगी सभा भी होगी/ इसी देह पर सब सिंगार’./ ‘मेरा तो पहले से तै है/ आना है जिनको वो आयें/ या न आयें, वहाँ मुझे तो/ हर हाल में जाना ही है./ वहाँ पहुँचने, सभा लगाने/ से क्या होगा नहीं जानता/ लेकिन इतना तो तै है कि रुक/ जाऊँ अगर तो टूटेगा विश्वास/ और यही तो हर हालत में/ हमें बचाना, चलिए साथी।” (कवि अरुण कमल के संग्रह ‘नये इलाके में’ से.)

सचमुच खगेन्द्र जी एक विरल व अनूठे सामाजिक-सांगठनिक व्यक्तित्व थे। वे निरंतर बिना थके और बीमार पङे उपेक्षित व अभावग्रस्त मनुष्यता के हित को समर्पित विचारधारा एवं संगठन के विस्तार में बिना अतिरिक्त सुविधा की परवाह किए सतत कर्म व रचनारत और यात्राएँ करते रहे। उनमें एक विशिष्ट आत्मीय मृदुता और प्रखर वैचारिक प्रतिबद्धता का अद्भुत समन्वय था, जो असहमतियों के बावजूद किसी को अपने साथ बाँध लेते थे। वे सच्चे मायने में अपने समाज, संगठन और लेखन के प्रति प्रतिबद्धता रखने वाले एक संवेदनशील-सजग-सचेत व्यक्ति थे, जो परिवर्तनकामी रचना एवं संगठनधर्मियों के लिए सदैव प्रेरणास्रोत रहे।

उनके जाने से हमारी पीढ़ी सहित साहित्य की कई पीढ़ियाँ एक तरह से अभिभावक विहीन हो गयी हैं। हिन्दी समाज में उनके तरह का कोई दूसरा प्रतिबद्ध आत्मीय अभिभावक नहीं। उन्हें हमारी अश्रुपूरित श्रद्धांजलि है।

(डॉ.रमेश ऋतंभर, (डॉ.रमेश गुप्ता)
युवा कवि-समीक्षक एवं प्राध्यापक, योगेन्द्र भवन, दूसरी मंजिल, शुभ आमंत्रण मैरेज गार्डन के समक्ष, मुजफ्फरपुरः 842002, बिहार।
चलभाषः 09431670598.)

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