सदानन्द शाही
किसी समाज के सभ्य होने का सबसे बड़ा पैमाना यह है कि वह समाज स्त्रियों के साथ कैसा व्यवहार करता है. अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस हमें अपने आप को इस कसौटी पर कसने का अवसर देता है. अवसर देता है कि हम अपने सभ्य होने की असलियत जानें. सच बात यह है कि स्त्री के लिए हम सहज नहीं हैं, यह जानने के लिए किसी गंभीर शोध की आवश्यकता नहीं अपितु अपने परिवेश पर एक निगाह डाल लेना ही काफी होगा.
दिल्ली में सोलह दिसंबर सन दो हजार बारह की रात एक लड़की अपने मित्र के साथ फिल्म देख कर लौट रही थी. वह वापस हॉस्टल जाने के लिए बस में सवार हुई । बस में अकेली लड़की को देख कर चालक मण्डल के भीतर का पशु जाग गया और उन्होंने एक नृशंस घटना को अंजाम दिया जिसे निर्भया कांड नाम दिया गया। इस घटना ने पूरे समाज को झकझोर कर रख दिया. पूरे देश में अचानक स्त्री के लिए संवेदना जाग उठी, मौन जुलूस से लेकर धरना-प्रदर्शन सब हुआ. अनेक सख्त कानून बने . महिला हेल्प लाइन का अखिल भारतीय नेटवर्क बना .
उम्मीद की गयी कि अब स्त्री के साथ ऐसी हरकत करने की कौन कहे सोचने मात्र से लोगों की रूह काँप उठेगी. लेकिन यह एक खुशफहमी साबित हुई . बाद में निर्भया कांड से भी अधिक नृशंस घटनाएँ घटी हैं, भले ही उन्हें मीडिया में वैसी जगह न मिली हो. हमने पाया कि जैसे जैसे स्त्री सुरक्षा के उपाय किए या बढ़ाए गए, कानून सख्त हुए वैसे वैसे स्त्री के प्रति दुर्भाव और क्रूरता की घटनाएँ बढ़ती चली गयी हैं.
विचार करना चाहिए कि आखिर ऐसी क्या वजहें हैं कि छह महीने की लडकी से लेकर अस्सी साल की औरत तक हमारे समाज में सुरक्षित नहीं है। औरत कब और कहां किस तरह की सामूहिक या निजी पशुता का शिकार बन जाय कहना मुश्किल है. एक बात तो साफ है कि यह महज कानूनी मसला नहीं है. इस मामले में पहले भी कानून कुछ कम सख्त नहीं थे. इसलिए यह मसला कहीं न कहीं हमारे सामाजिक मनोविज्ञान से जुड़ा है. इस मनोविज्ञान को समझना जरूरी है.
दरअसल एक खास तरह की मर्दवादी सोच हमारे समाज में पसरी हुई है, जो किसी भी तरह स्त्री को उपभोग की सामग्री से अधिक मानने को तैयार नहीं है. यह सोच स्त्री से इसी के अनुरूप व्यवहार करती है. ध्यान से देखें कि हम इसी पैमाने पर अपनी स्त्रियों को तैयार करते हैं. इसी उपभोगवादी पैमाने पर स्त्री (तुलसीदास से भाषा उधार लेकर कहें तो) त्यागन, गहन, उपेक्षणीय करार दी जाती है. अपनी सुविधा और जरूरत के हिसाब से वह छोड़ दी जाती है, ग्रहण की जाती है या फिर उपेक्षित कर दी जाती है। कभी-कभी हम उसे छोड़ देने की कार्रवाई को गरिमा मंडित करके अपनी महानता का डंका पीटने से नहीं चूकते. यानी स्त्री हमारी जरूरत है और उसे हर हाल में हमारी जरूरत के हिसाब से अनुकूलित होना होगा। उसे अनुकूलित करने के लिए कल बल छल का सहारा लेने से हम नहीं चूकते.
याद कीजिए जिस समय निर्भया काण्ड को लेकर देश उद्वेलित था बहुतेरे ऐसे लोग थे जो यह कह रहे थे कि लड़की को इतनी रात गये बाहर नहीं निकलना चाहिए था. और इस तरह वे घटना के लिए स्वयं लड़की को जिम्मेदार ठहरा कर निश्चिंत हो जा रहे थे.आये दिन लडकियों को यह नहीं पहनना चाहिए और यह पहनना चाहिए जैसा उपदेश परोसते रहना इसी अभियान का हिस्सा है. स्त्रियों को ऐसे रहना चाहिए और ऐसे नहीं रहना चाहिए कहने वाले लोग शायद ही कभी यह कहते हुए पाये जाते हों कि पुरुषों को भी इस तरह रहना या होना चाहिए. स्त्रियों के लिए समय समय पर जारी की जानेवाली पाबन्दियों की परीक्षा करें तो हम पायेंगे कि सब के मूल में स्त्री को नियंत्रित करने की बेचैनी ही रहती है.
पिछले कुछ दशकों से यह स्थिति बदली है। ऐसा नहीं है कि पुरुष की सामूहिक चित्ति अचानक बहुत उदात्त हो गयी है बल्कि यह बदलाव स्त्री के अपने चित्त में घटित हुआ है. अलग अलग कारणों से स्त्री ने ऐसी पाबन्दियों को नकारने का हौसला दिखाया है. ऐसे हौसले अचानक नहीं बनते. एक लम्बी वैचारिक तैयारी और पृष्ठभूमि के बाद ही किसी वंचित सामाजिक समूह में नकारने का साहस पैदा होता है। स्त्री सदियों की शृंखला की कड़ियां तोड़कर बाहर आयी है और उपभोग की वस्तु होने की नियति से इंकार किया है। जैसे जैसे स्त्री वस्तु होने की नियति से इंकार कर रही है, वैसे वैसे पुरुष की मर्दवादी सोच बौखलाहट का शिकार होती जा रही है.स्त्री के साथ होने वाले अत्याचारों में बढोत्तरी का सम्बंध इस बौखलाहट से भी है। यह हाथ से सत्ता के सूत्र सरकते चले जाने की बौखलाहट है. जब कोई कहता है स्त्रियों को देर रात नहीं निकलना चाहिए, अकेले नहीं निकलना चाहिए या ऐसे कपड़े नहीं पहनने चाहिए तो इसमे केवल नीतिकथन या सलाह नहीं बल्कि एक तरह की धमकी भी छुपी होती है कि स्त्री अगर हमारी खींची हुई लक्ष्मण रेखा से बाहर निकलने की कोशिश करेगी तो उसे यह परिणाम भुगतना ही पड़ेगा जिसकी जिम्मेदार वह स्वयं होगी. स्त्री के साथ होने वाले अत्याचारों में बढ़ोत्तरी को इसी परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए.
खुशी की बात यह है कि इस डर से स्त्रियों ने अपने कदम पीछे नहीं खींचे हैं. पिछले दिनों काशी हिन्दू विश्वविद्यालय परिसर में होने वाली संगठित छेड़छाड़ के विरूद्ध लड़कियों नेजैसी निर्णायक लड़ाई लडीं वह इसका प्रमाण है. निर्भया काण्ड के बाद यह दूसरा मौका था जब स्त्री के मुद्दे पर देश में अखिल भारतीय स्तर पर स्पन्दन महसूस किया गया . खास बात यह थी कि इस बार अग्रिम मोर्चे पर कोई तथाकथित राजनीतिक या सामाजिक संगठन नहीं बल्कि आये दिन की छेड़छाड़ से आजिज सामान्य लडकियां थीं. बनारस की लड़कियों ने बता दिया कि वे वापस किसी लक्ष्मण रेखा में जाने को तैयार नहीं हैं, भले ही इसके लिए किसी मर्दवादी नियंता को घर वापस जाना पड़े.
इसलिए हमें सामाजिक सोच को बदलने के बारे में विचार करना होगा. विचार करना होगा कि हम ऐसे समाज क्यों नहीं हो सकते कि कोई लड़की अकेले जा रही हो तब भी हम सभ्य बने रह सकें. विचार इस पर भी करना होगा कि देर रात किसी लड़की या औरत को आते जाते या हमारे मानक से भिन्न कपड़ों में देखकर भी हम क्यों मनुष्य नहीं बने रह सकते. अक्सर हम अपने सामाजिक संबोधनों में स्त्री के लिए बेटी, बहन या मां जैसे संबोधनों का इस्तेमाल करते हैं. ऐसा करते या कहते हुए हम इस गुमान में रहते हैं कि हर स्त्री के लिए हम हमारे मन में वही सद्भाव रहता है जो मां, बहन या बेटी के लिए संभव है. लेकिन ऐसा करते हुए हमारा ध्यान इस ओर नहीं जाता कि यह वैचारिक रूप हमारे अवयस्क होने का प्रमाण है. सवाल यह है कि जो स्त्री मां, बहन या बेटी नहीं है उसके साथ हम सभ्य व्यवहार क्यों नहीं कर सकते. जिस दिन हम ऐसा करना सीख लेंगे उसी दिन हम सभ्य कहे जाने के अधिकारी होंगे.
(लेखक काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर हैं)