जयप्रकाश नारायण
भारत की अवधारणा, संविधान द्वारा निर्देशित भारतीय राष्ट्र-राज्य की अवधारणा से संघ-नीत भाजपा सरकार का टकराव सीधे-सीधे सामने आ गया है। इन अर्थों में लोकतांत्रिक भारत के निर्माण का प्रश्न आज केंद्रीय प्रश्न बन गया है। भारतीय राष्ट्र-राज्य के समक्ष मौजूद आंतरिक चुनौतियों और उनसे मुठभेड़ को लेकर दो धाराओं के बीच टकराव अपने चरम पर है। आजादी के समय से राष्ट्रवाद की अवधारणा को लेकर अलग-अलग विचार और चिंतन प्रणालियां मौजूद थी। एक धारा भारतीय राष्ट्रवाद के अंग्रेज-विरोधी संघर्ष के चरित्र से निर्मित हुई थी। यह धारा विचार और संघर्ष की दिशा ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध संघर्ष करने और उसे उखाड़ फेंकने की आकांक्षा से निर्धारित कर रही थी । इसने अपने विचार प्रक्रिया का निर्धारण ब्रिटिश गुलामी के विरुद्ध चल रहे संघर्ष से निर्मित हुई राष्ट्रप्रेम की अवधारणा से किया । 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम इस विचारधारा का प्रेरणा स्रोत था। जिसने भारत में ब्रिटिश राज के खिलाफ समझौता विहीन संघर्ष की आधारशिला रखी थी । इसी राष्ट्रवाद की अगली कड़ी भारत में भगत सिंह और उनके साथियों का क्रांतिकारी संघर्ष बना। जिसने कुर्बानी की बेमिसाल परंपरा के साथ-साथ भारत की सामाजिक, आर्थिक संरचना को भी बदलने की तरफ गहराई से दृष्टि डाली । आजादी का मतलब सिर्फ ब्रिटिश गुलामी से मुक्ति ही नहीं, बल्कि भारत के मजदूरों, किसानों को शोषण से मुक्ति और जाति व्यवस्था के विनाश तक राष्ट्रवाद की यह यात्रा जाती है । इसलिए इस विचारधारा से जुड़े हुए लोगों के प्रति अंग्रेजी राज्य का नजरिया पूर्णतया शत्रुता पूर्ण था। अंग्रेजों सहित भारतीय जनता के देशी लुटेरे भी किसी भी तरह का रियायत, लोकतांत्रिक अधिकार या कानूनी सुविधा भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को देने के पक्ष में नहीं थे। यानी साम्राज्यवाद विरोधी चरित्र के साथ-साथ यह राष्ट्रवाद भारतीय समाज के अंदर मौजूद लूट और गैर बराबरी की सभी संस्थाओं के विनाश को आजादी के संघर्ष के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा देखता था। अनेक क्रांतिकारी और आधुनिक वैज्ञानिक चेतना से लैश सामाजिक शक्तियों ने आजादी के संघर्ष के लिए इस आधुनिक प्रगतिशील राष्ट्रवाद को चुना।
प्रारंभिक दौर में भारतीय जन-गण में एक राष्ट्र के संदर्भ में सोचने-समझने की चेतना बहुत कमजोर और विखंडित थी। राजाशाही काल में भारत के छोटे-छोटे भूखंडों पर अनेक तरह से राजे-महाराजे राज करते थे। उनमें राज्य विस्तार या अन्य कारणों से आपसी टकराव, वैमनस्य और संघर्ष चलता रहता था। इस दौर तक राजशाही के संघर्ष में धर्म, भाषा, रंग, नस्ल की निर्णायक भूमिका नहीं थी। प्रजा में साझा हितों को केंद्रित कर सोचने की भौतिक स्थितियां और चेतना निर्मित नहीं हुई थी। क्योंकि उत्पादन छोटी-छोटी विखंडित इकाइयों में होता था और एक दूसरे से संबंद्ध नहीं था। उत्पादन का केंद्रीय स्वरूप छोटे-मोटे कुटीर उद्योगों और कृषि की जरूरतों तक ही सीमित था। माल उत्पादन और पूंजी संचय बहुत ही प्रारंभिक अवस्था में था। इसलिए एक राष्ट्रीय बाजार का निर्माण नहीं हो पाया था। इस कारण से प्रजा या समाज में कोई साझा सामाजिक, आर्थिक हित विकसित नहीं हुआ था । जिस कारण आधुनिक राष्ट्र और राष्ट्रवाद का जन्म उस काल में नहीं हुआ था। अभी तक समाज राजभक्ति की अवस्था में पहुंचा था। एक बादशाह का दूसरे राजा से अंतर्विरोध और टकराव को राज्य की सुरक्षा या विस्तार के संदर्भ में ही देखना चाहिए। धर्म, संस्कृति या भूखंड अभी राज्य-राष्ट्र का आधार नहीं था। अभी तक समाज में आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक तथा आंतरिक एकता का कोई सूत्र मौजूद नहीं था । इसलिए राजे-रजवाड़ों के काल में साझा राष्ट्रीय जन चेतना नहीं थी। हिमालय के दक्षिणी हिस्से को आम तौर पर आर्यावर्त, भारत और मुसलमानों के आने के बाद हिंदुस्तान के रूप में समझा जरूर जाता था। लेकिन मूलतः इसे भारतीय उपमहाद्वीप ही कहा जाता था।
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद ही भारत में साझा हितों और साझा शत्रुओं की पहचान होने के बाद ही भारतीय राष्ट्रवाद का जन्म होता है । जो बाद में भारतीय आजादी के प्रेरणा का स्रोत बनता है। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ने वह भूमिका निभाई जिसमें सभी धर्मों, क्षेत्रों, भाषाओं, पेशों और मरते हुए राजशाही के लोग भी एक साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़े।हालांकि आजादी का यह संघर्ष अभी विकास के बहुत प्रारंभिक अवस्था में था। आगे चलकर इस संघर्ष को अपनी विचारधारा, संघर्ष का स्वरूप, नागरिकों की भूमिका और आजाद होने के बाद भारत की अवधारणा को विकसित करने के स्रोत के रूप में काम करना था। बहादुर शाह जफर को आंदोलन का नेता बनाने के बाद विद्रोहियों के निर्देशन में उनके द्वारा जारी किया गया आजादी का चार्टर वह पहला दस्तावेज है जिसमें नागरिकों के धार्मिक, जातीय, आर्थिक और निजी स्वतंत्रता के प्रारंभिक बीज मौजूद थे। जिसे लंबे समय तक पृष्ठभूमि में रख दिया गया।
इस संघर्ष के बाद भूखंडीय राष्ट्रवाद और उसके निर्माण की दिशा तय होती है। हालांकि उस समय भी ऐसे लोग थे, जो ब्रिटिश भक्ति में लीन थे। वह ब्रिटिश राज की भारत को आधुनिक बनाने की भूमिका को बहुत महत्व देते थे। अंग्रेजी राज द्वारा भारतीय समाज को जागृत करने, आधुनिक बनाने को लेकर आश्वस्त थे और मानते थे कि सदियों से जड़, परंपरावादी और पिछड़े सामाजिक, राजनीतिक चेतना वाला समाज यूरोप खासकर ब्रिटेन के संपर्क में आकर आधुनिक दुनिया का हिस्सा बन सकता है। इसलिए वे ब्रिटिश राज की भूमिका को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित-प्रसारित कर रहे थे। कहा जा सकता है, कि वे उसकी भक्ति में लीन है।
असहयोग आंदोलन की वापसी के बाद उपजी निराशा के दौर में रूसी क्रांति ने वैचारिक आवेग और निराशा को तोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इस समाजवादी क्रांति ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को गहरे से प्रभावित किया। 1925 तक आते-आते कांग्रेस के अलावा अनेक तरह के वैचारिक, राजनीतिक संगठन अस्तित्व में आ गए। इसी काल में क्रांतिकारी आंदोलन ने प्रारंभिक स्तर से शुरू करके भगत सिंह तक आते-आते उन्नत स्तर की वैज्ञानिक चेतना ग्रहण कर ली। जो आजादी को समग्र अर्थों में देखती थी। राजनीतिक गुलामी से लेकर सामाजिक और आर्थिक गुलामी तक को आजादी के संघर्ष का मूल तत्व मानती थी। उसका केंद्रीय अंतर्विरोध ब्रिटिश राज को उखाड़ फेंकना था और भारत के जन-गण में आपसी एकता, समानता और बंधुत्व की आधारशिला को पुख्ता कर उन्हें आजादी के संघर्ष की तरफ ले जाना था । इसी दौर में डॉक्टर अंबेडकर से लेकर स्वामी सहजानंद और कुछ हद तक जवाहरलाल नेहरू जैसे लोग भी प्रगतिशील सामाजिक-राजनीतिक चेतना के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखा रहे थे। मूलतः राष्ट्रीय आंदोलन का यही आधार था, जो 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन, 1946 का नौसेना विद्रोह और आजाद हिंद फौज के सिपाहियों को मुक्त कराने की लड़ाई का प्रेरणास्रोत रहा। यह लडाई मूलतः ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ केंद्रित थी। इसलिए आधुनिक राष्ट्रवादी चेतना थी, जिसमें सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक विभिन्नता को मान्यता और बराबर का सम्मान प्राप्त था। 1947 की आजादी के बाद इस अंतर्विरोध का चरित्र बदला और यह साम्राज्यवाद विरोधी चरित्र अख्तियार कर लिया। यानी साम्राज्यवाद बनाम भारतीय राष्ट्रवाद का अंतर्विरोध प्रधान अंतर्विरोध बन गया । जो आज के उदारीकरण के दौर में ज्यादा खुलकर सामने आ चुका है। भारतीय शासक वर्गो का साम्राज्यवाद और विदेशी पूंजी के प्रति प्रेम, गुलामी के हद तक पहुंच गया है। आज भारत के जनता के सारे संघर्ष इसी प्रधान अंतर्विरोध के तहत संचालित और नियंत्रित हो रहे हैं। यही वह जगह है, जहां भगत सिंह का राष्ट्रवाद अपनी पूरी ताकत के साथ इंकलाब जिंदाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद के रूप में पुनर्जीवित हो चुका है और इसका सीधा टकराव साम्राज्यवादी राष्ट्रवाद के हिंदू संस्करण के साथ खुलकर सामने आ गया है।
माफीनामा स्वीकार होने के बाद जब 60 रूपये की मासिक पेंशन के साथ सावरकर जेल से बाहर आये तो उनकी पहली पुस्तक हिंदुत्व सामने आई। जिसने भारत में हिंदू राष्ट्रवाद की वैचारिक आधारशिला रखी। जिसने राष्ट्रवाद को पित्रृभूमि और पुण्यभूमि के साथ जोड़ा । इसका साफ अर्थ था कि वे धार्मिक, सामाजिक समूह जो भारतीय भूखंड के बाहर जन्म लिए हैं, वह राष्ट्रभक्त नहीं हो सकते और उनकी राष्ट्रभक्ति को संदिग्ध माना जा सकता है। इस अर्थों में भारत के बाहर के सभी बौद्ध धर्मावलंबी अपने देश में राष्ट्र-विरोधी माने जा सकते हैं।
डॉ. मुंजे इटली में मुसोलिनी से मिलकर आए तो उन्होंने अपने शिष्य डॉक्टर हेडगेवार को इटालियन राष्ट्रवाद, जो फासीवाद के नाम से जाना जाता था, से शिक्षित-दीक्षित किया। उनकी प्रेरणा से डॉ हेडगेवार ने 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। शुरू से ही संघ की मान्यता थी कि भारत को सांस्कृतिक, धार्मिक रूप से शुद्ध समाज बनाया जाना चाहिए। आजादी की लड़ाई की तुलना में यह प्रधान कर्तव्य है। इसलिए उन्होंने प्रारंभ से ही भारत में धार्मिक विभेद के साथ राजभक्ति और सनातन वर्ण-व्यवस्था को ही अपना केंद्रीय संचालक विचार माना और पेशवा पद-पादशाही की स्थापना की घोषणा की। जिसे बाद में हिंदू राष्ट्र के लक्ष्य तक उन्नत किया गया। नस्लीय शुद्धिकरण की अवधारणा के हिटलरी प्रयोग को भारत के लिए स्वीकार करने का आवाहन किया गया। इसलिए ब्रिटिश राज के खिलाफ संघर्ष की निंदा तक की गई। यहां तक कहा गया कि राष्ट्रवाद को अंग्रेज के खिलाफ लड़ाई में केंद्रित करके इसे सीमित और विकृत कर दिया गया है। उनकी मान्यता थी कि भारतीय राष्ट्रवाद को ब्रिटिश विरोधी चेतना से लैस करके भारतीयों को भारी नुकसान पहुंचाया गया। इसी संदर्भ में भगत सिंह को बहादुर योद्धा तो माना गया लेकिन उन्हें और उनके साथियों को भटके हुए नौजवान के रूप में पेश किया गया। सलाह दी गई कि उन्हें अपनी शक्ति को संजो कर रखना चाहिए था जिससे मध्यकालीन गुलामी के अवशेषों से भारत को छुटकारा दिलाने के लिए सही समय पर इस शक्ति का उपयोग किया जा सके । आजादी की लडाई के चरमोत्कर्ष के समय में भारतीयों को सलाह दी गई कि वह अपनी उर्जा ब्रिटिश विरोधी संघर्ष में बर्बाद न करें और उसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद यानी हिंदू राष्ट्रवाद की स्थापना के लिए लगाने के लिए सुरक्षित रखे।इसलिए लट्ठधर प्रशिक्षित स्वयं सेवकों की सेना का अंग्रेजों के साथ कहीं भी किसी तरह का वाद-विवाद भी नही हुआ। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की धार मध्यकालीन भारत के मुस्लिम शासकों की तरफ निर्देशित था जो ब्रिटिश सत्ता के आने के बाद इतिहास के पन्नों में सिमट गए थे।
यहीं से भारत के राष्ट्रवाद में और राष्ट्रवादी कहे जाने वाले समूहों में धार्मिक राष्ट्र का तत्व प्रवेश किया । जो भारत में दो राष्ट्र के सिद्धांत तक पहुंचा। हिंदुत्व के राष्ट्रवादी सिद्धांत ने भारत की जनता की उपनिवेश-विरोधी संघर्ष में बनी एकता को तोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सांप्रदायिक संघर्ष का आधुनिक संस्करण इसी धारा के बीच से जन्म लिया है।
आज राष्ट्रवाद का यह संस्करण सीधे भगत सिंह के राष्ट्रवाद से टकरा गया है। पूंजी की दासता और कारपोरेट लूट के खुले दौर में सत्ता पाते ही हिंदू राष्ट्रवादियों ने भारत की लोकतांत्रिक और प्रगतिशील चेतना वाली जनता के खिलाफ यह युद्ध छेड़ दिया है। अगर हम सीधे अर्थों में कहें तो भगत सिंह के राष्ट्रवाद से संघ-सावरकर का राष्ट्रवाद टकरा गया है। फिलहाल इन दोनों धाराओं के बीच में एकता का कोई सूत्र मौजूद नहीं है। इसलिए आज भारत में निर्माण की दो दिशाओं के बीच का संघर्ष खुलकर सामने आ गया है। भगत सिंह, डॉक्टर अंबेडकर और उनके विचारों से प्रेरित राष्ट्रीय आंदोलन की मूल भावना से दीक्षित लोकतांत्रिक मूल्यों, सामाजिक समता, धर्मनिरपेक्षता और भाईचारे वाली पूरी परियोजना के खिलाफ आज संघ-सावरकर का हिंदू राष्ट्रवाद कारपोरेट पूंजी के साथ जुड़कर विध्वंसक हथियार लेकर खड़ा है । जो भारत के लोकतंत्र, संविधान और नागरिक समाज के लिए गंभीर चुनौती है। यही नहीं, भारत जिसे हम विभिन्न संस्कृतियों, धर्मों, नस्लों, भाषाओं का एक सुंदर गुलदस्ता कहते हैं, उसके खिलाफ इसने युद्ध छेड़ दिया है। यही आज का मूल सवाल है। दिल्ली की सीमा पर बैठे हुए किसान जिस नये राष्ट्रवाद का परचम लेकर खड़े हैं, उसे वे भगत सिंह, अंबेडकर यहां तक कि गांधी और गौतम बुद्ध के अहिंसा के मूल आत्मा और मार्क्स के शोषण मुक्त समाज की परिकल्पना के साथ आगे बढ़ रहे हैं। इसलिए गांधी-वध का उत्सव मनाने वाले, अंबेडकर का विखंडित पाठ करने व नेहरू की आधुनिक प्रगतिशील चेतना के खिलाफ लगातार युद्ध चलाने में लगे हैं। साथ ही मार्क्सवादी, साम्यवादी विचारधारा से प्रेरणा लेने वाले राजनीतिक कार्यकर्ताओं तथा मेहनतकश जन-गण के हितों के खिलाफ ये राष्ट्रवादी अंततोगत्वा साम्राज्यवाद और कारपोरेट गठजोड़ के मूल प्रतिनिधि के रूप में हमारे सामने हैं । यही आज का मूल अंतर्विरोध है। जहां समझौते की कोई गुंजाइश नहीं है । इन दो विचारधाराओं के बीच लड़ाई उन्नत स्तर पर आ गई है। अगर हमें सचमुच भारत की मूल अवधारणा को बचाना है तो हिंदू राष्ट्रवाद के खिलाफ भगत सिंह, अंबेडकर के राष्ट्रवाद के परचम को बुलंद करना होगा और लोकतांत्रिक संघर्ष की दिशा में बढ़ना होगा। 2020-21 के किसान संघर्ष, 2019 के नागरिकता के संघर्ष और दिल्ली सहित अन्य विश्वविद्यालयों के छात्रों, नवजवानों के संघर्ष ने व्यापक मजदूर वर्ग और लोकतांत्रिक जनता के साथ मिलकर साम्राज्यवाद और कारपोरेट पूंजी की दलाल ताकतों के साथ सीधी विभाजक रेखा खींच दी है। आप को रेखा के इस पार या उस पार रहना ही होगा। दोनों में समन्वय की संभावना भी नहीं है। इसलिए आज के दौर में हमें भगत सिंह, अंबेडकर के राष्ट्रवाद और संघ-सावरकर के राष्ट्रवाद के बीच सीधे विभाजक रेखा खींचते हुए अपने भविष्य की योजना को निर्मित करना और व्यावहारिक स्तर पर विकसित करना होगा। जिस राह को हमारे किसान, मजदूर, छात्र, महिलाएं, आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक अपने संघर्षों के माध्यम से हमवार कर रहे हैं, उसे कारपोरेट साम्राज्यवादी पूंजी के गठजोड़ से मुक्त करने की लड़ाई तक ले जाना होगा। आज का सच्चा राष्ट्रवाद यही है। भगत सिंह का दिल्ली के किसानों के संघर्षों के बीच में जिंदा हो उठना आधुनिक राष्ट्रवाद का स्वाभाविक विकास है । हमें इसका पुरजोर स्वागत करते हुए आगे बढ़ना है।