समकालीन जनमत
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संघ-सावरकर तथा भगत सिंह के राष्ट्रवाद के बीच का अंतर्विरोध और लोकतंत्र का वर्तमान संघर्ष- दो

जयप्रकाश नारायण

भारत विभाजन और 1947 की आजादी के बाद भारत में घटित होने वाली सभी घटनाओं और उसके चरित्र  को देखने के नजरिए में बुनियादी  रूपांतरण हो गया। अभी तक हम भारतीय अस्मिता की तलाश,  नागरिकों के अधिकार, भौतिक जरूरतें, साहित्य, कला और संस्कृति की बुनियादी चेतना और सामाजिक गतिविधियां ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरोध के संदर्भ में देखते-समझते और रचते थे । लेकिन भारत विभाजन के बाद उपनिवेशवाद विरोधी चेतना कमजोर पड़ने लगी ।

भारतीय राष्ट्रवाद की चेतना ब्रिटिश शासन  के खिलाफ संघर्ष में निर्मित और विकसित हुई थी। इसलिए आजादी के बाद  राष्ट्रवाद की इस तीव्रता को  कम हो ही जाना था। ज्यों ही उपनिवेशवाद विरोधी हमारी चेतना में एक ठहराव और आजाद होने का बोध आया, त्यों ही भारत के निहित स्वार्थी तत्वों ने  विभाजन के चलते हुए भयानक खुंरेजी नरसंहार और अफरा-तफरी के माहौल का लाभ उठाते हुए भारतीय राष्ट्रवाद की पहचान को बुनियादी रूप से पाकिस्तान के विरोध से जोड़ दिया ।

जबकि, उपनिवेशों से आजाद देशों के विकास और  आजादी को बचाये रखने तथा लोकतांत्रिक संस्थाओं का निर्माण करने का प्रश्न लगातार विश्व साम्राज्यवाद के दबाव और तनाव के बीच ही हल करना पड़ रहा था। दुनिया में नव साम्राज्यवाद अमेरिकी नेतृत्व में नये आजाद हुए देशों  पर अनेक तरह से दबाव और उन्हें नियंत्रण में लेने की कोशिश कर रहा था। विश्व को  दो ब्लाकों  के बीच विभाजित करने की हर संभव कोशिश चल रही थी ।

एक तरफ अमेरिकी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में दुनिया की पुरानी उपनिवेशवादी ताकतें एकजुट होकर नये-नये सैन्य गठजोड़ बना रहे थे- जैसे, सीटो, नाटो, सैंटो आदि। जिसमें अमेरिका भारत सहित सभी नव स्वाधीन देशों को साम्यवादी भय दिखाकर नत्थी कर देना चाहता था । अपनी भौतिक स्थितियों के चलते पाकिस्तान नाटो का सदस्य हो चुका था। लेकिन भारत ने अपने को किसी भी  खेमे में जाने  से बचाए रखने की कोशिश की और गुटनिरपेक्ष देशों का एक नया  गठबंधन तैयार किया।

दूसरी तरफ समाजवादी क्रांति  संपन्न समाजवादी देश और कुछ नवस्वतंत्र  देश  थे।  उपनिवेश से आजादी का भारत में उल्लास युक्त वातावरण बना था। इसलिए स्वाभाविक रूप से नया नेतृत्व आजादी  के संघर्ष में सफलता पाने के बाद आत्मविश्वास से भरा था।  उसने एक प्रगतिशील  समाजवादी नीति ली और वैश्विक गठबंधन से तटस्थता का रास्ता चुना। वह अमेरिकी सैन्य गठबंधन में शामिल होने के लिए तैयार नहीं हुआ। भारत में कांग्रेस और उसके बाहर  राजनीतिक नेताओं  और नौकरशाहों की मजबूत लाबी थी, जो चाहती थी कि भारत अमेरिकी ब्लॉक का सदस्य बने ।

ऐसा न होने पर इन समूहों ने देश के अंदर पक्ष और विपक्ष दोनों को मिला कर दबाव गुट का निर्माण किया जो भारत को दक्षिणपंथी आर्थिक-राजनीतिक  दिशा में ले जाने के लिए हर संभव प्रयास चलाए। 1945 से लेकर 1950 के तूफानी काल में भारत के अंदर राजनीतिक विचारधाराओं का घात-प्रतिघात तीव्र  रूप से चल रहा था। जिसके दूरगामी परिणाम भारतीय लोकतंत्र के लिए होने वाले थे। विश्व साम्राज्यवादी ताकतों की निगाह भारत के अंदर इस तरह के गुटों और राजनीतिक ताकतों के ऊपर लगी थी और उन्होंने उन्हें हर तरह की मदद और सहयोग दिया।


भारत के विभाजन ने एक बहुत ही जटिल परिस्थिति खड़ी कर दी थी । जिसे भारत सहित इस उपमहाद्वीप के सारे नागरिकों, राष्ट्रों को हल करना और सुलझाना था। विभाजन की त्रासदी से सबसे ज्यादा खुश वे ताकतें थीं, जो राष्ट्रीय आंदोलन से बाहर रह कर सांप्रदायिक और विभाजनकारी योजना चला रही थी। साथ ही, धार्मिक राष्ट्रवाद के तत्वों का प्रवेश राष्ट्र-राज्य के संरचना और बनने वाले विधान में प्राथमिकता में लाना चाहती थी।

विभाजन ने पंजाब, सिंध, बंगाल से लेकर उत्तर भारत तक भारतीय नागरिकों के मनोजगत में एक गहरा घाव पैदा कर दिया था। अपने लोगों से बिछुड़ना,  हत्या,  बलात्कार, घर-परिवार, जमीन-जायदाद से महरूम होना आदि बातों ने आपसी तनाव और नागरिकों में नफरत  और गुस्से का भाव पैदा किया था। यह परिस्थिति साम्राज्यवाद की दलाली और अंग्रेजों की खुशामद तथा सेवा  करने वाले हिन्दूवादी  संगठनों के लिए सबसे मुफीद थी।

इसलिए पाकिस्तान के निर्माण से बने तनाव के बीच  उन्होंने राष्ट्रवाद के मूल आधार को परिवर्तित कर देने  और उसे पड़ोसियों के विरुद्ध केंद्रित करने के लिए दीर्घकालिक   अभियान चलाया।

पाकिस्तान के साथ हुए तीन युद्धों ने भारत के साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रवाद के चरित्र को पाकिस्तान विरोधी और अंततोगत्वा भारत में इस्लाम विरोधी दिशा में मोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा दी। 

भारत में राष्ट्रवाद की परिभाषा  दूसरी दिशा में बढ़ गई।  राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन शुरू से ही अंग्रेज विरोधी राष्ट्रवाद की निंदा और उससे घृणा करते रहे थे। उन्होंने  पाकिस्तान विरोधी राष्ट्रवाद को लपक लिया। हमारे निशाने पर अब वैश्विक लुटेरी पूंजी के सरगना की जगह हमारे पड़ोसी मुल्क हो गए ।

हम अपनी अस्मिता की पहचान की खोज और भारत की प्रगति,  गरिमा  की तुलना वैदेशिक, वैश्विक नीति का निर्धारण भी पाकिस्तान को केंद्र में रखकर ही करने लगे।   पाकिस्तान में भी यही परिघटना घटित हो रही थी। इस्लाम के नाम पर बने  देश में लोकतंत्र चल नहीं पाया । सैन्य  तानाशाहों ने पाकिस्तान पर कब्जा कर लिया। इसलिए भारत और पाकिस्तान दोनों में युद्ध की मानसिकता को स्थाई भाव देने का हर संभव प्रयास सत्ता पर काबिज ताकतों द्वारा किया गया । 

शासक  वर्गों ने लगातार इस उन्माद को और ज्यादा बढ़ाने की कोशिश की। जबकि साम्राज्यवादी दबाव से मुक्त होने के लिए यह आवश्यक था हम अपने आस-पास के पड़ोसी राष्ट्रों के साथ लचीला और मैत्रीपूर्ण संबंध विकसित करें।

दोनों समाज में ऐसे संगठन और लोग थे जिनका हित नये साम्राज्यवादी ताकतों के साथ  गठबंधन से पूरा हो रहा था।  इनका वर्गीय चरित्र बार-बार साम्राज्यवाद के साथ इन्हें जोड़ने की तरफ ले जाता था । चूंकि लोकतंत्र का विकास  कष्ट-साध्य प्रक्रिया है। जिसे देश के अंदर  सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक संबंधों को पूर्णतया रूपांतरित किए बिना किसी भी देश में लोकतंत्र को स्थाई आधार नहीं दिया जा सकता। इसलिए जनता का भी लोकतांत्रीकरण करने के लिए समाज के मूल आर्थिक-राजनीतिक  ढांचे को बदलना, सामंती अवशेषों को समाप्त करना, लोकतांत्रिक मूल्यों को राज्य द्वारा मजबूती से समाज में स्थापित करना आवश्यक होता है।

शासक बन बैठे हुए लोग अपने साम्राज्यवादपरस्त परस्पर हितों को छिपाने के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को पूर्ण रूप से विकसित होने से भयभीत थे। इसलिए उन्होंने राष्ट्रवादी, धर्मवादी उन्माद बढ़ाने का हर संभव प्रयास किया।

युद्ध सामग्री बेचने वाली अंतरराष्ट्रीय ताकतों और उनके देसी दलालों के लिए पाकिस्तान और भारत के बीच स्थाई वैमनस्य फायदे का सौदा था । पाकिस्तान का मौजूद होना एक उत्प्रेरक की भूमिका निभाता रहा।  साम्राज्यवाद का बांटो और राज करो की चिर-परिचित अपनाई गई नीति है। इसलिए इन लोगों ने पड़ोसियों के साथ संघर्षों को लगातार प्रमुख एजेंडे पर रखा।

भारत का उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में पला-बढ़ा राष्ट्रवाद अंततोगत्वा पाकिस्तान, इस्लाम और पड़ोसियों के खिलाफ मोड़ लिया गया। यही वह त्रासदी स्थिति है जिससे आज हम जूझ रहे हैं।


क्रिकेट राष्ट्रवाद
आज सरकार में बैठे संघ और भाजपा के लोग पाकिस्तान विरोध के बिना एक सेकंड भी जिंदा नहीं रह सकते। इनकी पूरी ऊर्जा और ताकत इस्लाम विरोध और पाकिस्तान के काल्पनिक हवाई विरोध पर आधारित है । भारत की जनता की चेतना में ये पाकिस्तान से घृणा,  तनाव और युद्ध जैसा माहौल  बनाए रखना चाहते हैं।


हम जानते हैं कि खेल, संगीत, कला, साहित्य धर्मनिरपेक्ष, राष्ट्रनिरपेक्ष सांस्कृतिक-सामाजिक क्रियाएं  हैं । लेकिन विभाजनकारी जनविरोधी ताकतों ने खेल से लेकर संगीत को राष्ट्रीय उन्माद पैदा करने  के हथियार में बदल दिया है।

सरकार पर काबिज  लोग जितने ही क्रूर, बर्बर, अमानवीय और कारपोरेटपरस्त तथा अपराधी प्रवृति के होते हैं, वे खेल से लेकर संगीत तक के सवाल को आपसी घृणा और वार मांगरिंग के लिए अवसर के बतौर देखते हैं ।

अभी हमने भारत-पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच में भारत की पराजय को भारत के अंदर अल्पसंख्यकों के खिलाफ एक हथियार के रूप में प्रयोग चल रहा है । जिन नौजवानों, छात्रों में किसी भी तरह से पाकिस्तानी खिलाड़ियों के विजय पर प्रसन्नता व्यक्ति की उन्हें राजद्रोह के आपराधिक मुकदमों में गिरफ्तार कर लिया गया और जेलों में डाल दिया गया ।

पिछले दिनों हमने मराठा राष्ट्रवाद को  क्रिकेट की पिच खोदते, पाकिस्तानी खिलाड़ियों के साथ भारत के खेल आयोजन के सवाल पर हंगामा, उन्माद पैदा करते देखा है।

हमने पाकिस्तानी गायक  गुलाम अली जैसे लोगों को भारत आने पर भी इस तरह के उपद्रव मचाते देखा है या भारतीय कलाकारों, साहित्यकारों के पाकिस्तान यात्रा को भी उन्हें पाकिस्तानी दलाल या एजेंट के रूप में चित्रित करते देखा है।

  राष्ट्रवाद की यह  विकृत, विघटनकारी, विध्वंसक परियोजना हिंदुत्व राष्ट्रवादियों द्वारा संचालित की जा रही है । जो भारत में साहित्य, कला, संगीत और लोकतंत्र के विकास के लिए साधनारत  लोगों के उत्पीड़न के हथियार के रूप में प्रयोग की गई है।  इसलिए हमें इस क्रिकेटी राष्ट्रवाद का डटकर विरोध करना होगा।

एक बार किसी लेख में हमारे पूर्व महासचिव कामरेड विनोद मिश्र ने लिखा था, कि हमारे सपनों के भारत में सिंधु घाटी की सभ्यता विदेश में नहीं होगी और उत्तर भारत में बांग्लादेशी नागरिकों को चूहों की तरफ से खदेड़ा नही जाएगा। कराची में बाहर से गए हुए मुसलमानों को मोहाजिर और बांग्लादेश में बिहार से गए  मुसलमानों को बिहारी कहके अपमानित नहीं किया जाएगा तथा पाकिस्तान के सिंध, पंजाब, बांग्लादेश से आए हुए हिंदुओं को भारत में विदेशी के रूप में नहीं देखा जाएगा।

हम इन तीनों देशों के बीच में मैत्री और आपसी संबंधों के लिए एक महासंघ बनाने की दिशा में काम करेंगे । लोहिया जी ने भी शुरू से ही कहा था कि भारतीय उपमहाद्वीप में शांति के लिए तीनों देशों के महासंघ की आवश्यकता है।लेकिन आज के शासक वर्ग संघ-नीत पर संचालित है, उनकी जीवन शक्ति उनकी नाभि में भरे घृणा पर ही  टिकी है ।

बिना नफरत के, इस्लाम, पाकिस्तान विरोध के यह एक सेकंड भी जिंदा नहीं रह सकते । इसलिए आज भारत के लोकतांत्रिक, न्याय प्रिय नागरिक का कर्तव्य है कि पाकिस्तान, इस्लाम विरोध की पूरी परियोजना को खारिज करें ।

संघ-भाजपा की विभाजनकारी नीति के खिलाफ  खड़े हों। क्रिकेटी राष्ट्रवाद से घृणा करें।  विभाजनवादी नीति ने भारत का चौतरफा विध्वंस किया है। आर्थिक-राजनीतिक  रूप से हमें एक पिछड़े, भुक्खड़, गैर लोकतांत्रिक नफरती  देशों की कतार में खड़ा कर दिया है।

कारपोरेट लूट के लिए भारत में इस विभाजन की नीति का इस्तेमाल कर मित्र पूंजीपतियों को मालामाल करने, भारत की जनता के जल जंगल जमीन पर कब्जा करने और लोकतंत्र को नष्ट कर देने की परियोजना चलायी जा रही है। उसके खिलाफ हमें जन राष्ट्रवाद का झंडा बुलंद करना होगा और विध्वंसक राष्ट्रवाद  हर समय अपराधियों, लुटेरों का शरणगाह रहा है, इसके खिलाफ मजबूती से खड़ा होना होगा। आज के समय की यही मांग है ।

आज हजारों किसान, मजदूर और छात्र  इसी मांग और जरूरत के आधार पर एकता और भाईचारे का परचम बुलंद कर रहे हैं। हमें उम्मीद अब लोकतंत्र के लिए संसद के बजाय सड़कों पर चल रहे जन आंदोलनों में  दिख रही है।

आज हमें विध्वंसक नफरती राष्ट्रवाद को खारिज कर जन आंदोलनों से निकले  भारत के वास्तविक राष्ट्रवाद के पक्ष में मजबूती से खड़ा होना है । करोड़ों भारतीय जनगण  इसके लिए  संघर्षरत हैं।

आइए हम भी इस महासंग्राम में अपना योगदान देने के लिए दृढ़ संकल्प लें ।

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