साहित्य की दुनिया में ऐसे भी रचनाकार हैं जिनकी साहित्य साधना जन संघर्ष का हिस्सा होती हैं। वे आत्मप्रचार से दूर रहते हैं। रामेश्वर प्रशान्त ऐसे ही कवि रहे हैं। आज 6 जून उनकी पहली पुण्य तिथि है।
रामेश्वर प्रशान्त काफी अरसे से बीमार थे। पार्किंशन की बीमारी थी। लकवाग्रस्त थे। चलना फिरना बन्द हुआ। चारपाई पकड़ ली। लेटे रहना असह्य हो जाता तो उन्हें सहारे से कुर्सी पर बिठा दिया जाता। यह उनके जैसे कवि व एक्टिविस्ट जो एक दिन के लिए भी घर में न रुकता हो, सामाजिक व सांस्कृतिक कार्य जीवन की प्राथमिकता रही हो, उसके लिए यह जीवन मानसिक प्रताड़ना से कम नहीं था। फिर भी उन्होंने परिस्थितियों के आगे घुटने नहीं टेके। उनके जीवन संघर्ष और सामाजिक प्रतिबद्धता को देखते हुए रूसी लेखक निकोलाई आस्त्रोवस्की के मशहूर उपन्यास ‘अग्निदीक्षा’ के मुख्य पात्र पाॅवेल के चरित्र की याद हो आती है।
रामेश्वर प्रशान्त का जन्म 2 जनवरी 1940 को आज के बेगूसराय जिला, जो पहले मुंगेर जिला का हिस्सा था, के सेमरिया घाट में हुआ। गंगा के कटान की वजह से उनका परिवार गढ़हरा आ गया। उनके पिता रेलवे में कर्मचारी थे। जहां एक तरफ दिनकर जैसे राष्ट्रकवि की यह धरती थी, वहीं चन्द्रशेखर सिंह जैसे जनप्रिय कम्युनिस्ट नेता की कर्मभूमि यह थी। उन्होंने काव्य सृजन 1960 के दशक में शुरू किया। पहली कविता उन्हीं दिनों पटना से निकलने वाले दैनिक ‘आर्यावर्त ’ में छपी।
यह अकविता और अकहानी का दौर था और साहित्य में राजनीति से परहेज की प्रवृति हावी थी, उन दिनों प्रशान्त जी ने लघु पत्रिका ‘द्वाभा’ निकाली जो राजनीति और साहित्य की आभा लिये थी। नक्सलबाड़ी किसान आांदोलन का उनके विचारों व रचनात्मकता पर बड़ा असर था। इसी से उनके मित्रों की दुनिया बनी। उसमें मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, आरसी प्रसाद सिंह, शंकर दयाल सिंह, हंसराज रहबर, शील, डा चन्द्रभूषण तिवारी, राजेन्द्र प्रसाद सिंह, नन्द किशोर नन्दन, रामनिहाल गुंजन, अरुण प्रकाश, नचिकेता, शन्ति सुमन, प्रभात सरसिज, आलोक धन्वा, राणा प्रताप, महेश्वर, खगेन्द्र ठाकुर जैसे अनगिनत लेखक थे, वहीं शत्रुघ्न प्रसाद सिंह, सूर्य नारायाण सिंह, बी के आजाद, रामचन्द्र सिंह फौलादी जैसे वामपंथी नेता थे।
नौजवानों से प्रशान्त जी का व्यवहार साथीपन से भरा था। इसीलिए वे हमारे अत्यन्त प्रिय थे। हम जैसे बहुतों को बनाने में उनकी भूमिका थी। उनकी कोशिश रहती कि नौजवान साहित्य पढ़ने की ओर उन्मुख हों। वे अध्ययनशील बने, समाज को जाने तथा इस व्यवस्था को बदलने के संघर्ष में शामिल हों। यही कारण था कि वे बहुतों की नजर में ‘खतरनाक’ माने जाते थे। उनके ऊपर नौजवानों को ‘बिगाड़ने’ का आरोप भी लगता था। वहीं, हम नौजवानों को लगता कि उनसे हम बहुत कुछ ऐसा सीख रहे हैं। प्रशान्त जी जैसे ‘बिगाड़ने’ वालों की हमेशा जरूरत है क्योंकि इसी रास्ते क्रान्ति व सामाजिक बदलाव के सिपाही तैयार किये जा सकते हैं।
याद आता है कि मुंगेर, जमालपुर, सुल्तानगंज की साहित्य यात्रा उन्हीं के माध्यम से मैंने की। उनकी ही प्रेरणा थी कि 1972 में बलिया से हमने ‘युवालेखन’ पत्रिका निकाली शुरू की। प्रशान्त जी उसके प्रधान संपादक थे। उस अंक का संपादकीय मैंने जरूर लिखा था पर उसे धारदार बनाया था रामेश्वर प्रशान्त ने। ऐसी बहुत सी यादे हैं।
जब बिहार में वामपंथी लेखकों को संगठित करने का काम शुरू हुआ। रामेश्वर प्रशान्त ने इसमें बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। 1973 में बांदा में हुए प्रगतिशील लेखकों के सम्मेलन के बाद सुल्तानगंज, भागलपुर में बिहार राज्य प्रगतिशील लेखक संघ का सम्मेलन हुआ। रामेश्वर प्रशान्त वहां गये। संघ की आफिशियल लाइन से उन्होंने अपना खुलकर मतभेद जाहिर किया। इस प्रश्न पर उनका डा सुरेन्द्र चैधरी, खगेन्द्र ठाकुर आदि से वैचारिक मतभेद हुए।
उनकी समझ थी कि भारत की सत्ता संस्कृति के खिलाफ संघर्ष करके ही जन सांस्कृतिक आंदोलन खड़ा किया जा सकता है। इंदिरा तानाशाही से सहयोग नहीं संघर्ष ही किसी भी साहित्यिक आंदोलन का आधार हो सकता है। यही वैचारिक जमीन थी जहां से एक नये संगठन – नव जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा, बिहार की नींव पड़ी। महेश्वर, राणा प्रताप, अरुण प्रकाश, केशव रत्नम आदि साथियों के साथ लेखकों के क्रान्तिकारी संगठन बनाने के काम में वे जुटे। उनका प्रगतिशील व जनवादी लेखक संगठनो के साथ दोस्ताना रिश्ता था जो हमेशा बना रहा। भले ही उन्हें साहित्य के बड़े सम्मान न मिले हों पर उन्हें अपनी जनता का प्यार और सम्मान अवश्य मिला जैसे दिनकर जनपदीय साहित्य सम्मान, शक्र साहित्य सम्मान, ग्राम सम्मान आदि।
रामेश्वर प्रशान्त का पहला काव्य संकलन पाच दशक की लम्बी काव्य यात्रा तथा 75 की उम्र पार कर जाने के बाद आ पाया, वह भी साहित्यिक मित्रों के प्रयत्न से। यह संग्रह है ‘सदी का सूर्यास्त’। इसके दो खण्ड है। पहले खण्ड में 60 कविताएं हैं, वहीं दूसरे में गीत, गजल और मुक्तक हैं। इसकी भूमिका मुरली मनोहर प्रसाद सिंह और नन्दकिशोर नन्दन ने लिखी। उनकी नजर में सृजन स्वतःस्फूर्त से ज्यादा सचेतन क्रिया है। समाज, समय और जीवन का कोई प्रसंग, घटना या विचार अपने आप में कविता का कारण नहीं बनता। वह जब मन-मस्तिष्क में गहरे उतरता है, भाव व संवेदना की आंच में पकता है तब जाकर वह कविता के रूप में बाहर आता है। ‘मेरी कविता’ में वे कहते हैं: ‘पाक चढ़े धागे की तरह/जब कोई बात पक जाती है/तब कविता जन्म लेती है’।
जब समाज वर्गों में बंटा हो और उनके स्वार्थ आपस में टकरा रहे हों, ऐसे में कवि तटस्थ नहीं रह सकता। उसे अपना पक्ष स्पष्ट करना होता है कि वह किसके साथ खड़ा है और किसके प्रतिपक्ष में। व्यवस्था और राजनीति के चरित्र तथा आम आदमी की दशा-दुर्दशा को रामेश्वर प्रशान्त ने एक रूपक के माध्यम से कुछ यूं व्यक्त किया है जो गौरतलब है: ‘घनघोर जंगल/पशुओं की भीड़ डरावनी/राणा की बेटी/लिए हाथों में रोटी/रोटी वन का बिलाव छीन लेता है/राणा आज बिकता है, राणा आज बिकता है/गांधी के बन्दर हैं बैठे सब देख रहे/आंख मूंदे, कान मूंदे, मुंह मूंदे !’
रामेश्वर प्रशान्त अपनी कविता के माध्यम से जो प्रतिष्ठित करते हैं, वह आलोचनात्मक यथार्थवाद है। वे मौजूदा व्यवस्था की सुसंगत आलोचना विकसित करते हैं। कविता में उनका विश्व दृष्टिकोण सामने आता है। श्रमिक वर्ग के शोषण उत्पीड़न के लिए वे विश्व साम्राज्यवादी व्यवस्था को जिम्मेदार मानते हैं जिसकी लूट की चपेट में न सिर्फ भारत है बल्कि तीसरी दुनिया के तमाम देश हैं। इस व्यवस्था की क्रूरता है कि वह दुनिया के मशहूर कवि पाब्लो नेरुदा की हत्या करने से भी नहीं हिचकता। यह कविता संवाद शैली में है।
कवि आपनी मां से जिस आशंका को जाहिर करता है, वह आज का यथार्थ है जिसमें हम कलबुर्गी, गौरी लंकेश आदि लेखकों व पत्रकारों की हत्या को देख सकते हैं: ‘एक खतरनाक साजिश होने लगी है…./मां, मुझे ऐसा लगता है/कि अपने यहां भी एक दिन /पाब्लो नेरूदा मारा जाएगा/इतिहास एक बार फिर दुहराया जाएगा/और तब मैं तुमसे कहने चला आऊँगा मां/लो, अपना पाब्लो नेरूदा मारा गया न !’
रामेश्वर प्रशान्त के लिए कविता वर्तमान के संघर्ष का औजार है तो वहीं बदलाव की आकांक्षा तथा भविष्य के स्वप्न का पर्याय भी है। उनके यहां राजनीतिक व वैचारिक प्रतिबद्धता कोई जड़ वस्तु नहीं है बल्कि उसमें गहरी मानवीय संवेदनाएं व अनुभूतियां हैं। इसीलिए इनके कोठार में राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था की विद्रूपताओं को उदघाटित करती कविताओं के साथ निजी अनुभवों और मनुष्य की कोमल भावनाओं को व्यक्त करने वाली कविताओं की भी कमी नहीं है। यहां बच्चे, चिड़िया, पेड़, प्रकृति, फूल, प्यार, दर्द और रेशमी यादो से भरी कविताएं भी बड़ी मात्रा में है। प्रेम की उदात्त भावनाएं इस तरह व्यक्त हुई हैं: ‘मेरे भीतर तब एक शीतल नदी बहती थी/वह प्रेम की नदी थी……../और तुम्हारे भीतर जो नदी बहती थी……/प्रेम की पावन नदी थी वह भी…./जब मैं होऊँगा अनन्त सागर में विलीन/तुम्हारी यादों का साया तब भी रहेगा मेरे साथ……’।