समकालीन जनमत
डॉ. बी.पी. शुक्ला
स्मृति

आपातकाल में जब गिरफ़्तार हुए पिता

अनिल शुक्ल 

 

27 जून 1975,पूर्वाह्न। 11-साढ़े 11 बज रहे थे जब पुलिस हमारे घर आ धमकी। लोहामंडी सीओ पुलिस (लोहामंडी), एसएचओ और कोई 2 दर्जन पुलिस वाले। सीओ ने अपना परिचय पापा को दिया। बताया कि वे उन्हें ‘ले जाने’ आये हैं। पापा घर में पहनने वाला कुरता-पायजामा पहने थे। उन्होंने कपडे बदल कर चलने को कहा, सीओ ने सहमति दी और वह भीतर चले गए।

बीते 4 सालों से वह ह्रदय रोगी थे। इधर कई दिनों से वह ज़्यादा बीमार थे और एक दिन पहले हुई आपातकाल की घोषणा से ख़ासे तनावग्रस्त हो गए थे। उन्हें संदेह था कि वह गिरफ्तार कर लिए जायेंगे इसलिए वह आज कल में ही भूमिगत हो जाने की योजना बना रहे थे। मम्मी यद्यपि उनके स्वास्थ्य को देखते हुए उन्हें घर न छोड़ने की सलाह दे रही थीं। मुझे याद है कि बीती रात से वह इसी ‘टू बी और नॉट टू बी’ के उलटफेर में थे कि पुलिस आ धमकी। मैंने भीतर जाकर देखा। कपड़ा बदलते समय उनके चेहरे पर गहरा तनाव उभर आया था । वह बहुत तमतमाए हुए थे। एक दिन पहले ही घर छोड़ कर निकल न जाने का जैसे उन्हें गहरा मलाल हो रहा था। बहरहाल, उन्हें लोहामंडी थाने ले जाया गया, देर शाम उन्हें आगरा की ‘सेंट्रल जेल’ (जहां आज संजय प्लेस है), में स्थानांतरित कर दिया गया। इत्तफ़ाक़ से मैं तभी वहां उनसे मिलने गया था। पुलिस गाड़ी में बैठने से पहले उन्होंने मुझे बताया कि उन्हें ‘मीसा’ में गिरफ्तार किया गया है।

मैंने इंटरमीडिएट का इम्तहान दिया था। अखबार नियमित पढता था और सामाजिक गतिविधियों में शिरक़त करने लगा था इसलिए जानता था कि ‘मीसा’ डिटेंशन का सबसे ख़राब क़ानून है और न इसमें ज़मानत का कोई प्रावधान है और न ही इसे लेकर किसी प्रकार की कोई अदालती कार्रवाई ही की जा सकती है।

मैं बड़े खिन्न मन से घर पहुंचा। पापा मार्क्सवादी-लेनिनवादी राजनीति में लम्बे समय से सक्रिय थे। इसके चलते 5 साल के लंबे भूमिगत जीवन के बाद उनका वारंट समाप्त हुआ था और 2 महीने पहले ही वह घर वापस लौटे थे। हम दोनों बहन-भाई को वह बहुत प्रिय थे। मेरी उनसे ‘दोस्ती’ 3 साल पहले से ही विकसित हो चुकी थी। अपने भूमिगत प्रवास में जब भी वह आगरा लौटते तो सन्देश भेजकर मुझे अपने ठिकानों पर बुलाते और तब हम कई-कई घंटे गपशप करते। जीजी (बहन) उनकी निजता की ‘प्रियतम वस्तु’ थीं और अपनी दुलारी बेटी पर वह जान छिड़कते थे।

जैसा कि मैंने बताया, मैं बड़े अवसाद भरे मन से लौटा। पापा एक दिन पहले ही कह रहे थे कि “इंदिरा गाँधी की इमरजेंसी जल्दी-जल्दा ख़तम होने वाली नहीं।” हमें अंदाज़ा हो चला था कि पापा फिर कई साल के लिए गए। मम्मी को उनके स्वास्थ्य की फ़िक्र हो रही थी। “पता नहीं जेल में उनकी देख-रेख कैसे होगी !” वह बार-बार यही कहतीं। पूछने पर हम दोनों भाई-बहन ने मम्मी से खाने की मना कर दी। 27 जून को दोपहर हमारे घर खाना नहीं बना और न शाम को। हम तीनों प्राणी डिनर में भी पानी पीकर ही लेट गए।

मुझे देर तक नींद नहीं आयी। हाथ में कहानियों की किताब थी। मैं पढ़ने की कोशिश करता रहा। बीच-बीच में पापा स्मृतियों में ‘अप- डाउन’ करते रहे। ‘लू शुन की कहानियां’ , जो किताब मेरे हाथ में थी, वह 1 महीना पहले मेरी सालगिरह पर उन्होंने ही मुझे भेंट की थी। किताब के ओपनिंग पेज पर मेरा नाम लिख कर उनके दस्तख़त थे और एकदम नीचे ‘करेंट बुक डिपो, कानपुर’ की मोहर लगी थी जहाँ से उन्होंने घर वापसी के वक़त इसे मेरे लिए खरीदा था।

दूसरी-तीसरी क्लास से ही पत्रिकाएं और किताबें पढ़ने का शौक उन्हीं की बदौलत पैदा हुआ था। बचपन से वह हम लोगों के लिए ढेर सी किताबें खरीदते। मैं किताबों को चाट जाता, जीजी की रफ़तार धीमी थी। जिस गर्मियों में उन्होंने घर छोड़ा, मैं छठी कक्षा पास कर चुका था । मैं बचपन से ही ऊर्जा से भरा था। वह होते तो घर में काफी कुछ करने को बना रहता। हम दोनों की पढ़ाई लिखाई की भी वह जांच करते रहते। उनके चले जाने के बाद मैं ऊलजलूल शरारतों में शामिल होने लगा। स्कूल से खासी शिकायतें आतीं। मां चाहकर भी मुझे नियंत्रित नहीं कर पातीं। जब कभी वह पापा से मिलतीं, मेरे ‘लगातार बिगड़ते जाने’ की उनसे शिक़ायतें करतीं। वह मुझे भी बुलाते, ख़ूब गप्पें होतीं। वह अच्छे ‘कुक’ भी थे लिहाज़ा मेरे लिए बढ़िया सी दाल, सब्ज़ी और रोटी बना डालते। हम दोनों का वह समय अच्छा गुज़रता।

वह लेकिन मुझसे कभी न तो मम्मी की शिक़ायतों का हवाला देते और न ‘सुधर जाने’ का कोई भाषण। (मम्मी की शिक़ायतों और दूसरी बातों की बाबत मुझे बहुत बड़ा हो जाने पर पता चला।) अलबत्ता वह मुझसे ढेर सारी बातें करते। वह भारत और दुनिया की बहुत सी महत्वपूर्ण घटनाओं के बारे में बताते, वह बहुत से महत्वपूर्ण लोगों के बारे में बात करते। वह मुझसे क्रिकेट-फुटबॉल की बाते करते, वह अकसर ज्ञान-विज्ञान की बातें करते। सच में मुझे उतनी देर का उनका साथ बहुत भाता। मैं मन ही मन उन दोस्तों से ख़ुद को ‘सुपीरियर’ मानने लगता था जो अपने पिता से डरते या झेंपते थे।

हां तमाम शैतानियों के बीच मेरी पढ़ने की आदत नहीं गयी। हमारे घर के बगल में शिवहरों का श्रीकृष्ण का मंदिर था। इस मंदिर में बड़ी मस्त लाइब्रेरी थी। पचास नए पैसे महीने का भुगतान करके मैं ज़्यादातर समय उसका मेंबर बना रहता और वहां से जम कर नॉवेल इश्यू करवाता रहता। मेरे सर्वप्रिय लेखक गुलशन नंदा, कर्नल रंजीत और ‘जासूसी दुनिया’ के इब्ने सफ़ी थे। गुलशन नंदा उस ज़माने के रोमांटिक बेस्ट सेलर थे। जीजी की निगाहों में उतनी कम उम्र में इश्क़-आशिक़ी के उपन्यास पढ़ना ‘खतरनाक’ काम था। वह बड़ी ‘चुग़लख़ोर’ थीं। मेरे बात फ़ौरन मम्मी से जाकर पो देतीं थीं। उन्होंने मम्मी के कान में फ़ुसफ़ुसाया “मम्मी मुन्ना बड़े गंदे-सन्दे उपन्यास पढता है। बहुत बाद में मुझे पता चला कि मम्मी ने जब पापा से इन ‘गंदे संदे’ उपन्यासों का ज़िक्र किया तो वह मुस्करा कर बोले “शुक्र मनाओ, कम से कम पढता तो है। जब बड़ा होगा, अगर सही माहौल मिला तो अच्छी किताबें पढ़ने लगेगा।” ठीक यही हुआ! दसवीं क्लास तक आते-आते मेरे पढ़ने के शौक़ में गुलशन नंदा ‘आउट’ हो गए और प्रेमचंद ‘इन’ कर गए।

मम्मी और जीजी बाहर आंगन में सो गए थे। मुझे कब नींद आई याद नहीं लेकिन इतना याद है कि सुबह जब जागा तो पड़ौस के भरोसीलाल चाचा घर में आकर मम्मी से बात कर रहे थे। वह ‘हार्डवेयर’ के व्यवसायी थे, लोहामंडी के मेन लोहा बाज़ार में उनकी दुकान थी। वह पुराने ‘जनसंघी’ थे लेकिन पापा और मम्मी दोनों से बड़ा प्रेम और सम्मान मानते थे। वह बाजार से जलेबी और बेड़ई लेते हुए आये थे। वह बड़े हंसमुख थे और उनके आने का नतीजा यह हुआ कि बीते दिन से घर में छाया तनाव कुछ कम हुआ।

यह 29 जून की शाम थी। मुझे सुबह से तेज़ बुखार था। मैं लेटा था, मम्मी और जीजी वहीं बैठे शाम की चाय पी रहे थे। कोई 5 बजे का वक़्त था जब किसी ने दरवाज़ा खटखटाया। दरवाज़ा जीजी ने खोला। पुलिस का सिपाही था। उसने पूछा “डॉक्टर बीपी शुक्ला साब का मकान यही है?” जीजी के हां कहने पर उसने उनका परिचय पूछा और फिर कहा “डॉक्टर साहब बहुत बीमार हैं, एसएन की एमरजेंसी में लाये गए हैं। जीजी ने चीख़ कर मम्मी को आवाज़ लगायी। मम्मी ने तफ़सील से उनका हाल पूछा। पुलिस वाले ने कहा “कुछ हार्ट की प्रॉब्लम है। आपको फौरन बुलाया है।” हम सभी एकदम से घबड़ा गए। मम्मी जल्दी-जल्दी कपडे बदल कर रिक्शा पकड़ कर एसएन० हॉस्पिटल की इमरजेंसी को भागीं। मेरी देखभाल का ज़िम्मा वह जीजी को दे गयीं।

मम्मी कोई ढाई-तीन घंटे बाद वापस लौटीं। उनके चेहरे पर गहरा तनाव था। उनकी दशा देख कर हम लोग घबड़ा गए। जीजी ने उन्हें गिलास में पानी दिया। जब पानी-वानी पी कर कुछ स्थिर हुईं तो जीजी ने पूछा “पापा कैसे हैं?” कुछ क्षण वह जीजी की तरफ देखती रहीं। “ज़्यादा घबड़ाने जैसी कोई बीमारी नहीं है पर…….।” वह कुछ देर को रुकीं। “……पापा कह रहे हैं कि तबियत तो गड़बड़ रहती है ही लेकिन फ़िलहाल वह बीमारी का बहाना करके हॉस्पिटल आये हैं।”

‘बीमारी का बहाना ?’ अब चौंकने की बारी हम दोनों की थी।

“”वह कह रहे हैं कि इस इमरजेंसी का कोई भरोसा नहीं। मैं जेल में अपना टाइम बर्बाद नहीं करूँगा। हॉस्पिटल से ही फ़रार हो जाऊंगा।”

“तब आप क्यों इतनी परेशान हैं?” मैंने पूछा।

“मैंने उनसे कहा कि इमरजेंसी है, पकडे गए तो गोली मार देंगे। बोले जेल में सड़ने से मर जाना बेहतर है।”
“अरे वह किसी की पकड़ में नहीं आएंगे, आप चिंता मत कीजिये।” मैंने कहा। मेरी निगाह में मेरे पापा किसी रॉबिनहुड से कम नहीं थे। बुख़ार की ग़फ़लत की वजह से मुझे सारी रात ठीक से नींद नहीं आई। जितनी बार मैं जागा, मम्मी को जागे हुए देखा। मैं समझ रहा था, मेरे बुख़ार और पापा की फ़िक़्र ने उनकी नींद हर ली थी।

भोर अभी ठीक से हुई भी नहीं थी। भिनसार की बेला थी जब मैंने उनींदेपन में दरवाज़े को ज़ोर से खटखटाए जाते सुना। मम्मी दरवाज़े की तरफ बढ़ रही थीं। जीजी भी जाग गई थीं। मम्मी ने दरवाज़ा खोला। कोई पुलिस वाला था। पूछ रहा था कि ‘डॉक्टर साब आये हैं ?’ मम्मी उसे कूटनीतिक फटकार लगा रही थीं कि ‘वो तो अस्पताल में भर्ती थे। तुम लोगों ने उन्हें कहाँ ग़ायब कर दिया।’ बाहर के दरवाज़े से मेरा बिस्तर सीधे दिखाई पड़ता था। अबोध सिपाही उचक-उचक कर देख रहा था। “भीतर कौन लेटा है?” आखिकार उसने पूछ ही लिया। मम्मी ने बिगड़ कर कहा कि उनका बेटा है, बुखार में पड़ा है।

क़रीब 8 बजे से हमारे यहाँ पुलिस अधिकारियों का तांता लग गया। ये दौड़ धूप दोपहर तक जारी रही। मुझे ‘हाई फ़ीवर’ में देख कर बख्श दिया गया लेकिन मम्मी और जीजी से सवालों की झड़ी लगी रही। मम्मी काफी आक्रामक थीं। वह उल्टा उन्हीं लोगों पर अपने पति को लापता कर दिए जाने का आरोप लगा रही थीं !

हॉस्पिटल में उनके ऊपर 2 सब इंस्पेक्टर और 3 कांस्टेबल तैनात थे। हुआ यूं कि रात होने पर दोनों सब इंस्पेक्टर तो सोने के लिए अपने-अपने घर चले गए। जिस तरह पापा की तबियत गड़बड़ थी, हार्ट मॉनिटर से लेकर दूसरी तमाम मशीनों में वह लिपटे हुए थे, कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था, कि वह यहाँ से फ़रार भी हो सकते हैं। आषाढ़ का शानदार महीना था। रिमझिम वर्षा हो रही थी और ठंडी हवा चल रही थी। तीनों कांस्टेबल वार्ड से निकल कर बाहर बरामदे में चैन की नींद सो गए। बाद में पापा ने बताया था कि पौने चार बजे वह उठे। उन्होंने आसपास का मुआयना किया। आसपास के बेड के सभी मरीज़ और उनके तीमारदार सो रहे थे। पीछे जाकर बरामदे में गहरी नींद सोते पुलिसकर्मियों को देखा। वापस अपने बेड पर आये।

‘क्या यही सही टाइम है?’ उन्होंने ख़ुद से पूछा। अंगोछा उठाकर कंधे पर रखा। टहलते हुए वह ‘इमरजेंसी वॉर्ड’ के मुख्य द्वार तक गए। एक बार वह फिर अपने बेड तक लौटे। वहाँ बैठ कर एक-डेड़ मिनट सोचते रहे। वह ‘हंड्रेड परसेंट श्योर’ हो जाना चाहते थे। सब कुछ संतोषजनक था। उन्होंने चश्मा उठाकर कुर्ते की जेब में रखा। दोबारा मुख्य द्वार तक आये। सड़क पर निकले। कई रिक्शे खड़े थे, रिक्शेवाले उसमें बैठे-लेटे ऊँघ रहे थे। एक रिक्शे वाले को उन्होंने जगाया। गंतव्य का तय किया और 20 मिनट बाद वह हॉस्पिटल से 3 किमी दूर अपने एक ‘सिम्पेथाइज़र’ के घर पहुंच चुके थे। उन्होंने उसे जगाया। ‘पल्ली पार’ फाउंड्री में कारीगर यह नौजवान पहले तो इतने तड़के उन्हें इस दशा में देखकर चौंका। एक दिन पहले ही ‘अमर उजाला’ में उसने उनकी गिरफ्तारी की सूचना पढ़ी थी। उसने पापा के मुंह से उनके अस्पताल पहुँचने और वहां से फ़रार हो जाने की पूरी कहानी सुनी और सुनकर खुश हो गया.

उसने स्टोव जलाया और उनके लिए चाय तैयार करने लगा। अब पापा सुरक्षित और सकुशल थे। एक हफ्ता उन्होंने यहीं गुज़ारा। फिर वह अपने दूसरे ठिकाने पर चले गए।

आपातकाल था जिसमें लोकतंत्र को कुचल डालने के नाम पर सर्वत्र ‘अनुशासन पर्व’ मनाया जा रहा था। पाँचों पुलिस वालों को ‘लापरवाही’ बरतने के जुर्म में निलंबित करके जेल भेज दिया गया।

तीसरे दिन पापा के अपने आश्रय स्थल पर सकुशल होने का सन्देश मम्मी को मिला। वह तब तक आगरा शहर में ही थे। तीसरे दिन ही हमारे घर पर पुलिस ने एक हफ्ते में पेश होने अन्यथा घर का सारा सामान कुर्क होने का नोटिस चिपका दिया। घर के बाहर पुलिस का सख़्त पहरा बैठा दिया गया ताकि कोई सामान हटाया न जा सके। हफ़्ते भर बाद बाद सुबह-सवेरे ही घर पर पुलिस आ धमकी। दो ट्रक में सारा सामान भरते-भरते दोपहर हो गयी।

शाम को हमारा ख़ाली घर सांय-सांय कर रहा था। कपडे-लत्ते, चूल्हा-चक्की, उन्होंने कुछ भी नहीं छोड़ा था। पुलिस के जाने के बाद अड़ोस-पड़ोस के लोग आये और खाना-पीने का सामान लाये। धीरे-धीरे कुछ ज़रूरी सामान का इंतज़ाम किया गया।

पापा कोई महीना भर आगरा में ही रहे। उन्हें सूचना थी कि रेलवे स्टेशन, बस अड्डा और शहर के सभी नाकाओं पर, पुलिस की गहरी पड़ताल है इसलिए इतने दिन वह आगरा के अपने ‘हाइड आउट’ में ही बने रहे। आपातकाल में पुलिस हिरासत से फ़रार होने की यह पहली घटना थी। कई महीने बाद कम्युनिस्ट क्रांतिकारी नेता चन्द्रपुल्ला रेड्डी आंध्र में ऐसे ही गिरफ्तार होने के बाद अस्पताल से पुलिस हिरासत से फ़रार हुए थे। काफी समय बाद जब पापा की उनसे मुलाक़ात हुई तो उन्होंने बताया कि हॉस्पिटल आकर भाग जाने का आइडिया अखबार में पापा की खबर पढ़ कर ही उन्हें सूझा था।

वो महीने सचमुच हम लोगों के लिए बड़े कठोर और निर्मम थे लेकिन जितनी मुश्क़िलें आती गयीं, उन्हें आसान बनाने वाले प्रकट होते गए। आपातकाल के प्रति हर इंसान में नफ़रत का अंश बढ़ता जा रहा था। ऐसे लोग हमारी मदद को आते रहे। देशभर में ऐसे ही लोगों ने एकजुट होकर 21 महीने बाद लोकतंत्र विरोधी निजाम को धराशायी कर दिया।

आपातकाल ख़त्म होने के बाद उनकी घर वापसी हुई। उनके घर लौटने की ख़बर अख़बार में छपी। बहुत से लोग उनसे मिलने आए। मिलने वालों में वे 5 पुलिस वाले भी शामिल थे जो अभी भी निलंबित चल रहे थे। उनकी बुरी दशा देखकर पापा बड़े विचलित हुए। उन्होंने उन्हें गुरुदत्त सोलंकी के नाम चिट्ठी देकर लखनऊ रवाना किया। गुरुदत्त जी 1930 के दशक की उनकी छात्र राजनीति के दौर के मित्र थे। उनके श्वसुर चौधरी चरण सिंह हाल ही में देश के गृहमंत्री नियुक्त हुए थे।

कोई दो हफ़्ते बाद पुलिस वाले मिठाई का डिब्बा लेकर हमारे घर आये। पापा के लिए यह इस स्टोरी का ‘हैप्पी एंडिंग’ था।

 

( अनिल शुक्ल: पत्रकारिता की लंबी पारी। ‘आनंदबाज़ार पत्रिका’ समूह, ‘संडे मेल’ ‘अमर उजाला’ आदि के साथ संबद्धता। इन दिनों स्वतंत्र पत्रकारिता साथ ही संस्कृति के क्षेत्र में आगरा की 4 सौ साल पुरानी लोक नाट्य परंपरा ‘भगत’ के पुनरुद्धार के लिए सक्रिय)

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