समकालीन जनमत
शख्सियत

प्रेमचंद और किसान संकट : गोपाल प्रधान

(31 जुलाई को प्रेमचंद की 140वीं जयंती के अवसर पर समकालीन जनमत जश्न-ए-प्रेमचंद का आयोजन कर रहा है। इस अवसर पर 30-31 जुलाई को समकालीन जनमत लेखों, ऑडियो-वीडियो, पोस्टर आदि की शृंखला प्रकाशित कर रहा है। इसी कड़ी में प्रस्तुत है अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में हिंदी के प्राध्यापक और आलोचक गोपाल प्रधान का यह लेख: सं।)

(समकालीन जनमत के फ़ेसबुक लाइव में इस विषय पर बात कर रहा था तो शहरों से प्रवासी मजदूरों के लौटने की तस्वीरें दिमाग में छाई थीं । इसे उतारा है फैज़ान  ने। बोलचाल के लहजे को बहुत छेड़े बगैर संपादन किया गया है।)
हमें आज प्रेमचन्द और किसान संकट के बारे में बात करनी है। इस सिलसिले में ध्यान देने की बात है कि प्रेमचन्द के जन्म को 140 साल पूरे हो गए। 140 साल पूरे होने पर भी उस लेखक ने जो समस्यायें उठाई थीं उनपर हमको बातचीत करने की ज़रूरत पड़ रही है, इससे ज़्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात और कुछ नहीं है । अच्छा तो यही होता कि उन्होंने जिन समस्याओं को उठाया था वो समस्याएं ही समाप्त हो गई होतीं तो हमको प्रेमचन्द पर बात करने की ज़रूरत नहीं पड़ती। लेकिन चूँकि उन्होंने जो समस्याएं उठाई थीं वे समस्याएं अब भी भारतीय जीवन में बनी हुई हैं, इसलिए आज भी हमको प्रेमचन्द के बहाने किसान संकट पर बात करनी पड़ रही है ।
सवाल है कि प्रेमचन्द ने किसान जीवन का जो चित्रण किया है क्या कारण है कि उसकी प्रासंगिकता अब तक बनी हुई है। उसका बड़ा कारण यह है कि प्रेमचन्द ने किसान जीवन का चित्रण इसलिए नहीं किया है कि उनको किसानों से कोई दिखावटी सहानुभूति थी, बल्कि उन्होंने एक विशेष समय में भारतीय कृषि में हो रहे बदलाव को ध्यान में रखते हुए किसानों के बारे में बात की थी। वह विशेष समय क्या था, उसके बारे में हमें जानने की ज़रूरत है। हम जानते हैं कि प्रेमचन्द का जन्म 1880 में हुआ और 1936 तक वे जीवित रहे। यह वह समय है जब दुनिया में प्रथम विश्वयुद्ध से लेकर द्वितीय विश्व युद्ध का उत्तेजक माहौल बना हुआ था, उसके बीच का यह समय है। और उसी अवधि में महामंदी का भी दौर आता है। यही वह दौर था जिसमें प्रेमचन्द सक्रिय थे और लिख रहे थे। इस समय की सबसे बड़ी विशेषता है उपनिवेशवाद। हम जानते हैं कि भाजपा के लोग, जब भी उपनिवेशवाद की बात होती है तो कहते हैं- हज़ार साल की ग़ुलामी। ऐसा कहकर वे इस बात को नकारना चाहते हैं कि भारत की आज़ादी मूलतः उपनिवेशवाद से संघर्ष करके प्राप्त हुई है। इस तथ्य को वे इसलिए नकारना चाहते हैं क्योंकि उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में उनका योगदान शून्य रहा है। जब आप हज़ार साल की ग़ुलामी कहते हैं तो ऐसा कहकर उपनिवेशवाद के इतिहास को ही समाप्त कर देना चाहते हैं और इसको समाप्त करने का एक खास कारण है ।

असली बात यह है कि साम्राज्यवाद एक ऐसी चीज़ है जो पूँजीवाद के आगमन के साथ ही जुड़ी हुई थी। पूँजीवाद के अन्तर्गत पूंजी को जब अपने देश में मुनाफा नहीं प्राप्त होता है तो मुनाफ़े के लिए पूरी दुनिया में अपना बाज़ार फैलाना पड़ता है। इसी प्रक्रिया की उपज था उपनिवेशवाद। उसकी निरन्तरता आज तक बनी हुई है। हम जानते हैं कि साम्राज्यवाद का नया केन्द्र बनकर अमरीका उभरा है। अब उपनिवेशवाद की यह जो निरन्तरता है इससे इनकार भाजपा के लोग इसलिए करते हैं, क्योंकि फिलहाल वे आज के साम्राज्यवादी आक़ा अमरीका के शरण में हैं। सबको खबर है कि इस महामारी के दौर में भी उन्होंने तमाम हिदायतों को दरकिनार करते हुए अमरीकी राष्ट्रपति को बुलाकर एक लाख लोगों का कार्यक्रम करवाया था। चूँकि उन्होंने उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष में कोई भूमिका नहीं निभाई थी, और आज भी उपनिवेशवाद की वे चाकरी करते हैं, इसीलिए वे चाहते हैं कि भारतीय जनता की स्मृति से उपनिवेशवाद विरोधी संघर्ष समाप्त हो जाये। प्रेमचन्द को जब हम याद कर रहे हैं तो यह बात ध्यान में रखने की ज़रूरत है ।
रणधीर सिंह एक बात कहा करते थे। जब वैश्वीकरण का दौर शुरू हुआ तो बहुत से लोग उसे वैश्वीकरण कहते थे। इसी मसले पर उन्होंने कहा कि हम पहली बार ग्लोबलाइज़ नहीं हो रहे हैं, बल्कि इससे पहले भी ग्लोबलाइज़ हो चुके हैं, जब कोलोनी बनाकर हमारे देश के अर्थतन्त्र को विश्व अर्थतन्त्र के साथ जोड़ा गया था। भारत को जो विश्व अर्थतन्त्र के साथ जोड़ा गया था उसी को हम उपनिवेशवाद कहते हैं। इससे पहले दूसरे देशों से आये लोगों ने जो शासन किया और यह जो अंग्रेज़ों का शासन था इसमें बुनियादी फर्क यह है कि अंग्रेजों की जो उपनिवेशवादी व्यवस्था थी, उसमें भारत के अर्थतन्त्र को इस तरह से पुर्नगठित किया गया कि उससे होने वाले लाभ से भारतीय लोगों को कोई भी फायदा न पहुँचने पाये, बल्कि उसका लाभ जो औपनिवेशिक प्रभु हैं उनके अर्थतन्त्र के अनुकूल हो।

अभी हाल में प्रभात पटनायक और उत्सा पटनायक ने एक पुस्तक लिखी है- थ्योरी आफ इम्पीरियलिज़्म। उसमें उन्होंने इस बात को रखा है कि पूँजीवाद के मूल में ही अपने फायदे के लिए एक तरह का एम्पायर पूरी दुनिया में फैलाने का तत्व होता है। इसी उद्देश्य के तहत उन्होंने भारतीय कृषि का पुनर्गठन किया था। कारण यह था कि उनके यहाँ जिन चीज़ों की ज़रूरत थी, वे चीज़ें दूसरे देशों में प्राप्त होती थी। इसलिए उन्होंने उपनिवेशित देशों की कृषि का पुनर्गठन किया था। हमारे देश की कृषि का अंग्रेज़ी जमाने में यह जो पुनर्गठन हुआ उसने भारतीय खेती और किसानों की जो हालत कर दी थी, उस हालत को प्रेमचन्द ने अपनी रचनाओं के ज़रिये व्यक्त किया है। इसलिए प्रेमचन्द पर बात करना एक तरह से किसान संकट के बारे में भी बात करना है।
उस समय यह किसान संकट इसलिए आया था कि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार की ज़रूरत के हिसाब से भारतीय कृषि का पुनर्गठन किया जा रहा था। इसमें भारतीयों का सबसे बड़ा नुकसान यह था कि वे अपने यहाँ उपजायी गई चीज़ों का उपभोग खुद ही नहीं कर सकते थे, वह उपभोग अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार के लोग करते थे। हम सब जानते हैं कि अफीम के व्यापार का बाज़ार चीन था। उसके लिये भारत की अन्न पैदा करने वाली ज़मीन पर अफीम की खेती जबरिया करायी गई। भारतीय कृषि के साथ उपनिवेशिक जरूरतों के तहत जो प्रयोग किये गये थे उन्होंने भारतीय किसानों की अवस्था बहुत ही खराब कर दी। इसकी वजह से भारतीय किसान की जो दुर्दशा हुई उसका चित्रण प्रेमचन्द की रचनाओं में मिलता है।


उपनिवेशवादी शासन ने भारत की खेती के लिए एक नये तरह की समाज-व्यवस्था निर्मित की। उस समाज व्यवस्था को हम लोकप्रिय ढंग से ज़मींदारी के नाम से जानते हैं। इस्तमरारी बंदोबस्त के ज़रिये किसान और केन्द्रीय शासन के बीच जमींदार जैसी एक चीज़ पैदा हुई। ज़मींदार उपनिवेशवादी प्रभुओं के लिए भारतीय किसानों से निरन्तर उगाही की गारंटी करता था। प्रेमचन्द अपने साहित्य में किसानों के बारे में बात करते हुए, दोनों ही मोर्चों, साम्राज्यवाद-विरोध और सामन्तवाद-विरोध पर लड़ते रहे।
हमको याद आ रहा है, पिछले दिनों मंगलेश जी ने बातचीत में कहा कि अरसा हो गया, भारत के अखबारों के मुखपृष्ठ पर कभी किसी कामगार की कोई तस्वीर नहीं छपी। जो वर्तमान हालात हैं, हम देख रहे हैं कि इतने लोग परेशान हैं, भाग रहे हैं, गाँव की ओर जा रहे हैं, उनके पाँव में छाले पड़े हुए हैं, ट्रक पलट जा रहे हैं, मर जा रहे हैं लोग, लेकिन उनकी कोई चर्चा मीडिया में नहीं दिखायी पड़ रही है। यह काम सदा से होता आ रहा है जो उत्पादक समुदाय है उसे बौद्धिक चेतना से बाहर रखने की कोशिश हमेशा होती आयी है। इसीलिए प्रेमचन्द ने न सिर्फ साहित्य के केंद्र में लगातार किसानों को रखा बल्कि उन्होंने इसका साहित्यशास्त्र विकसित किया । उन्होंने कहा कि उन्हें साहित्य की सर्वोत्तम परिभाषा जो पसन्द है वह यही कि साहित्य जीवन की आलोचना है। अर्थात् जो वस्तुस्थिति है उसको बदलने के लिए आलोचना। ऐसा चित्रण जो वस्तुस्थिति को बदलने की ओर ले जाये। ऐसा चित्रण करना ही जीवन की आलोचना है जो प्रेमचन्द अपने साहित्य के ज़रिये करना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने अपना कार्यभार बनाया था कि जो साहित्य वह लिखेंगे वह मौजूदा परिस्थिति की आलोचना के रूप में प्रस्तुत होगा। उन्होंने उपनिवेशवाद की आलोचना इसी लिहाज़ से की कि भारतीय कृषि का तत्कालीन औपनिवेशिक दोहन पाठकों की समझ में आये। यह बात स्पष्ट हो कि इंग्लैण्ड में जो औद्योगिक क्रान्ति हुई थी उसका ईंधन भारतीय बाज़ार से गया था।

उपनिवेशवादी शासन ने भारत को जिस तरह से नष्ट विनष्ट किया उसके कारण भारत के दस्तकार शहरों की आबादी कम हुई थी। बहुत लोगों ने इस बात पर ध्यान दिया है कि नगरों से लोगों का भागना, शहरों की आबादी का कम होना, यह सब भारत में इस समय पहली बार नहीं हो रहा है बल्कि यही चीज़ उपनिवेशवाद के दौर में हुई थी जब ढाका की आबादी कम हो गयी थी, जब बहुत सारे ऐसे नगर जहाँ पर खास तौर पर भारत का अपना औद्योगिक उत्पादन हुआ करता उनकी आबादी बुरी तरह से कम हुई और कामगार गाँवों की तरफ वापस गये। गाँव में किसानों का शोषण केवल और केवल औपनिवेशिक प्रभुओं के ज़रिये सीधे नहीं हो रहा था, बल्कि उन्होंने समाज को नियंत्रित करने के लिये जो नई संस्थाएं बनाई थीं, उनके सहारे भी होता था। इस सिलसिले में हम सब जानते हैं कि 1857 के विद्रोह के बाद ही वह व्यवस्था, वह राजतन्त्र, वह पूरा का पूरा शासन का ढाँचा बनाया गया जिसकी निरन्तरता भारत में अब भी बनी हुई है। पुलिस एक्ट उसी समय का है, जेल मैन्युअल उसी समय का है, आर्म्स एक्ट उसी समय का है। ये सारी संस्थाएं भारत को नियंत्रित करने के लिए बनाई गयी थीं। एक तरह से कह लीजिए कि अंग्रेज ये नई संस्थाएं, नये कानून, नई तरह की चीज़ें ले कर आये। जब आप गोदान को पढ़ेंगे तो देखेंगे कि जब पुलिस गाँव में आती है तो कुछ लिये बिना नहीं जाती। भारत में हमेशा से पुलिस की यही स्थिति थी। लाल पगड़ी एक मुहावरा बन गया कि लाल पगड़ी दिखायी पड़ गयी तो खैर नहीं। कहने का मतलब कि जो नया तंत्र विकसित हो रहा था अंग्रेज़ों के ज़रिये, वह भारतीय किसानों की स्थिति को बहुत बुरी हालत में पहुँचा रहा था, उनके लिए मुक्ति का कोई रास्ता नहीं था। ये जो नई संस्थाएं थीं शासन की वे भी भारतीय जनता को मुक्ति नहीं प्रदान कर रही थीं और पुरानी संस्थाओं को यह बल प्रदान कर रही थीं।

आप देखते हैं कि गाँव का बड़ा ज़मींदार, जो ऊँची जात का है, थाने का दरोगा आयेगा तो उसी के यहाँ बैठेगा। जो नई व्यवस्था है वह पुरानी व्यवस्था को नवीनता प्रदान कर रही है। यह उपनिवेशवाद की विशेषता थी जो न केवल ऐसी नई संस्थाएं लेकर आया जो उत्पीड़नकारी थीं बल्कि दमन की पुरानी मशीनरी को इन नई संस्थाओं ने नया जीवन भी दिया क्योंकि भारतीय किसानों का शोषण अंतर्राष्ट्रीय पूँजी के लिये किया जाना था। आज भी भारतीय कृषि का जो पुनर्गठन होना है वह इसीलिये होना है। तमाम तरह के नये नये कानून बन रहे हैं, खेती में सट्टाबाज़ारी शुरू हो रही है। यह इसीलिए ताकि अंतर्राष्ट्रीय पूँजी के नियन्त्रण में उसे लाया जा सके । यह प्रक्रिया अंग्रेज़ों के साथ शुरू हुई थी और उसके हिसाब से भारतीय समाज को गठित किया गया था, उसे नियंत्रण में लाने की कोशिश की गई थी ताकि यह साम्राज्यवादी शोषण लगातार चलता रहे। और इसके लिए नई संस्थाएं तो बनीं ही, पुरानी संस्थाओं को और भी बल प्रदान किया गया था। इसीलिए प्रेमचन्द के लेखन में जब आप किसानों की हालत को देखते हैं तो उन्हें केवल पुरानी संस्थाओं, उदाहरण के लिए जातिवाद इत्यादि, से ही पीड़ित नहीं देखते हैं, बल्कि इन संस्थाओं को मदद देने वाली नई संस्थाओं को भी देखते हैं।

सूदखोरी एक पुरानी संस्था थी जिससे लगभग समस्त भारतीय किसान पीड़ित था। किसान ही क्यों कहा जाए, आज भी यह सही बात है कि सांस्थानिक कर्जों से ज़्यादा अनौपचारिक कर्जा है और वह कर्ज़ बड़े पैमाने पर बड़ी ऊँची दर पर ब्याज के जरिये दिया जाता है। उस ज़माने में किसानों को दिया जाता था और आज भी वह व्यवस्था क़ायम है। कहीं भी आप समाज में जायेंगे तो देखियेगा चाहे विवाह होना हो चाहे कोई अन्य कार्य, उसके साथ गैर सांस्थानिक कर्ज का तंत्र जुड़ा मिलेगा। अभी लाकडाउन के समय जो लोग वापस लौट रहे हैं वे लोग महाजनों से कर्ज़ लेकर ऊँची दरों पर बसों के लिए, ट्रेनों के लिए टिकट कटा रहे हैं। अपना पैसा खत्म हो गया तो फिर से कर्ज के चंगुल में फंसने के लिए वापस जा रहे हैं। यही व्यवस्था थी प्रेमचन्द के समय में और आज भी नए सिरे से बनने जा रही है। मसलन यह बात शुरू हो रही है कि बैंकों का निजीकरण हो रहा है। सब निजीकरण की ओर जा रहे हैं । निजी बैंकों को लाया जा रहा है। रेलवे का भी निजीकरण हो रहा है। इससे आप पुरानी सूदखोरी व्यवस्था में ही वापस जायेंगे।


बहुत लोगों ने कहा कि अगर वर्तमान शासन किसानों का भला ही करना चाहता है तो गन्ना मिलों पर किसानों का जो बकाया है वही लौटा दे। सभी जानते हैं कि आज भी गन्ना मिलें किसानों का बड़े पैमाने पर बकाया रखे हुए हैं। गोदान में हम देखते हैं कि खन्ना साहब मिल के मालिक हैं और वे केवल मिल के मालिक नहीं है बल्कि बैंकर भी हैं । इससे साफ है कि जो आधुनिक बैंकिंग व्यवस्था सरकारी नियन्त्रण में लायी गई थी, अब उसको खत्म करके जिस तरह से उसका निजीकरण करने की कोशिश हो रही है उससे सूदखोरी वाले नये बैंकों का उदय होगा।

कृषि के सम्बन्ध में जो लोग थोड़ा बहुत भी ज़मीन पर काम करते हैं, वे जानते हैं कि जहाँ कहीं कृषि का थोड़ा बहुत भी व्यावसायिक सम्बन्ध हुआ है, खासकर इन चीनी मिलों से, वहाँ पर बड़े पैमाने पर निजी सूदखोरी व्यवस्था आज भी कायम है। आज भी ऐसा है कि किसान को अगर विवाह करना है तो वह सूदखोरों के यहाँ जाता है। महाराष्ट्र में इस बात पर बहुत सारे अध्ययन हुए हैं कि बीज और कीटनाशक दुकान के जो मालिकान है, वही सूदखोरी भी करते हैं। कहने का मतलब वे कर्ज़ पर बीज और कीटनाशक देते हैं किसान को और उसमें शर्त शामिल होती है कि जब किसान की फसल तैयार होगी तो उन्हीं के ज़रिये उस फसल को बेचा जायेगा। यही व्यवस्था भ्रूण रूप में पैदा हुई थी जब उसे प्रेमचन्द ने देखा था और उसका चित्रण किया था। प्रेमचन्द का जो किसान चित्रण है वह केवल किसान के साथ कोई नाटकीय सहानुभूति या परोपकार के चलते नहीं है, बल्कि विश्व अर्थव्यवस्था में शासकों की जरूरत के मुताबिक भारतीय कृषि का जो पुनर्गठन किया जा रहा था, उसके मद्देनज़र वे उसका चित्रण कर रहे थे।

वह उपनिवेशवाद, वह साम्राज्यवाद, वह एक विश्व अर्थतन्त्र का केन्द्रीय ढाँचा है जिसके हिसाब से उपनिवेशों को और कुछ नहीं बल्कि एक तरह से कच्चे माल की सप्लाई करनी है और पक्का माल वापस खरीदना है। और यह विस्तारित होता जा रहा है, निरन्तर नई नई चीज़े उसमें शामिल होती जा रही है, उसमें मोबाइल, डिजिटल पेमेंट, और डिजिटलाइजेशन है। इन सबके तार कहीं न कहीं आधुनिक साम्राज्यवाद के साथ जुड़े हुए हैं और उसके साथ भारतीय कृषक आबादी को निरन्तर फिर से साम्राज्यवादी चंगुल में वापस लाने के लिए नया शासन कोशिश कर रहा है। प्रेमचन्द ने किसान संकट को उस समय ही पहचाना था और मंगलेश जी की जिस बात की अभी चर्चा कर रहा था कि किसी अख़बार के मुखपृष्ठ पर उन्हें किसी कामगार की कोई तस्वीर बहुत दिनों से नहीं दिखाई पड़ी है, उनमें निरंतरता है। अभी कामगारों के साथ जो कुछ हो रहा है वह भी मीडिया में कहीं मौजूद नहीं है । प्रेमचन्द न सिर्फ लेखन में किसान संकट को ले आये बल्कि उससे आगे बढ़कर एक अन्य बात ध्यान देने योग्य है। प्रेमचन्द एक ज़माने में बम्बई गये थे, कुछ पैसे कमाने के लिए ताकि ‘जागरण’ और ‘हंस’ की लगातार छपाई जारी रख सकें। जब वह फिल्मों में गए थे तो वह भी एक अद्भुत कहानी है जिसको आधार बनाकर प्रसिद्ध इतिहासकार सब्यसाची भट्टाचार्य ने एक अंग्रेज़ी का लेख लिखा था। हाल में ही एक सज्जन की फेसबुक वाल पर देख रहा था कि प्रेमचंद ने फिल्म की जो कहानी लिखी उसमें उन्होंने खुद मज़दूरों के नेता की एक छोटी सी भूमिका भी निभाई थी। बहरहाल हुआ यह कि वह महामंदी का दौर था जब मज़दूरों की अवस्था बहुत बुरी थी, जिसके चलते फ़िल्म से मज़दूरों में और ज्यादा विद्रोह फैलने की आशंका थी इसलिए सेंसर बोर्ड में मौजूद मिल मालिकों ने फिल्म को पूरी तरह से प्रतिबंधित करवा दिया और फिल्म का अब कोई भी प्रिन्ट नहीं बचा है ।

प्रेमचन्द अपने पूरे जीवन में, और उनका जीवन एक अपार संघर्ष है, 60 वर्ष की उम्र नहीं पूरी कर सके फिर भी जीवन भर लम्बा संघर्ष उन्होंने इस बात के लिए चलाया कि जिस औपनिवेशिक तन्त्र के ज़रिये भारत की बदहाली हो रही है, उस तन्त्र का पूरा नंगा चेहरा सामने लाया जाये। इसके लिए न सिर्फ सृजनात्मक लेखन के ज़रिये बल्कि जब वह फिल्म में गये, जो पत्रकारिता उन्होंने की, उन सबके जरिये कोशिश की। इस तरह वो बात जिसका आम फसाने में कोई ज़िक्र न था, कोई भी जिसके बारे में बात नहीं करना चाहता था, उस चीज़ को हमेशा उन्होंने उजागर करने की कोशिश की।

ध्यान देने की एक और बात कि जब एक साहित्यकार के बारे में चर्चा हो रही है तो साहित्य के बारे में भी बात होनी चाहिये । प्रेमचन्द के लगभग सारे उपन्यासों का जो रंगस्थल है वह गाँव और शहर की सीमा रेखा है। ‘रंगभूमि’ में स्पष्ट रूप से, फैक्ट्री का एक मालिक है जो सिगरेट बनाने की फैक्ट्री खड़ी करने के लिए एक गाँव के सूरदास की ज़मीन को लील लेना चाहता है। यह पूरा का पूरा एक ऐसा प्रतीक है, एक ऐसा रूपक है जो आज भी चल रहा है। खेती की जमीन को खत्म कर देना नगरीकरण है। अच्छा ठीक है, आप नगरीकरण कर रहे हैं लेकिन मनुष्य आज भी अगर भोजन करेगा तो वह भोजन किसी न किसी तरह से कृषि के ज़रिये ही पैदा होना है, अन्य कोई भी ऐसा रास्ता आज तक नहीं पैदा हो सका है कि खेती के अलावा किसी अन्य साधन से मनुष्य के खाने के लिए चीज पैदा हो सके। नगरीकरण टिक ही नहीं सकता है, यदि कृषि को भी व्यवस्थित न किया जाये, उर्वर न बनाया जाये, किसानों की अवस्था को ठीक न रखा जाये। इसीलिए कोई भी नगरीकरण, उद्योगीकरण अगर कृषि की कीमत पर होता है तो वह बहुत ही पोली ज़मीन पर खड़ा होगा, उसका कोई भी ठोस आधार नहीं होगा।

प्रेमचन्द को आधुनिकीकरण से कोई परहेज़ नहीं था, उन्हें आधुनिकीकरण के तरीके से शिकायत थी। शिकायत थी कि जो चीनी मिल है वह गन्ना किसान को सूदखोर से आज़ाद नहीं कर पा रही है। सूदखोर से बचने के लिए किसान मिल पर जा रहे हैं कि गन्ना वहाँ पर बेचेंगे। क्या दारूण कथा है कि एक किसान मुँह में दबाकर पैसे बचा लाया है और जा कर ताड़ी पीता है। यह विपन्नता पैदा हो गयी थी उस दौर में। होरी से कहता है कि आज मैं दाँत में दबाकर पैसा ले आया था, सोचा आज ताड़ी पी लेता हूँ ! ऐसी अवस्था। चीनी मिल, जो आधुनिकीकरण की प्रतीक है, वह किसान को आज़ाद नहीं कर रही है। वहाँ पर सूदखोर पहुँच गये और गन्ने का ज्यों ही पैसा मिलता है, त्यों ही वे रखवा लेते हैं। इस तरह से जो यह आधुनिकता है वह भी किसान के शोषण का जो पुराना तरीका है जिसे खुद उपनिवेशवाद ने पैदा किया था अपनी उगाही के लिए, उससे कोई मुक्ति नहीं प्रदान कर रहा, यह प्रेमचन्द की शिकायत है।

लेकिन यह जो आधुनिकता है वह ग्रामीण जीवन में थोड़ा परिवर्तन भी लाती है, यह भी प्रेमचन्द देख रहे थे । गोदान में होरी का बेटा गोबर है वह गया है शहर में। शहर से जब वह वापस आता है गाँव में तो उसका मिजाज़ बदला हुआ है, जो लोग होरी को तंग करते थे वह उनसे उल्टा सवाल करता है। यहाँ तक कि जब होली होती है तो उस होली में जो स्वांग होता है उसे गोबर संगठित कराता है। उसके ज़रिये जो गाँव के शोषक हैं उनका मज़ाक उड़ाया जाता है। यह एक तरह का सांस्कृतिक प्रतिरोध है। प्रेमचन्द उस उपन्यास में सांस्कृतिक प्रतिरोध का एक मुहावरा खड़ा करते हैं जो नगर की आधुनिकता के ज़रिये गाँव में आया हुआ है। ऐसा नहीं है कि वे पूरी तरह से आधुनिकता के विरोधी हैं, यह गलत बात है, बल्कि उनकी आधुनिकता से शिकायत है। वह शिकायत यह है कि गाँव का पुराना शोषण का जो पूरा तन्त्र है, उससे यह मुक्त नहीं कर रही है। अंग्रेजी शासन ने जो नये तरह के तन्त्र बनाये वे भी शोषण से मुक्ति नहीं प्रदान कर रहे हैं, बल्कि उन्हीं को बल प्रदान करने वाली व्यवस्था में शामिल हो जा रहे हैं। उसी तरह से जो कामगार है वह भी एक हद तक तो प्रतिरोध कर पा रहा है लेकिन पूरी तरह से उससे आजाद नहीं हो पा रहा है। इसका बहुत ही प्रतीकात्मक चित्रण है कि जो मिल मालिक है वही बैंकर भी है। आधुनिक तन्त्र की भी पूर्व-आहटें आप सुन देखते हैं। उन्होंने आधुनिक राजनीति तक की खोज खबर इस अन्तिम उपन्यास में ली। इस बात पर ध्यान देने की ज़रूरत है कि 1936 में जब वे गोदान लिख रहे थे तो 1935 के इंडिया एक्ट के तहत पहली बार बड़े मताधिकार के साथ चुनाव होने जा रहे थे। जो चुनाव होने जा रहे थे उन चुनावों में भी, जिस तरह की आगामी राजनीतिक व्यवस्था तैयार होने वाली थी, उसका पूर्वानुमान प्रेमचन्द ने लगा लिया था और इसीलिए प्रेमचन्द वहाँ पर इसकी भी आलोचना करते हैं।

यह जो समूचा आधुनिक तन्त्र पैदा हुआ है जिसमें अखबार के मालिक हैं। आप गोदान में देखते हैं- अखबार के मालिक हैं, मिल मालिक हैं, बैंकर हैं- ये तमाम लोग राजनीतिक हैं। तन्खा नाम का एक आदमी है, उस पर ध्यान दीजिए तो आप देखेंगें कि आज के जो लाबिस्ट हैं, जो राजनीतिक खेल कराते हैं, चुनाव में लोगों को खड़ा कराते हैं, उनकी एक झलक आप को तन्खा में दिखायी पड़ेगी। उपनिवेशवाद के भीतर पैदा हुआ यह तन्त्र अपने भ्रूण रूप में समूचा ही प्रेमचन्द के लिए प्रत्यक्ष था। वह तंत्र इसीलिए उस समय प्रेमचन्द को दिखायी पड़ा क्योंकि वे आम जनता को, कामगार लोगों को, उत्पादक को पहचानते थे। उत्पादक समुदाय की उनकी जानकारी का संबंध अर्थतंत्र के साथ है। उसमें कृषि को आज भी प्राइमरी सेक्टर कहा जाता है, उद्योग सेकण्डरी होता है, और सेवा क्षेत्र टरशियरी होता है। अब अगर इस प्राइमरी क्षेत्र की हालत खराब रही तो जिसे हम सभ्यता कहते हैं वह कहीं टिक नहीं सकती। इसकी व्यवस्था को दुरूस्त किया जाना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है, इस बुनियादी बात को प्रेमचन्द पहचान रहे थे और इसीलिए उन्होंने कामगारों के सवाल को हर मंच पर उठाना ज़रूरी समझा। प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन में उनका उद्घाटन भाषण था। यही भाषण साहित्य का उद्देश्य शीर्षक से छपा। उसमें उन्होंने एक बात कही कि साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल होना चाहिए। इस बात को बहुत सारे लोग इस तरह से पेश करते हैं मानो प्रेमचन्द कह रहे हों कि साहित्यकारों को राजनीति नहीं करनी चाहिए। खुद प्रेमचन्द ने नौकरी से इस्तीफा दिया था गाँधी जी के आन्दोलन के चक्कर में, पत्नी स्वतंत्रता सग्राम सेनानी रहीं। जो आदमी खुद राजनीति में शामिल रहा हो और जिसने लिखा हो कि मेरे सारे लेखन का उद्देश्य एक आध दो ऐसी चीज़ें छोड़ जाना है जिससे हमारे देश की आज़ादी में मदद मिल सके, उस आदमी ने आखिर क्यों कहा कि राजनीति के आगे चलने वाली मशाल साहित्य है। उन्होंने ऐसा इसी वजह से कहा कि तात्कालिक रूप से जो व्यवस्था आपके सामने नज़र आती है, उस व्यवस्था में कई बार जो बुनियादी तबके हैं, उनके जो बुनियादी सवाल हैं, अनदेखे रह जाते हैं। उन सवालों को स्वर देना साहित्य का धर्म है। इसी अर्थ में राजनीति के आगे चलने वाली मशाल साहित्य है। इसी अर्थ में वह जीवन की आलोचना भी है। मुक्तिबोध ने कहा कि जो है उससे बेहतर चाहिए। जो यथास्थिति है, उसमें परिवर्तन होना चाहिए। प्रेमचन्द ने कहा था कि मैं आदर्शोन्मुख यथार्थवाद का समर्थक हूँ। एक नया पद ही उन्होंने गढ़ा। बहुत से लोग यथार्थवाद को इस तरह समझते हैं कि जो जैसा है वैसा ही लिख देना। न ! आदर्शोन्मुख यथार्थवाद का मतलब ही है कि जीवन का ऐसा यथार्थ चित्रण जो यथास्थिति को बदलकर बेहतरी की ओर ले जाने की प्रेरणा पैदा कर सके। इसी अर्थ में उसे मशाल होना होता है। इस अर्थ में कि जो मौजूद है उसमें जिन लोगों के सरोकार सामने नहीं आ पा रहे हैं, तन्त्र जिनकी पूरी तरह से उपेक्षा कर देता है उन्हें सामने ले आया जाये। छापे का जो विशाल तन्त्र बनाया गया है, ऐसा समझा जाता है कि सत्य इससे आता है। न ! इसके ज़रिये झूठ ज़्यादा परोसा जाता है। इसलिए इस इलाके में भी जो बुनियादी कामगार तबके हैं उनकी लड़ाई को लड़ा जाये। प्रेमचन्द ने यह लड़ाई साहित्य के मोर्चे पर लड़ी और स्वाभाविक रूप से साहित्य के मोर्चे पर लड़ना एक कठिन काम था।

हम सब जानते है कि साहित्य के प्रसंग में कई लोग यह कहते हैं कि उसमें शाश्वत का ही जिक्र होना उचित है। उनके ऊपर भी यह आरोप लिखित रूप से लगा कि वे जो कुछ लिखते हैं वह सब तो तात्कालिक महत्व का है। उन पर आरोप लगा था कि आज जो अख़बार में पढ़ते हैं कोई घटना तो प्रेमचन्द की कल उस पर कोई कहानी तैयार हो जायेगी। प्रेमचन्द प्रचार करते हैं, वह प्रोपगन्डिस्ट हैं। प्रेमचन्द ने इस बात को लिखा है कि मै प्रोपगन्डिस्ट हूँ । साहित्य के भीतर भी इस लड़ाई को उन्होंने लड़ा और जो सबसे नाज़ुक मीडियम है, सिनेमा वहाँ पर भी कोशिश की कि जो कामगार है उसके सरोकार सामने आयें। खुद उसके लिए पत्रिका स्थापित की। एक पूरा जीवन है जो निरन्तर इस बात के लिए संघर्ष कर रहा है कि उपनिवेशवाद से मुक्ति की लड़ाई के भीतर कामगारों के सवाल ज़्यादा महत्वपूर्ण ढंग से सामने आयें और इसीलिए केवल गाँधीवाद के भीतर उनकी व्याख्या नहीं हो सकती है। प्रेमचन्द भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन का फलक विस्तारित करना चाहते थे। यहाँ तक कि जो होने वाला था, जिस तरह का शासन आने वाला था, उसको पूर्ण रूप में न सिर्फ उन्होंने आलोचनात्मक निगाह से देखा, बल्कि जो सामाजिक शक्तियाँ आगामी दिनों में शासन करने वाली थीं, उनकी भी उन्होंने पहचान की। इसीलिए उनका जोर इस बात पर रहा कि जो प्रचार का तन्त्र है, चाहे वह लिखित रूप से हो या छवि के रूप में, उस प्रचार-तन्त्र के भीतर भी इस कामगार के सवाल सामने आने चाहिए, उन सवालों को आप तरह तरह की चीजों के ज़रिये दबा नहीं सकते । पूरा जीवन उन्होंने इसी के लिए लगा दिया। वे जो किसान संकट अपने दौर में देख रहे थे वह वर्तमान दौर में भी बना हुआ है।

जब उपनिवेशवाद का जिक्र आया है तो इस बात का भी जिक्र होना ही चाहिए कि जो पुरानी बीमारियाँ थीं, मसलन प्लेग, तो यह भारत में उपनिवेशवाद के दौर में आया है, उससे पहले वह यूरोपीय देशों की बीमारी थी। बड़े पैमाने पर लोग इससे मरते थे। भारत में जब प्लेग से मौतें होनी शुरू हुईं तो यूरोप में बन्द हो गईं। कारण यह है कि जो मौतें होती हैं वे दरअसल बीमारी से कम, कुपोषण से अधिक होती हैं। जिस बात को कहते हैं- भूख, कुपोषण, तो कृषि संकट से इसका गहरा सम्बन्ध है। किसान के पास जितना ज़्यादा पोषण मिलेगा उतना ज़्यादा उसके शरीर में रोगों की प्रतिरोधक क्षमता का विकास होगा। जितना ज़्यादा वह संकट में रहेगा उतना ही ज़्यादा हर एक तरह के संक्रमण से उसके बीमार होने की संभावना बढ़ती जायेगी। इसीलिए लोग कहते हैं कि बंगाल का अकाल प्रकृति निर्मित नहीं था, बल्कि मानव निर्मित था, क्योंकि उपनिवेशवादी शासकों ने सारा का सारा अनाज सेना के लिए मोर्चे पर भेज दिया था। इसके कारण अकाल की भीषणता बढ़ गई थी, लोगों के मरने की तादाद बढ़ गई थी।
आज भी जो यह कोरोना बीमारी आयी है, जो संक्रमण फैला है, पूरी दुनिया में हम देख रहे हैं कि इसका भी एक वर्गीय पहलू है। सब लोग नहीं मर रहे हैं। धनिकों के बारे में आपने सुना कि उन्होंने वेंटिलेटर खरीद कर अपने लिए घर में रख लिया है, उनको हवाई जहाज़ से मुफ्त लाया जा रहा है। ग़रीबों के लिए जो ट्रेन चलाई गयी तो जहाँ का 700 रूपये किराया है वहाँ का 1700-2700 किराया लिया जा रहा है। इतने बड़े पैमाने पर शोषण हो रहा है। अभी जिनका थोड़ी देर पहले मैंने नाम लिया प्रभात पटनायक और उत्सा पटनायक, उन्होंने इसका अध्ययन किया है और इस बात को बताया है कि खाद्यान्न का इनटेक यानी प्रति व्यक्ति उपभोग कम होता गया है। अगर पोषण कम होता जायेगा तो स्वाभाविक रूप से एक सामान्य सी बीमारी भी ज़्यादा घातक बनती चली जायेगी। इसलिए कृषि संकट का सम्बन्ध इससे भी है कि अगर पोषण नहीं मिलेगा, भारत की समूची आबादी को तो स्वाभाविक तौर पर वह रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास नहीं कर पायेगी। हमारे देश में अगर कोई भी आत्मनिर्भरता आनी है, अगर कोई भी आत्मविश्वास पैदा होना है तो उसकी कुंजी, समूचे आधुनिकीकरण और नगरीकरण के साथ इन सबकी बुनियाद के रूप में खेती और खेती करने वाले किसान तथा कृषि की पूरी व्यवस्था को एक जनपक्षधर व्यवस्था बनाना ही है।

हम देख रहे हैं कि आज हमारे भारतीय समाज की पुरानी बहुत सारी जो चीज़ें थीं वे लौटकर वापस आ रही हैं, जिन बातों को प्रेमचन्द ने उठाया था। इस कोरोना बीमारी ने न केवल प्रकृति को देखने लायक बना दिया है, बल्कि इस बीमारी ने भारतीय समाज की गंदगी को और खूबसूरती को भी सामने ला दिया है। लोग अनजान लोगों की मदद कर रहे हैं। केवल यही नहीं हो रहा है कि जो आपके घरों में काम करने के लिए आते हैं, तो पहले अस्पृश्यता के चलते जिस तरह श्रमिक लोगों को दूर से भोजन दिया जाता था, ऊपर से उनके थाली में टपका दिया जाता था, ठीक उसी तरह से आज भी पैसे दूर रख दिये जा रहे हैं । याद आता है कि अमिताभ बच्चन की एक फिल्म थी जिसमें वह कहता है कि साहब हाथ में पैसा दो। स्वाभिमान यह होता है। लेकिन जाति व्यवस्था वापस लौट रही है, सूदखोरी तन्त्र की जकड़न मज़बूत होने जा रही है इसलिए अगर कोई पैकेज दिया जाना है तो इन सब समस्याओं को हल करने के लिए दिया जाना चाहिए। न कि इस जकड़न को और मज़बूत बनाकर न सिर्फ भारतीय किसानों को, बल्कि समूची भारतीय जनता को कमज़ोर बनाकर, उनकी आत्मनिर्भरता की पूरी स्थिति को समाप्त करके, लोगों को और ज़्यादा मारने लायक़ हालात पैदा किये जायें। जनता को ज़्यादा परेशानी में डाल देने वाला जो तन्त्र है उसके लिए पैकेज देने के बजाय, सूदखोरों के नए तबके को खड़ा कर देने के बजाय, प्राइवेट बैंकरों के एक नए तबक़े को खड़ा कर देने के बजाय, ज़्यादा ज़रूरत इस बात की है कि जो कामगार हैं, उनको कुपोषण की चक्की से मुक्त किया जाये, उनको सामाजिक परतन्त्रता से मुक्त किया जाये और उनके अन्दर उत्पादक का आत्मविश्वास पैदा किया जाये।

यह नहीं होगा तो कोई भी आत्मनिर्भरता दो कौड़ी की होगी। न सिर्फ दो कौड़ी की होगी, बल्कि झूठ होगी। आज तो हालत है कि जैसे जो ज़मींदार होता है उसका लठैत भी अपने आप को ज़मींदार समझता है, उसी तरह से पहले जो अंग्रेज़ उपनिवेशवादी थे उनकी मुसाहिबी करनेवाले अपने आपको बड़ा महत्वपूर्ण समझा करते थे। उसी तरह से आज भी साम्राज्यवाद की ग़ुलामी करके उसे आत्मनिर्भरता का नाम देना, एक झूठ है। इस झूठ के मुकाबले वास्तविक आत्मनिर्भरता सिर्फ इसी तरह से पैदा हो सकती है कि जो खेती है, उसको करने वाले जो लोग हैं, उनको नयी तरह की संकलपना के ज़रिये आत्मविश्वास दिया जाये, उनको परतन्त्रता से मुक्ति दिलायी जाये, उनको आर्थिक स्वावलम्बन प्रदान किया जाये और इस तरह से हम ऐसा देश बना सकते हैं जो सचमुच दुनिया के देशों के सामने गर्व से सीना उठाकर चल सके।

दुनिया में आज जो साम्राज्यवादी देश हैं या कल भी जो साम्राज्यवादी देश थे, उनका इतिहास कितना पुराना है ? पूर्वी देशों की सभ्यताओं का जो पुराना इतिहास है- चीन, इराक़, भारत, इन सबके प्रति एक तरह की प्रतिहिंसा इन नए साम्राज्यवादी देशों में इसलिए भी है क्योंकि उनका इतिहास बहुत कम दिनों का है। वे चाहते हैं कि जो पुराने, जो गौरवशाली इतिहास वाले इलाक़े हैं, उन्हें नष्ट कर दिया जाये। इराक़ पर हमला करके उन्होंने बहुत प्राचीन सभ्यता को नष्ट कर दिया, चीन के साथ वे लगातार युद्ध की स्थिति बनाये हुए हैं। हमारा जो शासक वर्ग है वह भारतीय देश के साथ गद्दारी करके, देशद्रोह करके इनके हाथ में हमारे भविष्य को सौंप देना चाह रहा है ! यह कोई चीज़ होती है कि लोग चले जा रहे हैं और आप उनकी खोज खबर लेने के बजाय इसका फायदा उठा कर लोकतन्त्र को समाप्त कर रहे हैं, उनके जो भी अधिकार हैं वह सब समाप्त कर रहे हैं, उनके जीवन के जो सरोकार हैं उन्हें कहीं सामने नहीं लाने दिया जा रहा है। प्रेमचन्द का जो संघर्ष था उसको याद करके फिर से हमें अर्थतन्त्र की बुनियाद को राष्ट्रीय सरोकार के बतौर सामने लाना होगा और निश्चित रूप से वह वापस आयेगा।

इस कोरोना ने दिखा दिया कि आप सब्ज़ी कहाँ से उगायेंगे, कहाँ से ले आयेंगे ? उसके लिए कृषि की ज़रूरत है। दूध कहाँ से ले आयेंगे ? कहने का मतलब यह है कि आत्मनिर्भर नहीं है नगर। स्मार्ट सिटी बना रहे थे। स्मार्ट सिटी बनाते बनाते सिटीज़ की वह हालत हो गई कि लोग गाँव भागे जा रहे हैं। जो गाँव से आये थे, उन तक को खिलाने कि स्थिति में नहीं रह गये ये शहर। ये टिकने वाली चीज़ें नहीं हैं, जैसे पूँजीवाद ऐसा अर्थतन्त्र है जो काल्पनिक समृद्धि देता है, ऐसी समृद्धि जो है नहीं वास्तव में । इस तरह की जो जड़विहीन आधुनिकता है जब इस पर संकट आया है तो स्वाभाविक तौर पर हमें अर्थतन्त्र की बुनियादी पद्धति के बारे में विचार करना होगा। उसे पुनर्जीवन प्रदान करना उसी तरह से सम्भव नहीं है क्योंकि वह संकट में था तभी लोग भागकर के नगरों में आए थे अपना जीवन चलाने के लिए। उसे पुनर्जीवित करने के लिए, जो उसकी पुरानी समस्याएँ थीं, जो उसके साथ जुड़ा हुआ जातिवाद का तन्त्र है, जो उसके साथ जुड़ा हुआ यह तन्त्र है कि अधिकांश लोग जो परिश्रम करते हैं खेती में उनके पास खेती की ज़मीन नहीं है, इनको बदलना होगा। जैसे पूँजीवाद ने किया कि जो मज़दूर काम करता है, उसके यहाँ काम करने का उपकरण नहीं है। वही चीज़ खेती में मौजूद है कि खेत पर जो मेहनत करता है उसके पास खेत का मालिकाना नहीं है इसीलिए वह पूरी तरह से, उस पर अपनेपन से नहीं कर पाता है काम, तो इसके लिए भूमिसुधार सम्पन्न करना होगा। किसान को जमीन का मालिकाना देना होगा और उसे, जो साम्राज्यवादी अर्थतन्त्र की ग़ुलामी का जो नया दौर शुरू करने की कोशिश की जा रही है, जिस तरह से सट्टा बाज़ारी के तहत कृषि उत्पाद को लाने की कोशिश हो रही है, उसके मुकाबले वास्तव में अर्थतन्त्र को खड़ा करने वाली चीज़ के रूप में देखना होगा और समूची चेतना में, सृजन के सभी रूपों में, उसके सरोकारों को सामने ले आना होगा। राष्ट्रीय चेतना के केन्द्र में, राष्ट्रीय चिंतन के केन्द्र में उसको स्थापित कर देना ही हमारे अर्थतन्त्र को फिर से गति देने में कामयाब हो सकता है।

बैंकों को फिर से पैसा दे करके, ताकि फिर से पूँजीपति लोन लेकर देश छोड़कर भागना शुरू करें, संकट से उबरने का वाजिब रास्ता नहीं है । इन देश छोड़ने वालों में किसी के लिए अफ्रीका में ज़मीन खरीदी जा रही है, किसी के लिए कहीं और ज़मीन ख़रीदी जा रही है, तो इससे अर्थतन्त्र की सेहतमंद वापसी नहीं होने जा रही । जो लोग शहरों से वापस लौट रहे हैं वे स्वाभाविक रूप से देहात में जा रहे हैं और इनके साथ एक बड़ा एजेंडा, एक बड़ा कार्यभार सामने आया है कि, वहाँ पर संकट था तभी ये लोग बाहर आये थे इसलिए वहाँ की समस्याओं को हल करना, यह एक राष्ट्रीय कार्यभार के भीतर आना चाहिए। आगामी समय में समूची राजनीति को इसके इर्दगिर्द घूमना चाहिए।

प्रेमचन्द के ज़रिये, आज के किसान संकट और उसको हल करने के कुछ एक सम्भावित रूपों तथा इससे हमारे सामने जो चुनौती खड़ी होती है उसके बारे में ये सब बातें मेरे दिमाग़ में थीं। मुझे यही सब कहना था प्रेमचन्द के बारे में। आज उनका 140वाँ जन्मदिन है। प्रेमचन्द जब पैदा हुए थे, उसके तीन साल बाद मार्क्स का देहांत हुआ था। इन आखिरी तीन वर्षों में मार्क्स ने जो एक काम किया था वह यह कि रूस की मुक्ति के सम्बन्ध में उन्हें एक पत्र लिखा गया था, उस सिलसिले में विचार करते हुए उन्होंने ग़ैर औद्योगिक देश में क्रान्ति का कैसे विकास होगा, कैसे उसे अन्जाम दिया जाएगा, इस पर विचार किया था। भारत के किसानों के बारे में, कृषि के बारे में उन्होंने विस्तार से विचार किया था। 1853 में जब भारतीय रेल आयी थी तो उसी समय उन्होंने इस बात को रखा था कि इसका लाभ भारतीय लोग तभी उठा पायेंगे जब वे आजादी प्राप्त कर लेंगे। आज़ादी क्या है? ख़ुदमुख्तारी। अपने बारे में निर्णय ले सकना। जबसे नवउदारवाद का दर्शन चला तभी से किसी भी देश के आर्थिक नीतियों के फैसले वहाँ के शासक करते हुए सिर्फ दिखाई पड़ते थे। वास्तव में वे फैसले विश्व बैंक या इन्टरनेशल मानीटरी फण्ड में हुआ करते थे। भारतीय अर्थतन्त्र को पूरी तरह से साम्राज्यवाद के सामने गिरवी रख देने का जो लम्बा अभियान चला था, उस पर भी सवाल उठाने का सवाल कृषि अर्थतन्त्र की बेहतरी से गहरे जुड़ा हुआ है। यह उपनिवेशवाद की 150-200 वर्षों से चली आ रही एक तरह की निरन्तरता है जिसमें हमारे कृषि अर्थतन्त्र को औपनिवेशिक प्रभुओं की ज़रूरतों के मुताबिक़ बार बार पुनर्गठित किया जा रहा है ताकि जो लोग हाड़ माँस के रह गए हैं उनका भी रक्त चूस कर और सुखी सम्पन्न बनाया जा सके अन्य लोगों को।

यह जो निरन्तरता है उस पर रोक लगाई जा सके, वास्तव में भारतीय राष्ट्र स्वाभिमान के साथ खड़ा हो सके इस पूरी दुनिया के देशों के समुदाय के बीच में, यह सब इस पर निर्भर करता है कि जो वर्तमान झटका लगा है, इसके बाद अर्थतन्त्र को पुनर्जीवन देने के लिए आप कौन सा तरीक़ा अपनाते हैं। हमको लगता है कि इस सिलसिले में प्रेमचन्द हम लोगों के सामने बहुत ऊँचा मानदण्ड रखने में सफल हुए हैं।

(फोटो रिसर्च किसलय द्वारा, साभार गूगल।)

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion