‘स्त्री संघर्ष का कोरस’ के तीसरे फेसबुक लाइव में निर्देशक, नाटककार, संवाद लेखक, नर्तक, और मृदंग वादक पूर्वा नरेश ने लखनऊ से सूरीनाम, दिल्ली से पूना होते हुए मुंबई तक के अपने जीवन अनुभवों और संघर्षों को साझा करते हुए बताया कि, ‘मेरा बचपन लखनऊ में बीता, उसके बाद मैं 4 साल सूरीनाम में रही, दिल्ली विश्वविद्यालय से इकोनामिक्स आनर्स की पढ़ाई की और एफ़टीआईआई पुणे से मैंने फिल्म प्रॉडक्शन का कोर्स किया। उसके बाद से मैं मुंबई में काम कर रही हूँ।’
पूर्वा आरंभ मुंबई नाम से खुद का प्रॉडक्शन हाउस चलाती हैं, जिसमें अपने लिखे हुए और दूसरे नाटककारों के नाटकों का भी मंचन करती हैं। वे अपनी टीम के साथ पटना में कोरस की तरफ से आयोजित नाट्योत्सव में भी नाटकों का मंचन कर चुकी हैं।
पूर्वा ने कोरस टीम द्वारा उपलब्ध कराए गए सवालों को आधार बनाते हुए अपनी बात रखी। उन्होंने बताया कि उनकी परवरिश कला, संस्कृति और लेखन के माहौल में हुई, क्योंकि उनकी माँ एफ़टीआईआई, पुणे के डाइरेक्शन कोर्स की पहली महिला ग्रेजुएट रहीं और उनके पिता नरेश सक्सेना हिन्दी के ख्यातिलब्ध कवि और लेखक हैं।
लखनऊ की नज़ाकत, सूरीनाम के विविधवर्णी समाज के अनुभवों और एफ़टीआईआई, पुणे में अध्ययन की चुनौतियों ने पूर्वा के व्यक्तित्व को गढ़ा है। जब पूर्वा एफ़टीआईआई, पुणे से पढ़ाई करने गईं तो उनकी प्राथमिकता थी निर्देशन का कोर्स करने की। लेकिन उसी साल से एफ़टीआईआई में अनेक नियम निर्देशों में परिवर्तनों के कारण उन्हें निर्देशन के कोर्स में प्रवेश नहीं मिल। अब उनके सामने अभिनय, कला निर्देशक और प्रॉडक्शन जैसे पाठ्यक्रमों के विकल्प थे जिसमें से उन्होंने प्रॉडक्शन के कोर्स का चुनाव किया। हालांकि यह भी उन्होंने बहुत उत्साह से नहीं किया, क्योंकि उनकी पहली पसंद निर्देशन का कोर्स ही था। इस वाकये का जिक्र करते हुए पूर्वा बताती हैं कि ऐसे में उनकी निर्देशिका माँ ने उन्हें नटराज का उदाहरण देते हुए समझाया कि अगर नटराज का हवा में उठा पैर कला है तो उनका ज़मीन पर रखा हुआ पैर कला की ज़मीन है। इसलिए प्रॉडक्शन का क्षेत्र एक तरह से कला की ज़मीन है ।
प्रॉडक्शन का कोर्स पूरा करने के बाद पूर्वा मुंबई पहुँचीं जहां उन्हें एक अलग तरह की जद्दोजहद का सामना करना पड़ा। प्रॉडक्शन की नौकरी खोजने के क्रम में पूर्वा को दो बातों का सामना करना पड़ा। पहली यह कि उनसे कहा गया कि आप तो लखनऊ से हैं, तो गाली कैसे देंगी, और प्रॉडक्शन का काम बिना गाली के होता नहीं। दूसरी यह कि आप महिला हैं तो क्रू के सदस्य, जिनमें ज़्यादातर पुरुष होते हैं, वे आपकी बात कहाँ सुनेंगे। प्रसिद्ध निर्देशक सुधीर मिश्रा ने जब यही बात पूर्वा से कही तो उनका जवाब था कि, ‘सर, लेबर से बात सिर्फ घुड़क कर ही नहीं की जाती।‘ यह बात सुनकर सुधीर मिश्रा ने पूर्वा को काम करने का मौका दिया, क्योंकि वह तंज़ को समझने वाले निर्देशक थे और उनका भी यही मानना था कि सिर्फ घुड़की से काम नहीं होता, बल्कि प्यार से भी होता है । तो इस तरह यहाँ से एक शुरुआत हुई ।
सुभाष घई के साथ काम करते हुए भी पूर्वा को अनेक तरह की बातों का सामना करना पड़ा, रात की शिफ्ट में काम करना पड़ा, लेकिन उन्होंने काम सीखने के अवसर में खुद को और लोगों की सोच को आड़े नहीं आने दिया, उन्होंने इन सब चुनौतियों के बीच खुद को काम करने और सीखने के लिए तैयार किया।
अपनी बातचीत के दौरान पूर्वा ने मी टू आंदोलन की चर्चा करते हुए कहा कि यह एक महत्वपूर्ण आंदोलन था। कोई महिला यदि अपनी आप बीती दुनिया के सामने रख रही है तो उसे ऐसे ही नहीं खारिज किया जा सकता। अगर कोई महिला इस तरह की कोई बात कर रही है तो उसके लिए उसे बहुत साहस करना होता है, भले ही ऐसी बातों में अक्सर कोई ठोस सबूत न हो फिर भी उसकी बात को हमें गंभीरता से लेना चाहिए।
अपनी बातचीत को आगे बढ़ाते हुए सम्पत पाल पर अपने लिखे नाटक के हवाले से पूर्वा बताती हैं कि अगर सम्पत पाल लाठी उठाती हैं तो उसके पीछे भी उसी पितृसत्ता की कन्डीशनिंग काम कर रही है, वे भी तो उसी पितृसत्ता के टूल्स का इस्तेमाल कर रही हैं। इस तरह कई बार हम जिसे सशक्त स्त्री के बतौर देखते हैं, वह भी पुरुषों के बनाए पावर स्ट्रक्चर का शिकार होती है, इस बात को भी हमें समझना चाहिए।
पितृसत्ता ने स्त्री को प्रकृति का दर्जा प्रदान कर दिया, प्रकृति जो सृजन करती है। कहने का मतलब यह कि चूंकि स्त्री सृजन करती है तो जो स्त्री बच्चे नहीं पैदा कर सकती या बच्चे नहीं पैदा करना चाहती; वह उस देवी के पद से च्युत हो जाती है जो पद उसे पितृसत्ता द्वारा प्रदान किया गया है। यह सौंदर्यशास्त्र बदलना होगा जिसमें स्त्री को साजिशन देवी का दर्जा प्रदान किया गया। पितृसत्ता ने स्त्री को या तो देवी घोषित किया या रंडी। यह सौंदर्यशास्त्र दो अतियों की बात करता है जिसमें स्त्री या तो देवी है या रंडी। बल्कि होना यह चाहिए कि एक स्त्री का मूल्यांकन हम सामान्य मनुष्य के बतौर ही करें, न कि देवी के रूप में। क्योंकि न तो वह देवी हो सकती है और न उसे होने की जरूरत है।
अपने लिखे और निर्देशित नाटक ज़ून की चर्चा करते हुए पूर्वा हबा खातून और कश्मीर के राजा यूसुफ शाह चक की प्रेम कथा को आधार बनाकर यह प्रस्तावित करती हैं कि देश सिर्फ नक्शा नहीं होता, देश बनता है वहाँ रहने वाले लोगों से । सरहदें बनती बिगड़ती हैं, और बनती बिगड़ती सरहदों के बीच राजा से देश छूट सकता है लेकिन बोली, भाषा, संस्कृति और लोगों से प्यार करने वाले से उनका देश नहीं छूट सकता, इसीलिए जब यूसुफ शाह चक अकबर द्वारा कैद कर लिए गए और और उन्हें बिहार भेज दिया गया तो हबा खातून ने बिहार जाने या अकबर के हरम में शामिल होने, दोनों ही विकल्पों को ठुकरा दिया। वे अपने देश और वहाँ के लोगों से प्यार करती थीं और उसे नहीं छोड़ना चाहती थीं।
पूर्वा अपने वक्तव्य में संपत्ति, उत्तराधिकार, मोनोगैमी, विवाह संस्था और स्त्री पर पुरुष एकाधिकार की ऐतिहासिक प्रक्रिया को भी उद्घाटित, व्याख्यायित करती हैं। जब निजी संपत्ति की अवधारणा का विकास हुआ तो उस संपत्ति के उत्तराधिकारी का सवाल भी पैदा हुआ। उस समय जब एक स्त्री पर एक पुरुष के एकाधिकार की अवधारणा विकसित नहीं हुई थी, तब समस्या यह पैदा हुई कि यह कैसे तय हो कि कोई संतान किस पुरुष की है। स्त्री को तो यह साबित करने की जरूरत नहीं थी, लेकिन उत्तराधिकार के सवाल को हल करने के लिए पुरुष को यह साबित करने की जरूरत थी। इस तरह मोनोगैमी, विवाह और एक स्त्री पर एक पुरुष के अधिकार की अवधारणा विकसित हुई।
आप अपने लेखन और निर्देशन में कौन से मानदंडों को जेहन में रखती हैं? इस सवाल का जवाब देते हुए पूर्वा ने प्रस्तावित किया कि इसी सवाल के जवाब में अनेक सवालों के जवाब मिल जाएंगे । उन्होंने बताया कि वे 1985 में आए एक टेस्ट को अपने लेखन का आधार बनाती हैं जिसमें मूलतः तीन मानक है, एक; कहानी या फिल्म में दो औरतों के बीच की बातचीत किसी मर्द के बारे में नहीं होनी चाहिए, दो; उन दोनों औरतों के स्क्रिप्ट में नाम होना चाहिए, तीन; उस सीन को अगर हटा दिया जाए तो कहानी या फिल्म में कोई फर्क पड़ना चाहिए। साथ ही साथ औरतों का चरित्र किसी नायक या पुरुष का चरित्र गढ़ने या विकसित करने के लिए नहीं इस्तेमाल किया जाना चाहिए । इस आधार को और विस्तार देते हुए वे बताती हैं कि अब एलजीबीटीक्यू और अल्पसंख्यक समुदायों के चित्रण के लिए भी अनेक मानकों का विकास हुआ है, जिसे अपनाए जाने की जरूरत है।
लोकप्रिय हिन्दी सिनेमा में स्त्रियों की अवस्थिति पर बात करते हुए पूर्वा कहती हैं कि इधर बीच बहुत सी फिल्में आयीं हैं जिनमें स्त्री पात्रों को संवेदनशीलता के साथ चित्रित किया गया है। उदाहरण देते हुए वे बताती हैं कि बधाई हो फिल्म में एक स्त्री की यौनिकता और बच्चे पैदा करने के निर्णय की आज़ादी को चित्रित किया गया है, जो बेहद महत्वपूर्ण है। हालांकि ऐसी महत्वपूर्ण फिल्मों में भी सावधान न रहने पर कुछ चूक हो जाने की संभावना बनी रहती है। जैसे इसी फिल्म के एक दृश्य की वे चर्चा करती हैं जिसमें नीना गुप्ता के लगभग 50 की उम्र में प्रेग्नेंट होने को लेकर उनकी भाभियाँ और परिवार की अन्य महिलाएं उन पर तंज़ कसती हैं। ऐसे में उनकी सास यह कहकर उनका पक्ष लेती है कि जब वे बीमार थीं तो नीना ने ही उनकी सेवा की, कोई और उस समय दिखाई नहीं दिया। इस संदर्भ में पूर्वा कहती हैं कि इस सेवा के आधार पर नीना गुप्ता के निर्णय को जायज ठहराना उचित नहीं था; बल्कि होना यह चाहिए था कि एक स्त्री होने के नाते अपनी यौनिकता और अपने निर्णय लेने की आज़ादी को थियराइज किया जाता।
अपने वक्तव्य के अंत में पूर्वा ने यह उम्मीद व्यक्त की कि उन्होंने अपनी बातचीत में विमर्श और सोचने विचारने के लिए कुछ बिन्दु जरूर ही श्रोताओं के समक्ष रखे होंगे, और निश्चय ही उनकी यह उम्मीद बेमानी न थी। पूर्वा का पूरा वक्तव्य स्त्री संघर्षों को नए नजरिए से देखने और विचार करने के लिए प्रेरित करता है।
(प्रस्तुति: डॉ. रुचि दीक्षित)