लखनऊ. कोरोना काल में बड़ी मात्रा में कविताएं रची जा रही हैं। मानव संकट सृजन के लिए आधार बनता है। आज की रचनाओं में भावों की समानता मिलती है, वहीं ‘कहन’ के तरीके या उसके उपकरण कवियों के भिन्न हैं। ‘कविता संवाद’ के द्वारा लगातार ऐसी कविताओं का पाठ फेसबुक पर किया जा रहा है। इसके आठवें अंक में दस कवियों का पाठ हुआ। इसका संयोजन व संचालन कवि व जन संस्कृति मंच, उत्तर प्रदेश के कार्यकारी अध्यक्ष कौशल किशोर ने किया।
शुरुआत वरिष्ठ गजलकार महेश कटारे सुगम (बुन्देलखण्ड) की गजलों से हुई जिसमें वे कहते हैं ‘पांव में छाले आंख में आंसू पीड़ा भरी कहानी लिख/मजदूरों के साथ हुई जो सत्ता की मनमानी लिख’। इस मौके पर सुगम की दो और गजलों का पाठ भी हुआ जिसमें एक बुन्देली गजल थी।
इस मौके पर तीन युवा कवियों की कविताओं का पाठ हुआ। कुमार प्रांजल राय (कन्नौज) मनुष्य द्वारा प्रकृति के साथ किये जा रहे बर्ताव की आलोचना करते हुए अपनी कविता में कहते हैं ‘पशु-पक्षियों को कैद करने वाला मनुष्य/खुद पड़ा रहा कैद में/गिनता रहा मच्छरदानियों के छेद ’ ।
जहां लालदीप गोप (धनबाद) आदिवासी क्षेत्र में कंपनियों और सत्ता की मिलीभगत से की जा रही लूट पर चोट करते हैं, वही नीरज कुमार मिश्र (दिल्ली) लाॅक डाउन से पैदा हुए आम आदमी की बेबसी कुछ यूं व्यक्त करते हैं ‘ये आँखें देख रही हैं/प्रवासी मजदूरों का ये पलायन/इतिहास के उजले पन्नों में/दर्ज होगा ये क्रूर समय/दर्ज होगी मजदूरों की बेबसी/जो आँखों के कोरों के बीच….कंक्रीट के जंगलों में/उनके पैरों की फटी/दरारों से झाँक रही है/देश की अर्थव्यवस्था।
कुमार अंजन (भिलाई) की दो कविताएं सुनायी गयीं। वे थीं ‘स्वप्न और यथार्थ’ और ‘तानाशाह’। वे तानाशाह के चरित्र का पर्दाफाश करते हुए कहते हैं ‘वह झूठ को इस तरह कहता है बार-बार/कि लोग उसे सच समझने लगते हैं /और करने लगते हैं उसका अनुसरण/इस तरह वह जनता की आँखों में/बांधकर अंधराष्ट्रवाद की पट्टी/भेड़ों की भीड़ में कर देता है तब्दील’।
जब आम आदमी का जीवन संकट में है। अधिकार से लेकर रोजी-रोटी, उसकी भाषा व संस्कृति का अपहरण किया जा रहा है, ऐसे में मीता दास (विलासपुर, छत्तीसगढ) ‘क्या बचायें’ कविता में व्यंग्य करती हैं ‘मातृभाषा बचाएं या आदि भाषा/बेहद दुविधा में हूं परिधान नायक/खेत बचाएं या जन्म भूमि/बेहद दुविधा में हूं खलनायक!’
मृदुला सिंह (अम्बिकापुर, छत्तीसगढ़) की दो कविताओं का पाठ हुआ। अपनी एक कविता में बताती है कि आज देश दो महीने से लाॅक डाउन में है। जनता उसकी परेशानी झेल रही है। लेकिन स्त्री जीवन तो सदियों से लाॅक डाउन में है। वे कहती हैं ‘जानना हो उनके मन का तो तोड़ो ताले/बरसों पुरानी उनकी जंग लगी संदूको के/मिलेंगे उसमे थोड़े पहाड़ी बादल के टुकड़े/खुला सा आकाश/थोड़ी धूप/थोड़ी हवा/और कुछ सोन चिड़िया के सुनहरे पंख/जिन पर सदियों का लॉकडाउन है’।
संजय कुन्दन (दिल्ली) की कविता ‘खबर और कविता’ का पाठ हुआ जिसमें वे कहते हैं कि गोदी मीडिया के इस काल में जब खबरें झूठ को सच बनाने में लगी हैं, ऐसे में कविता को ही खबर बन जाना है। कविता ही है जो सच पहुंचा रही है। इस बात को वे कुछ यूं कहते हैं ‘अखबारों में एक नायक की दाढ़ी भी खबर है /कविता की, उस दाढ़ी में छिपे तिनके पर नजर है।’
रंजीत वर्मा (पटना) अपनी कविता ‘रगों में ठाठें मारता है खून’ में इस हृदयहीन व्यवस्था पर करारा चोट है तो वहीं 13 साल की उस लड़की की जीवटता व संघर्ष गाथा है जिसमें वह तेरह सौ किलोमीटर अपने बूढ़े पिता को सइकिल पर बिठाकर गुरुग्राम से दरभंगा लाती है। ‘यूं ही नहीं रगों में ठाठें मारता है खून इस कदर/कि तेरह साल की लड़की/अपने घायल पिता को साइकिल पर बिठाकर/तेरह सौ किलोमीटर का सफर तय करती हुई/गुड़गांव से दरभंगा ले आती है/किसी गरीबी रेखा से/ऊपर रहने वालों से पूछकर देखो/क्या उनकी रगों में इस तरह/कभी ठाठें मारता है खून’।
‘कोरोना काल में कविता’ कार्यक्रम के इस अंक की अन्तिम कवयित्री थीं कात्यायनी (लखनऊ)। उनकी कविता ‘बुद्ध ही बतायें’ का पाठ हुआ। इसमें वे कहती हैं कि जिन्दगी को सुन्दर बनाने का संघर्ष निरन्तर जारी रहने वाला कर्म है। इस बात को वे बुद्ध के माध्यम से कहती हैं ‘हमने भी एक दिन देखा/एक बूढ़ा, एक बीमार और एक मुर्दा आदमी/और फिर हमने सोचा कि जिन्दगी की/खूबसूरती सबके हिस्से आये/इसके लिए अभी कितना लड़ना है/कितनी बार और आग का दरिया पार करना है !
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